चुगलखोरी की लत
चुगलखोरी एक विशेष कला है, जिसमें व्यक्ति निपुणता हासिल न ही करे तो अच्छा है। इस शब्द का प्रयोग सभी गाली के रूप में करते हैं। चमचा, बॉस का कुत्ता आदि कहकर लोग उनके सामने अथवा पीछे उनका उपहास उड़ाते हैं। इन चिकने घड़ों को इन विशेषणों से कोई भी अन्तर नहीं पड़ता। वे उल्टा खुश होते हैं। चुगलखोरी की इस नामुराद आदत को हम नकारात्मक सोच का नाम दे सकते हैं।
प्राय: लोग चुगलखोरी की आदत को पसन्द नहीं करते। अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए, ये चुगलखोर दूसरों की पीठ में छुरा भौंकने जैसा निकृष्ट कार्य करते हैं। ऐसा दुष्कृत्य करने वालों से लोग दूरी बनाकर रखना चाहते हैं। उनके सामने ऐसी कोई भी बात करने से कतराते हैं, जिसको तोड़-मरोड़कर वे अपने ही लाभ के लिए उपयोग कर सकें और दूसरों की पीठ में छुरा घोंप सकें।
जबान का यह कुटेव किसी इन्सान को सबकी नजरों से गिरा देता है। लोग सोचते हैं कि जब दूसरों की चुगली हमारे सामने करके यह वाहवाही लूटना चाहता है, तो फिर अन्यों के समक्ष अवश्य हमारी बुराई भी करता होगा। ऐसे लोग हमारे आसपास सर्वत्र ही उपलब्ध रहते हैं। कार्यालयों में कम्पनी के स्वामी अथवा बॉस ऐसे चुगलखोरों को पालते हैं, जो ऑफिस में बैठे हुए उन्हें अपने साथियों के विषय में बताते रहें।
इस चुगलखोर के विषय में 'नर्ममाला' में कवि ने कहा है -
पिशुनेभ्य:नमस्तेभ्य: यत्प्रसादान्नियोगिन:।
दूरस्था अपि जायन्ते सहस्त्रश्रोत्रचक्षुष:॥
अर्थात् उन चुगलखोरों को नमस्कार है जिनकी कृपा से स्वामी दूर रहते हुए भी हजार आँखों और कानों वाले हो जाते हैं।
इसका तात्पर्य यही है कि किसी भी कार्यालय में कार्य करने वाले स्वामी यदि दूर भी बैठे हों, तब भी उनको ऑफिस की खबरें देने वाले उनके चमचे वहाँ विद्यमान रहते हैं। वे उन्हें आँखों देखी सारी खबरें देते रहते हैं। वे नमक-मिर्च लगाकर उन सारी झूठी-सच्ची खबरों को बताने का अपना कार्य बड़ी कुशलता से निभाते हैं। इस प्रकार करके वे अपने साथियों का अहित कर बैठते हैं।
इन चुगलखोरों को बॉस भी कोई महत्त्व नहीं देते। सिर्फ स्वार्थ सिद्ध करने के लिए ही बॉस इनको मुँहलगा बना लेते हैं। वे काम निकल जाने पर दूध में पड़ी मक्खी की तरह इन्हें निकाल फैंकने में भी परहेज नहीं करते। इस चुगलखोरी के दूरगामी परिणाम भयंकर होते हैं। ये लोग अपनी दुश्मनी निकालने के लिए भी बॉस के कान भरते हुए, अनजाने में ही अपने साथियों का अहित कर बैठते हैं।
'पञ्चतन्त्रम्' नामक पुस्तक में कवि ने इसी भाव को स्पष्ट किया है -
अहो खलभुजङ्गस्य विपरीतो वचक्रम:।
कर्णे लगति चैकस्य प्राणैरन्यो वियुज्यते॥
अर्थात् यह आश्चर्य की बात है कि इस चुगलखोर रूपी सर्प के मारने का उपाय ही विपरीत प्रकार का है। वह एक के कान में डसता है, पर प्राणों से कोई दूसरा वियुक्त होता है।
कवि चुगलखोर को साँप की संज्ञा दे रहा है। वह कह रहा है कि इनको मारने का तरीका बहुत ही विचित्र है। यह किसी एक व्यक्ति के कान में अपनी चुगली का विष उगलता है और उससे किसी दूसरे व्यक्ति का विनाश होता है। चुगलखोर व्यक्ति दूसरे का अनजाने में कितना अहित कर जाता है, शायद वह स्वयं भी नहीं जानता। जिसका वह अहित करता है, उसे अपनी स्थिति को सुधारने में बहुत प्रयास करना पड़ता है।
चुगलखोरी रूपी निन्दा पुराण दूसरे का अहित तो करता ही है, स्वयं अपने लिए भी गड्ढा खोदता है। दूसरों को नीचा दिखाने की होड़ में मनुष्य हर जगह अपनी ही हानि कर बैठता है। ऐसे व्यक्ति अविश्वसनीय होते हैं। अत: उन पर कोई विश्वास नहीं करता। ऐसा कुकृत्य करता हुआ मनुष्य अपने अन्तस् के विचारों को दूषित करता है। इस चुगली रूपी मल से अपने अन्त:करण की शुद्धि करना बहुत कठिन हो जाता है।
जीवन के अन्त में अर्थात् मृत्यु के पश्चात ऐसे लोगों का नाम सभी हिकारत से लेते हैं। प्रयास यही करना चाहिए कि इस बुराई के घर से यथासम्भव दूर रहा जाए। क्षणिक तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति करते हुए अथवा अपने अहं को तुष्ट करने के लिए, किसी का अहित नहीं करना चाहिए। ऐसा करना स्वयं से दुश्मनी निभाना होता है। इस प्रकार करके मनुष्य को अपने लोक और परलोक को बिगड़ने नहीं देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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