जीवन की उलझनें
धागे चाहे ऊन के हों या रेशम के अथवा फिर कोई और, सब उलझ जाते हैं। इसी प्रकार मनुष्य भी अपने जीवन में किसी न किसी उलझन में उलझा रहता है। धागों की भाँति वह उन्हें भी सुलझाने में लगा रहता है। एक सीमा तक उन्हें सुलझा भी लेता है, फिर कुछ समय पश्चात उसे कोई अन्य उलझन घेर लेती है। यह मनुष्य जीवन की त्रासदी है कि उसे सुख और शान्ति थोड़े ही समय के लिए मिल पाती है। कोई न कोई परेशानी मुँह बाये उसके सामने खड़ी ही रहती है।
मनुष्य जितना अपनी उलझनों को सुलझाने में व्यस्त रहता है, उतना ही वह मानसिक तौर पर अस्वस्थ रहता है। उसे मानसिक सुख-चैन तभी मिल सकता है, जब अपने जीवन की समस्याओं से दो-चार न हो ले। जब तक उसकी उलझनें या परेशानियाँ उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा बनी रहती हैं, तब तक वह बेचैन रहता है। उनसे दूर भागने का हरसम्भव प्रयास भी करता है। पर ये हैं कि मुँह चिढ़ाती हुई, मनुष्य को लाचार बनाकर दम लेती हैं।
मनुष्य अपनी इन सभी मुसीबतों से छुटकारा तभी पा सकता है, जब वह अपने परिवार के साथ मिल-बैठकर, उनके साथ सब साझा करें। अपने पास रहने वाले सज्जनों से परामर्श ले और ईश्वर पर दृढ़ विश्वास रखे। उसके इधर-उधर भटकने यानी तथाकथित गुरुओं के पास जाने, तन्त्र-मन्त्र का सहारा लेने या तीर्थों एवं जंगलों में वह भटकते रहने से तो उसे कोई भी लाभ नहीं होने वाला। ये सब उसका परिश्रम से कमाया हुआ धन व समय नष्ट करने वाले हैं।
अपने घर में बैठकर, शान्त मन से विचार करे या ध्यान करे, तो अवश्य ही उसे कोई न कोई समाधान मिल जाता है। धागों को सुलझाने के लिए भी सहनशीलता की आवश्यकता होती है। अफरा-तफरी करने से वे कोमल धागे टूट जाते हैं। यदि मनुष्य अपने झूठे अहं के कारण शान्ति नहीं बनाए रख सकता, तो उसका कुछ भी नहीं हो सकता। फिर यदि वह अनावश्यक ही परेशान रहता है तो रहे। यह तो उसका स्वभाव ही कहा जाएगा।
मनुष्य का जीवन सदा ही उलझनों से घिरा रहता है। बड़ी कठिनाई से एक उलझन सुलझती है, तो दूसरी मुस्कुराते हुए मुँह चिढ़ाने लगती है यानी सामने आकर खड़ी हो जाती है। फिर उसे सुलझाने के लिए मनुष्य को अथक परिश्रम करना पड़ता है। उसे दिन-रात एक करके उपाय खोजना पड़ता हैं। तब जाकर कहीं उसे चैन की साँस आती है। इस प्रकार परेशानियों की आँख-मिचौली का यह खेल अनवरत चलता रहता है।
दुख-परेशानियाँ या उलझने मनुष्य के पास अपने कर्मों के अनुसार आती रहती हैं। पूर्व जन्मों में यदि अच्छे कर्म अधिक किए हैं, तो उलझनें कम सताती हैं। परन्तु यदि पूर्वजन्मों में अपेक्षाकृत अधिक दुष्कर्म अधिक किए हैं, तो ये अधिक दुख देती हैं। इन उलझनों के मकड़जाल में मनुष्य तभी उलझकर जकड़ जाता है, जब वह पूर्व जन्मों में सद्कर्म करने में कंजूसी करता है और अपनी इच्छा से दुष्कर्म हँस-हँसकर करता है।
पता नहीं किस जन्म में मनुष्य दुखों और परेशानियों के बीज बोता है और किस जन्म में आकर उस पेड़ के कड़वे फल काटकर खाता है। ईश्वर का न्याय तो सबके लिए एकसमान है। उसकी अदालत में किसी के साथ भी पक्षपात नहीं होता। और न ही वहाँ किसी प्रकार की कोई रिश्वत ही चलती है। अपनी उलझनों से मनुष्य को तभी मुक्ति मिल पाती है, जब कोई मनुष्य इन दुखों और परेशानियों की भट्टी से तपकर निकलता है।
मनुष्य को सदा अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए। उसे देश, धर्म, समाज और परिवार के विपरीत जाकर कोई भी कर्म नहीं करने चाहिए। उसे अपने धर्म यानी अपने कर्त्तव्यों का पालन ईमानदारी और सच्चाई से करना चाहिए। ताकि इस जीवन में और आने वाले जीवन में उसे कभी कड़वे फलों का स्वाद न चखना पड़े। और न ही उसे अपने जीवन में असफलता का कभी मुँह देखना पड़े। उसे अतीत के कटु अनुभवों को स्मरण करके व्यथित न होना पड़े।
यह सब तभी सम्भव हो सकता है, जब मनुष्य जागरूक बन जाए और अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने से बचे। उसके द्वारा बरती गई थोड़ी-सी सावधानी उसे इन सभी उलझनों और परेशानियों से निश्चित ही बच सकती है। सबसे बड़ा मन्त्र यही है कि मनुष्य को अपने कर्मों की शुचिता पर ध्यान देना चाहिए। जाने-अनजाने में भी अपने से कोई ऐसा कार्य न होने पाए, जो किसी का अहित कर दे।
अब यह मनुष्य विशेष पर निर्भर करता है कि उसे क्या रुचिकर है? वह उलझनों के उधेड़ बुन में फँसा रहना चाहता है या इनसे मुक्ति प्राप्त करके अपने जीवन में सुख-शान्ति की कामना करता है। उसे अपने रास्ते का चयन स्वयं ही करना है। कोई अन्य उसे सन्मार्ग सुझा तो सकता है, परन्तु जबर्दस्ती चला नहीं सकता। इसलिए मनुष्य को स्वयं ही सही मार्ग को चुनकर उस पर चलना है, ताकि उसके जीवन में उलझने कम से कम आ सकें।
चन्द्र प्रभा सूद
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