विद्या का क्रियान्वयन
मनीषी कहते हैं- 'ज्ञानं भार: क्रियां विना।' अर्थात् यदि ज्ञान का क्रियात्मक प्रयोग या एक्सपेरिमेंट न किया जाए, तो वह भार के समान होता है। विद्या को यदि मात्र रटा जाए, तो मनुष्य को कुछ भी समझ में नहीं आता। जब उसका प्रयोग करने का समय आता है, तो मनुष्य मूर्ख बनकर बगलें झाँकने लगता है। इसका यही कारण है कि उसने अपने ज्ञान का क्रियान्वयन कभी किया ही नहीं।
निम्न श्लोक में कवि ने इसी आशय को स्पष्ट करते हुए कहा है-
शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा
यस्तु क्रियावान् पुरुष: स विद्वान् ।सुचिन्तितं चौषधमातुराणां
न नाममात्रेण करोत्यरोगम्॥
अर्थात् शास्त्रों को पढ़कर भी वे लोग मूर्ख कहलाते हैं, जो उस ज्ञान को व्यवहारिक प्रयोग नहीं करते। वही व्यक्ति विद्वान होता है जो पढ़े हुए ज्ञान को कार्यान्वित करता है। एक बीमार-व्यक्ति को अच्छी से अच्छी दवाइयों का ज्ञान देने से या उसे दवाइयाँ दिखाने से उसका इलाज नहीं होता, अपितु दवाइयों का सेवन करने से ही रोगी स्वस्थ होता है ।
इस श्लोक में कवि बताना चाहता है कि अनेक डिग्रियाँ या सर्टिफिकेट प्राप्त करने के उपरान्त भी मनुष्य ज्ञानी नहीं कहलाता, वह अज्ञ ही रहता है। इसका कारण है कि उसने पढ़ी हुई विद्या को व्यवहारिक तौर पर कार्यान्वित नहीं किया। हमें अपने ज्ञान या विद्या का जीवन में व्यवहार करते रहना चाहिए। तभी विद्या हमारे व्यक्तित्व को निरन्तर निखारती रहती है।
श्लोक में कवि ने बहुत सटीक उदाहरण दिया है। केवल दवाइयों को दिखाने मात्र से या उनके बारे में बताने से रोगी का उपचार नहीं होता। जब उसे दवा खिलाई जाती है, तभी रोगी ठीक होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि डॉक्टर कितना भी पढ़ा-लिखा हो या अनुभवी क्यों न हो, वह तब तक योग्य नहीं कहा जाता, जब तक अपने रोगियों का उपचार करके उन्हें स्वस्थ नहीं कर देता।
विद्या ज्ञान को प्राप्त करके मनुष्य तभी योग्य कहलाता है, जब वह अपने ज्ञान का समय-समय पर क्रियान्वयन करता रहे। हम सब कहते रहते हैं कि सदा सत्य बोलना चाहिए, चोरी नहीं करनी चाहिए। परन्तु समय आने पर हम असत्य बोलते हैं अथवा किसी अमूल्य वस्तु को देखकर, रह नहीं पाते और उसे चुरा लेते हैं। उस समय सारा ज्ञान धरा का धरा रह जाता है। मनुष्य का ज्ञान वृथा हो जाता है।
यदि मनुष्य कितने भी संकट में हो, उसकी जान पर भी बन आए, तब भी मनुष्य सत्य बोलने नहीं छोड़ता, तो वास्तव में उसने ज्ञान अर्जित किया है। इसी प्रकार कितना ही लालच सामने आ जाए और मनुष्य को उस वस्तु की आवश्यकता भी हो, तो भी यदि मनुष्य चोरी नहीं करता, तो वास्तव में वह ज्ञानी है। इसी प्रकार विद्या का अभ्यास किया जाता है। जो खरा उतर जाए वही विद्वान कहा जाता है।
इसी प्रकार अन्य जीवन मूल्यों की जाँच भी की जानी चाहिए। जो वास्तव में ज्ञानी होते हैं, वे किसी भी कारण से जीवन की परीक्षा में असफल नहीं होते। वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सदा सफल होते हैं। उन्हें कोई लालच, कोई बुराई छू तक नहीं जाती क्योंकि जो भी विद्या उन्होंने ग्रहण की होती है, उसका उन्होंने पूर्णरूपेण अभ्यास और क्रियान्वयन किया होता हैं। तभी वे पूजनीय होते हैं।
पढ़े हुए लोग तो बहुत मिल जाएँगे, परन्तु योग्यता की कसौटी पर खरा उतरने वाले लोग कम ही मिलते हैं। वर्षों लग जाते हैं, विद्या को सिद्ध करने में। जैसे बच्चे विद्यालय में पढ़ते हैं और साथ ही उसका प्रेक्टिकल भी करते हैं, तभी उन्हें पता चलता है कि वे अपने पढ़े हुए पाठ को कितना समझ पाए हैं। उसी प्रकार मनुष्य जो भी ज्ञानार्जन करे, उसका साथ ही साथ क्रियान्वयन भी कर लेना चाहिए। तभी मनुष्य वास्तव में ज्ञानवान कहलाता है। ऐसे विद्वान मनुष्य का समाज में उच्च स्थान होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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