मृत्य के चिह्न
हर मनुष्य अपना भविष्य जानने के लिए बहुत उत्सुक रहता है। वह चाहता है कि कोई उसे बता दे कि आने वाले समय में उसका स्वास्थ्य कैसा रहेगा? उसके पास धन की कमी तो नहीं होगी? उसकी मृत्यु कब होगी? वृद्धावस्था में उसकी स्थिति कैसी रहेगी?
ये सभी प्रश्न मनुष्य के मन-मस्तिष्क पर हावी रहते हैं। जहाँ उसे अवसर मिलता है, इसके विषय में पूछने लगता है। परन्तु इन प्रश्नों के उत्तर उसे कोई नहीं दे सकता। इन सब प्रश्नों के उत्तर भविष्य के गर्भ में छिपे रहते हैं। केवल ईश्वर ही इन सबके विषय में जनता है, कोई मनुष्य उसे नहीं बता सकता।
ये प्रश्न उसे उद्वेलित करते रहते है। ईश्वर की उपासना भी उसे जीवन में करनी चाहिए, इस विषय पर वह मौन साध लेता है। तब उसे यह लगता है कि प्रभु के स्मरण का समय अभी नहीं आया है। अभी और दायित्व पूरे कर लें। ईश्वर का क्या है, उसे बुढ़ापे में जप लेंगे। वृद्धावस्था भी बीत जाती है और मृत्यु सिर पर आकर खड़ी हो जाती है। तब मनुष्य पश्चाताप करता है कि मैंने क्या कर डाला? उस समय कुछ नहीं हो सकता। यदि मनुष्य ईश्वर की उपासना निरन्तर करता रहे, तो उसे कभी घबराने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
'त्रिशिखब्रह्मनोपनिषद्' के मन्त्र 120 से 126 में बताया है कि मनुष्य के किन अंगों के कार्य न करने पर उसकी आयु कितनी शेष बच जाती है? उसके लिए उन्होंने कुछ चिह्न बताए हैं।
अंगुष्ठादिसवावयवस्फुरनदशनेरपि।
अरिष्टैरजीवितस्यापि जानियात्क्षयमात्मन:।
ज्ञात्वा यतेत कैवलयप्राप्तये योगवित्तय:।
अर्थात् अँगूठे आदि अवयवों में स्फुरण न हो, तो जीवन का अन्त समझना चाहिए। यह जानकर मनुष्य को मोक्ष के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
पादांगुष्ठे करंगुष्ठे स्फुरणं यस्य न श्रुति:।।
तस्य संवत्सरादूर्ध्वं जीवितव्यक्षयो भवेत्।
अर्थात् हाथों और पैरों केअंगूठों में स्फुरण न हो, तो उसके जीवन का अन्त एक वर्ष में मानना चाहिए।
मणिबन्धे तथा गुल्फे स्फुरणं यस्य नास्ति।
षष्णमासवधिरेतस्य जीवितस्य स्थितिर्भवेत्
अर्थात् कलाई और टखने का स्फुरण समाप्त हो जाने पर मनुष्य छह मास तक जीवित रहता है।
कर्णस्फुरणं यस्य तस्य त्रैमासिकी स्थिति:।।
अर्थात् कर्ण में स्फुरण न हो तो तीन मास पश्चात मृत्यु हो जाती है।
कुक्षि मेहनपार्श्वे च स्फुरणानुपलम्भने।
मासावधिजीवित्सातु दर्शनेतदर्धस्य।।
अर्थात् कुक्षि और उपस्थेन्द्रिय में स्फुरण न हो तो जीवन की अवधि एक मास की शेष बचती है।
आश्रिते जठरे द्वारे दिनानि दश जीवितम्।
ज्योति: खधोतवद्यस्य तदर्ध तस्य जीवितम्।
अर्थात् जठर द्वार पर स्फुरण न हो तो दस दिनों में मृत्यु हो जाती है। ज्योति जुगनू के समान हो जाए तो पाँच दिनों में मृत्यु हो जाती है।
जिह्वाप्रादर्शने त्रीणि दिनानि स्थितिरात्मन:।
जवालायादर्शनान्ते मृत्युद्विदिने भवति ध्रुवम्
अर्थात् जिह्वा के न दिखाई देने पर तीन दिन में मृत्यु हो जाती है। ज्वाला के न दिखाई देने पर निश्चित ही दो दिनों में मनुष्य की मृत्यु हो जाती है।
इस सम्पूर्ण समीक्षा का अर्थ यही है कि जब मनुष्य को ऐसे लक्षण प्रकट होने लगें, उस समय उसे लापरवाह नहीं होना चाहिए। उसे सच्चे मन से विचार करना चाहिए। उसे अपना मन भगवद भजन में लगाना चाहिए। अन्तिम समय में भी यदि वह संसार से विमुख होकर ईश्वर की ओर उन्मुख होता है, तो भी उसका कुछ हद तक कल्याण सम्भव है।
मृत्यु से तो कोई संसारी जीव बच नहीं सकता। उसे बस अपने कर्मों की शुचिता की ओर ध्यान देना चाहिए। अपना इहलोक और परलोक सुधारने के लिए मालिक का स्मरण अनवरत करते रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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