अधर्म का परित्याग
धर्म की अनुपालना और अधर्म का परित्याग किए बिना, किसी मनुष्य के लिए जीवन में सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं होती। धर्म किसी जाति या सम्प्नदाय के लिए नहीं होता, बल्कि इसके द्वार सभी मनुष्यों के लिए खुले रहते हैं। मन, वचन और कर्म यानी किसी भी प्रकार से मनुष्य को अधर्म के कार्य नहीं करने चाहिए। ऐसे कृत कार्य निश्चित ही दुखों का कारण होते हैं।
'मनुस्मृति:' में महाराज मनु ने अधर्म अथवा दुष्कर्म के दस लक्षण बताए गए हैं। जिनमें तीन मानसिक अधर्म, चार वाचिक दुष्कर्म और तीन कायिक दुष्कर्म कहे गए हैं।
मानसिक अधर्म के विषय में मनु महाराज कहते हैं-
परद्रव्येषु अभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम् । वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम् ।।अर्थात् दूसरे की धन-सम्पत्ति अथवा अन्य पदार्थों को अपने अधिकार में लेने का विचार या ध्यान करना, मन से अनिष्ट चिन्तन करना अर्थात् किसी दूसरे का बुरा करने के विषय में सोचना और तथ्य के विपरीत किसी मिथ्या विचार, संकल्प या सिद्धान्त को स्वीकार करना तीन मानसिक दुष्कर्म हैं।
मन से भी यदि किसी के लिए गलत सोचना भी अनिष्ट का कारण बन जाता है। मनुष्य के मन में यदि किसी का, किसी विधि अनिष्ट करने की भावना जन्म ले लेती है, तो वह कभी-न-कभी वह दुष्कर्म कर ही देता है। इस प्रकार वह अपने जीवन में काँटे बोने का कार्य कर लेता है। इसका दुष्परिणाम उसे अपने जीवन में भोगना ही पड़ता है। इससे बचकर निकल जाना उसके लिए सम्भव नहीं होता।
वचन या वाचिक अधर्म के विषय में महाराज मनु कहा है-
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः । असम्बद्ध प्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम् ।।
अर्थात् कठोर या कटु वचन बोलकर किसी को कष्ट पहुँचाना, झूठ बोलना, किसी प्रकार की चुगली करना तथा असम्बद्ध प्रलाप करना अथवा किसी पर दोषारोपण करना, चार प्रकार के वाचिक दुष्कर्म कहलाते हैं।
किसी को अनर्गल कहने से उसकी आत्मा को कष्ट होता है। इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि दूसरे के मन को पहुँचा हुआ कष्ट नष्ट कर देता है। यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि बिना प्राणों की धौंकनी जब चलती है, तब बड़ा और शक्तिशाली लोहा तक भस्म हो जाता है। शब्दों के बाण बहुत गहरा घाव करते हैं। झूठ बोलना और पर निन्दा करना भी मनुष्य को अपयश दिलाते हैं। उसे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य करवाते हैं।
कायिक अधर्म के विषय में मनु महाराज कहते हैं -
अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः। परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम् ।।
अर्थात् किसीअप्रदत्त वस्तु को ले लेना अथवा चोरी करके, छीना-झपटी करके, अपहरण करके अथवा डाका डालकर लेना, अवैधानिक अथवा शास्त्र के विपरीत हिंसा करना अथवा कानून को अपने हाथ में लेते हुए निर्दोषों की हत्या करना और दूसरे की स्त्री का सेवन करना या छेड़छाड़ करना, अपहरण करना, शारीरिक सम्बन्ध बनाना अथवा बलात्कार करना तीन प्रकार के शारीरिक दुष्कर्म कहे जाते हैं।
शारीरिक दुष्कर्म करने वाला कभी महान नहीं बन पाता। शक्ति का उपयोग भलाई के कार्यों में करना चाहिए, न कि दूसरों को सताने अथवा परेशान करने के लिए करना चाहिए। हत्या करना, छेड़छाड़ करना, अपहरण करना, बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने वाला अपने लिए गड्डा खोदने का कार्य करता है। समाज विरोधी ये कार्य मनुष्य को न्याय व समाज का शत्रु बन देता है। इन दोषों का कोई प्रायश्चित नहीं होता, केवल सजा होती है।
'न्याय-दर्शन' के भाष्यकार वात्सायन मुनि इन दोषों की व्याख्या करते हुए कहते हैं - दोषै: प्रयुक्त: शरीरेण प्रवर्तमानो हिंसास्तेयप्रतिषिद्धमैथुनानि आचरति, वाचाऽनृतपरुषसूचनाऽसम्बद्धानि,
मनसा परद्रोहं परद्रव्याभिप्सां नास्तिक्यं चेति।
सेयं पापात्मिका प्रवृत्तिरधर्माय।
अर्थात् व्यक्ति का राग-द्वेष से युक्त होकर शरीर के माध्यम से हिंसा करना, चोरी करना, व्यभिचार करना, वाणी के माध्यम से झूठ बोलना, कठोर बोलना, निन्दा करना और असम्बद्ध या व्यर्थ प्रलाप करना तथा मन के माध्यम से दूसरे के साथ द्रोह करना, स्पृहा करना अथवा दूसरे की सम्पत्ति को हथियाने की इच्छा करना और नास्तिकता का भाव होना इत्यादि प्रवृत्तियाँ पाप स्वरुप अथवा अधर्म का कारक होती हैं ।
जितना-जितना मनुष्य अधर्माचरण करता है, उतना ही उसे दुःख भोगना पड़ता है। यदि वह दु:खों से बचना चाहता है और सुखों को भोगना चाहता है, तो उसके लिए आवश्यक है कि वे अपने कर्मों की शुचिता पर ध्यान दे। मन, वचन और कर्म से मनुष्य को अधर्म के कार्य करने से बचना चाहिए। तभी उसे सद्गति प्राप्त होती है। विपरीत आचरण मनुष्य को जन्म-जन्मान्तरों तक भटकता रहता है।
अब यह निर्णय व्यक्ति विशेष को स्वयं ही करना है कि वह अपने जीवन में सुख एवं समृद्धि की कामना करता है अथवा अधर्म के मार्ग पर चलकर अपने जीवन को नरक के समान दुखदायी बनाना चाहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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