स्वावलम्बन
स्वावलम्बी होना मनुष्य का बहुत बड़ा गुण है। जो मनुष्य स्वयं पर विश्वास नहीं कर सकता, वह जीवन में सफल नहीं हो पाता। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मनुष्य सारे कार्य स्वयं करने की ठान ले। जो कार्य उसे करने चाहिए, उनके लिए किसी ओर का मुँह देखने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। यह सत्य है कि जो कार्य मनुष्य स्वयं करता है, उसमें उसे सन्तुष्टि प्राप्त होती है। वह कार्य उसकी इच्छा के अनुरूप भी हो जाता है।
मनुष्य को प्रयास यही करना चाहिए कि वह अपने कार्यों के सम्पादन के लिए दूसरों का मोहताज न बने। जो कार्य वह किसी दूसरे पर छोड़ देता है, वह उसकी इच्छा के अनुरूप नहीं हो पाता। कई बार उसमें विलम्ब भी हो जाता है, तो उसे कष्ट होता है। बाद में उसे पश्चाताप होता है कि काश उसने वह कार्य स्वयं कर लिया होता। इससे न कार्य में विलम्ब होता और न मन को कष्ट होता।
निम्न श्लोक में सुभाषितकार हमें समझा रहे हैं-
यद्यत् परवशं कर्मं
तत् तद् यत्नेन वर्जयेत् ।
यद्यदात्मवशं तु स्यात्
तत् तत् सेवेत यत्नत:॥
अर्थात् जो जो कार्य दूसरों के भरोसे करना पड़े, उसे यत्नपूर्वक छोड़ देना चाहिए। जो कार्य मनुष्य स्वयं कर सकता है, उसे शीघ्र कर लेना चाहिए।
सुभाषितकार हमें स्वावलम्बी बनने का मन्त्र दे रहा है। हमें अपनी जिम्मेदारी के साथ काम करते रहना चाहिए ताकि हम स्वावलम्बी बने। परावलम्बी बनने से यानी दूसरों के सहारे रहने से कार्य अच्छी तरह से नहीं हो पाता है। इसलिए हमें उस कार्य का आनन्द नहीं प्राप्त होता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि हमें किसी की सहायता लिए बिना ही सारे काम स्वयं ही कर लेने चाहिए।
जीवन में मनुष्य को बहुत से लोगों से वास्ता पड़ता है। कदम-कदम पर उसे उनकी सेवाएँ भी लेनी पड़ती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जो कार्य मनुष्य के अपने वश में हैं, उनके लिए उसे किसी दूसरे के सहारे की उसे आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। यदि मनुष्य हर कार्य को करने के लिए परावलम्बी हो जाएगा, तब उसे कदम-कदम पर परेशानियों का सामना करना पड़ जाता है।
स्वावलम्बी व्यक्ति में चुस्ती और स्फूर्ति बनी रहती है। उसका प्रयास यही रहता है कि वह अपने कार्य प्रतिदिन निपटा ले। उसकी सफलता का मूल मन्त्र यही है कि वह अपना कार्य कल पर नहीं टालता। वह जानता है कि जब कोई कार्य लटक जाता है, तो समय आने पर वह बहुत कष्ट देता है। इसलिए वह सावधान रहता है। अतः उसे कहीं भी नजरें चुराने की जरूरत नहीं पड़ती।
इसके विपरीत परावलम्बी मनुष्य सदा आलस्य करता रहता है। वह दूसरों के भरोसे बैठा रहता है। वह चाहता है कि कोई आए और उसके कार्य कर दे। परन्तु हर समय ऐसा सम्भव नहीं हो पाता। इसलिए जल्दबाजी में वह उल्टा-सीधा कार्य करता है। इससे उसके कार्य बिगड़ते रहते हैं और उसका अमूल्य समय भी बर्बाद होता है। इस प्रकार उस मनुष्य के कार्य की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
परावलम्बी मनुष्य की आज के कार्य को कल पर टालने की प्रवृत्ति, उसके जी का जंजाल बन जाती है। तब घर में, ऑफिस में, दोस्तों में हर स्थान पर उसे अपमानित होना पड़ता है। ऐसा व्यक्ति समय का मूल्य नहीं समझ पाता। इसलिए सर्वत्र आसफल रहता है। तब वह अपने भाग्य को कोसता है, ईश्वर को दोष देता है। किसी सफल व्यक्ति को देखता है, तो उससे ईर्ष्या करता है।
मनुष्य को प्रयासपूर्वक स्वावलम्बी बनना चाहिए। इसी से उसे सर्वत्र सम्मान मिलता है। परावलम्बी होना एक बहुत बड़ा दुर्गुण है। इससे मनुष्य को सदा ही बचना चाहिए। 'अपने हाथ जगन्नाथ' उक्ति इन्हीं स्वावलम्बी व्यक्तियों के लिए कही जाती है, जो दूसरों से अधिक स्वयं पर विश्वास करते हैं। इन लोगों के उदाहरण ही समाज में दिए जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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