गुणवान व्यक्ति
गुणवान व्यक्ति संसार का आभूषण होता है। वह सर्वदा पूज्य होता है व समाज की पूँजी होता है। चाहे सौ मूर्खों की भीड़ क्यों न एकत्र हो जाए, वह एक गुणी मनुष्य के समक्ष असहाय हो जाती है। उसका कद बहुत छोटा हो जाता है। बहुत लोगों को पीछे छोड़कर वह गुणी व्यक्ति सबके सिरों पर विराजमान हो जाता है। उसकी विद्वत्ता के सामने लोगों को नतमस्तक होना ही पड़ता है।
योग्य या गुणवान व्यक्ति का सान्निध्य प्राप्त करके कोई भी मनुष्य कुछ ही समय में अपने कार्यों में कुशल या दक्ष हो जाता है। गुणी के संसर्ग से मूर्ख मनुष्य की बुद्धि की जड़ता दूर होने लगती है। वह भी शीघ्र विद्वान बनने की प्रक्रिया में आने लगता है। कालिदास जैसा महामूर्ख विद्वनों की संगति में आकर विद्वान बन गया था। उसकी श्रेष्ठ कृतियों के कारण उसका नाम पूरे विश्व में श्रद्धा से लिया जाता है।
किसी गुणवान व्यक्ति की योग्यता के विषय में लेश मात्र भी सन्देह नहीं रह जाता। उसकी पहचान उसके गुणों के आधार पर होती है, उसकी शक्ल-सूरत के आधार पर कदापि नहीं। वह अपने जीवन में किस पद पर कार्यरत है, इस बात की कोई अहमियत नहीं होती।
किसी कवि ने इस विषय में निम्न श्लोक में कहा है-
गुणैरुत्तमतांयाति
नोच्चैरासनसंस्थित:।
प्रासादशिखरस्थोपि
काक: किं गरुडायते॥
अर्थात् एक व्यक्ति की पहचान एवं महत्त्व उसके सद्गुणों से होती है, न कि वह किस कुर्सी (position or post) पर विराजमान है। उदाहरणार्थ यदि कौआ मन्दिर के शिखर पर बैठा हो, तो उसमें पक्षीराज गरुड़ जैसी गुणवत्ता नहीं आ जाती और न ही वह कभी गरुड़ बन सकता है। वह सिर्फ काँव-काँव करने वाला कौआ ही बना रहता है।
कहने का तात्पर्य है कि मन्दिर जैसे पवित्र स्थान पर बैठा हुआ कौआ गरुड़ की तरह महान नहीं बन सकता। गरुड़ के गुणों को ग्रहण नहीं कर पाता। वह केवल कर्कश ध्वनि में काँव-काँव ही कर सकता है बस। जिससे सब लोग दुखी हो जाते हैं और फिर कंकर मारकर उसे भगा देते हैं।
जब कोई मनुष्य गलत आदतों का शिकार हो जाता है, तब उन दुर्गुणों का त्याग करना सरल कार्य नहीं होता। किसी कवि ने इसी भाव को निम्न श्लोक में बहुत खूबसूरती से प्रकट किया है-
य: स्वभावो हि यस्यास्ति
स नित्यं दुरतिक्रम:।
श्वा यदि क्रियते राजा
तत् किं नाश्नात्युपानहम्॥
अर्थात् सुभाषितकार बताना चाहते हैं कि हमारे स्वभाव में जो गलत आदतें पड़ जाती हैं, उन्हें छोड़ना सरल कार्य नहीं होता। यहाँ उदाहरण देते हुए कहा है कि यदि किसी कुत्ते को सिंहासन पर विराजमान कर दिया जाए, तो भी वह अपनी आदतें (जूते चाटना, टाँग ऊँची करना इत्यादि) नहीं छोड़ पाता।
कवि के अनुसार कुमार्गगामी व्यक्ति कितना भी स्वयं को दूध का धुला हुआ प्रमाणित करने का प्रयास करे, उसका प्रभाव दूसरों पर अधिक समय तक नहीं रह पाता। अपनी स्वभावगत आदतों को वह अधिक समय तक छोड़ नहीं सकता। फिर उसकी वास्तविकता स्वत: ही सबके सामने आ जाती है। उसकी जग हँसाई जो होती है, सो अलग। इसलिए दुर्जन कुछ ही काल तक उच्च स्थान पर रह पाता है। उसका अधोपतन निश्चित होता है। हींग को कितना भी छुपाकर रख लो उसकी दुर्गन्ध फैलती ही है। उसी प्रकार दुर्जन की अपकीर्ति उसके आगे-आगे चलती है।
इसके विपरीत गुणवान व्यक्ति चाहे स्वयं को सौ पर्दों के पीछे छिपा ले, दुनिया की नजरों से बचता फिरे, फिर भी उसकी कीर्ति फैल ही जाती है। फूल चाहे जंगल में फलें अथवा शहर में, उनकी सुबास सर्वत्र फैलती है। उसे कोई रोक नहीं सकता। उसी प्रकार गुणवान की योग्यता और विद्वत्ता सबके सामने आ ही जाती है। उसे हीरे की तरह अपना मूल्य बताने की आवश्यकता नहीं पड़ती। गुणों के परखी लोग उसे अन्ततः ढूंढ ही लेते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
चन्द्र प्रभा सूद
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