पिता की सेवा
पिता घर की रीढ़ यानी आधार होता है। उसका कार्य घर-परिवार की सुख-समृद्धि के लिए साधन जुटाना होता है। वह होता है तो बच्चों को मोरल सपोर्ट मिलती है। उसके मजबूत कन्धों पर चढ़कर बच्चे बड़े होते हैं। उसके न रहने पर घर पर मानो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है। उसकी कमी को माँ पूरा करने का प्रयास करती है, पर उसके न होने की कसक सारी आयु बनी रहती है।
पिता के होने से बच्चे को मान होता है। उसका सिर गर्व से तना रहता है। उसे लगता है कि यदि वह किसी भी परेशानी में घिर जाएगा, तो अवश्य ही पिता उसकी रक्षा करेगा। अपने पिता के सहारे वह कुछ भी कर गुजरता है। पिता भी आशा करता है कि बड़े होकर उसकी सन्तान योग्य बनकर, उसका नाम रौशन करेगी। इसी एक उम्मीद में वह अपना सारा जीवन गुजार देता है।
पिता को इसलिए शास्त्र देवता मानते हैं क्योंकि वह सन्तान को इस दुनिया में लाता है। उसके इस ऋण से उऋण होना असम्भव है। ऐसे पिता की सेवा मनुष्य सारी आयु करता रहै, तो भी कम है। अपने पिता को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देना चाहिए। समझदार बच्चे अपने पिता की सेवा अपना दायित्व समझकर करते हैं, वे उन्हें भार नहीं मानते।
'शुक्रनीति:' हमें पिता की सेवा करने के लिए समझाती है-
पितृसेवापरतिष्ठेत्कामवाङ्मानसै सदा।
तत्कर्म नित्यं कुर्यात् येन तुष्टो भवेत्पिता।।
तन्न कुर्याद्येन पिता मनागपि विषीदति।
अर्थात् पुत्र को शरीर, वाणी और मन से सदा पिता की सेवा में तत्पर रहना चाहिए। जिस कार्य से पिता प्रसन्न हो, उसे नित्य वही कार्य करना चाहिए। वह कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे पिता के मन को कष्ट पहुँचे।
इस श्लोक के कहने का तात्पर्य यही है कि पिता की सेवा तन, मन और धन से करनी चाहिए। उसकी सेवा करने का कभी दिखावा नहीं करना चाहिए। पिता को सदा प्रसन्न रखना चाहिए, जैसा वह बाल्यकाल में अपने बच्चे को रखता है। सदा यही प्रयास करना चाहिए कि अपने पिता की इच्छा के अनुरूप ही कार्य किया जाए। ताकि उन्हें सन्तुष्टि मिल सके। पिता यदि प्रसन्न रहता है, तो घर का माहौल अच्छा रहता है। घर के लोगों को मिलजुलकर रहना आ जाता है।
पिता को यदि कष्ट या परेशानी होती है, तो उस घर में अशान्ति का साम्राज्य हो जाता है। घर में एक अजीब तरह की शान्ति होती है। यदि पिता की सेवा न कि जाए तो शरीर अशक्त होंने के कारण वह चिल्लाने लगते हैं, गाली-गलौच भी कर सकते हैं। इससे पड़ोसियों को भी पता चल जाता है कि पिता की सेवा नहीं की जा रही। ऐसे में घर में एक तनाव-सा रहता है। फिर वही घर मनुष्य को काटने को दौड़ता है। घर का माहौल खराब हो जाता है। मन घर से भाग जाने का करता है। आने वाले मेहमान भी उस घर से परेशान होकर वापिस जाते हैं।
निम्न श्लोक में पिता की सेवा करने वाले व्यक्ति को महान बताते हुए यह कहा है कि-
स गृही स मुनि: स च योगी च धार्मिक:।
पितृ सुश्रुषको नित्यं जन्तु: साधारणश्च य:।।
अर्थात् जो साधारण मनुष्य नित्य अपने पिता की सेवा-सश्रुषा करता है, वही उत्तम गृहस्थ है, मुनि या साधु है, योगी है और धार्मिक है।
पिता की सेवा सुश्रुषा करने वाले मनुष्य को कवि उत्तम गृहस्थ बता रहा है। उनके अनुसार ऐसा व्यक्ति ही सबसे बड़ा धर्मिक है। उसे महान योगी तक कह दिया है। इसका सीधा-सा यही अर्थ है कि पिता की सेवा करने वाला व्यक्ति साधारण नहीं विशेष बन जाता है। उसे तपस्वी की संज्ञा से अभिहित किया गया है। ऐसे संस्कारी व्यक्ति को आस-पड़ोस और बन्धु-बान्धव सभी प्रशंसात्मक निगाहों से देखते हैं। उसका गुणगान करते हैं।
पद्मपुराण में इससे भी बढ़कर बताया है कि पिता के प्रसन्न होने पर सभी देवता प्रसन्न होते हैं-
पिता स्वर्गः पिता धर्मः पिता हि परमं तपः।पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वाः प्रीणन्ति देवताः।।
अर्थात् पिता स्वर्ग है, पिता धर्म है और पिता ही सर्वश्रेष्ठ तपस्या है। जिस व्यक्ति के पिता के प्रसन्न हो जाते हैं, उस पर सभी देवता प्रसन्न हो जाते हैं।
पद्मपुराण का यह श्लोक पिता को स्वर्ग, धर्म और महान तपस्या बताता है, जिसकी प्रसन्नता में सभी देवताओं का वास होता है। इसका सार यही हुआ कि पिता का आशीर्वाद यदि मनुष्य को मिल गया, तो मानो सभी देवताओं का आशीष उसे मिल जाता है। निस्सन्देह ऐसा व्यक्ति ईश्वर का प्रिय बन जाता है।
पिता के चरणों मे स्वर्ग होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो पिता के सुखी रहने पर घर में स्वर्ग के समान सुख आ जाते हैं। जिसकी ठण्डी बयार दूर-दूर तक बहने लगती है। उस घर में आने वाले अतिथि भी सन्तुष्ट और प्रसन्न होकर जाते हैं। वे ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा करते नहीं अघाते। लोग श्रवण पुत्र कहकर उसको सम्मनित करते हैं। इस तरह उस व्यक्ति का यश दूर दूर तक फैल जाता है।
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