धन कमाने के उपाय
हमारे जीवन में धन की बहुत उपयोगिता होती है। मनुष्य के पास धन के न होने पर अथवा आवश्यकता से बहुत कम होने पर अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उस समय वह मनुष्य नारकीय जीवन व्यतीत करता है। उस धन को कमाने के लिए वह दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह खटता रहता है। उसका सुख-चैन समाप्त हो जाता है। हर समय वह खर्चों से डरता रहता है।
'महाभारत' में महर्षि वेदव्यास बताते हैं कि किन-किन तरीकों से मनुष्य को धन नहीं कमाना चाहिए-
परस्य पीडया लब्धं धर्मस्योल्लंघनेन च। आत्मावमानसंप्राप्तं न धनं तत् सुखाय वै॥
अर्थात् आत्म-ग्लानि या अपनी आत्मा को मारकर, अधर्म से और दूसरों को सताकर कमाया हुआ धन कभी भी मनुष्य को खुशी नहीं देता। अतः यदि जीवन में खुशियाँ चाहिए, तो इन तीनों तरीकों से कभी भी धन अर्जित नहीं करना चाहिए।
इस श्लोक में महर्षि समझाते हैं कि अपनी आत्मा को मारकर कमाने का अर्थ है, नाजायज तरीके से या कुमार्ग से धन कमाना। इन तरीकों से कमाया हुआ धन कभी सुख और शान्ति का कारक नहीं बनता। मनुष्य हर समय व्यग्र रहता है। उसे हर समय न्याय-व्यवस्था का भय सताता रहता है। इसलिए वह सामान्य इन्सान की तरह व्यवहार नहीं कर पाता। उसकी रातों की नींद उड़ जाती है।
अधर्म से धन को कमाना भी कोई उचित मार्ग नहीं कहलाता। जानते-बुझते हुए जो व्यक्ति धर्म और समाज के नियमों के विरुद्ध जाकर धन को कमाता है, वह समाज से ही बहिष्कृत कर दिया जाता है। यानी उसकी निन्दा सभी लोग करते हैं। कितने भी धन का संग्रह वह कर ले, पर समाज में उसे वह स्थान नहीं मिलता, जो उसे मिलना चाहिए। सब कुछ होते हुए भी वह पिछड़ जाता है।
दूसरे लोगों को सताकर जो धन का अर्जन करता है, वह सदा निन्दनीय होता है। असहायों ही हाय उसे जीने नहीं देती। हर समय वह बेचैन रहता है। कितने भी लट्ठमार वह अपने पास रख ले, पर उसे यही डर रहता है कि कहीं उसका धन कोई हर न ले। वह मासूम लोगों को अपना शिकार बनाकर अपने जाल में फँसा लेता है। लोग अपनी विवशता के कारण उससे धन उधार लेते हैं, पर उसके मकड़जाल से निकलने में सफल नहीं हो पाते।
धन को निम्न उपायों से न कमाकर सात्विक तरीके से कमाना चाहिए। मेहनत, ईमानदारी और सत्यवादिता से कमाए गए धन में बहुत बरकत होती है। ऐसा मनुष्य कभी परेशान नहीं रहता। उसे रात को चैन की नींद आती है। उसके बच्चे आज्ञाकारी एवं संस्कारी बनते हैं। उसके यहाँ सुख और समृद्धि का साम्राज्य रहता है। उसे कभी अपनी गर्दन झुकने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
'चाणक्यनीति:' में आचार्य चाणक्य कठिनता से कमाए गए धन की रक्षा करने के विषय में बताते हैं-
उपार्जितानां वित्तानांत्याग एव हि रक्षणम्।
तडागोदरसंस्थाना परीवाह इवाम्भसाम्।
अर्थात् सुभाषितकार ने हमें धन की रक्षा करने के लिए एक शाश्वत मार्ग दिखाया है। जिस तरह से तालाब में से निरन्तर पानी बाहर निकलते रहने से वह सुरक्षित रहता है अर्थात् उसके पानी का उपयोग होता रहता है। जो लोग उस पानी को काम में लेते हैं, वे सभी उस तालाब और पानी की सुरक्षा के लिए तत्पर रहते हैं। ठीक उसी तरह से कमाए हुए धन का त्याग करने या दान देते रहने से धन की रक्षा स्वतः होती है।
इस श्लोक के माध्यम से आचार्य चाणक्य कहते हैं कि धन को मनुष्य कठोर परिश्रम करके कमाता है। उसे सुरक्षित रखने के लिए समय समय पर उसका दान करते रहना चाहिए। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने तालाब का उदाहरण दिया है। उसके जल का उपयोग करने वाले लोग स्वयं ही उसकी सुरक्षा की भी चिन्ता करते हैं।
कहने का तात्पर्य यही है कि धन की सुरक्षा दान देने से होती है। अपनी कमाई का कुछ अंश दान देने से वह धन घटता नहीं है। जिस प्रकार चिड़िया नदी से चोंच भरकर पानी ले जाती है। नदी के उस जल को कोई अन्तर नहीं पड़ता। वह उतना ही रहता है तथा पहले की तरह की प्रवाहित होता रहता है।
धन को कमाने और उसे सुरक्षित रखने के उपायों को भली भाँति समझने की आवश्यकता है। जो देश, धर्म और समाज के बनाए नियमों के अनुसार चलता है, उसे कभी घाटा नहीं होता। वह सदा प्रफुल्लित रहता है। उसका यश स्वयं ही चारों ओर प्रसारित होता है। उसे किसी को बताने की आवश्यकता नहीं होती। उसका व्यापार उसकी सच्चाई और ईमानदारी के कारण स्वयं ही फलता-फूलता है।
ऐसे व्यक्ति के पास बैठने वाले को सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। इसके विपरीत दूसरे लोगों के पास बैठने पर मनुष्य को नकारात्मक ऊर्जा का अनुभव होता है। इसी प्रकार अपने ऐसे कमाए धन का दान करने से उसे आत्मतोष होता है। उसके धन का सदा सदुपयोग होता है। अधर्म से कमाने वाले व्यक्ति कितना भी दान कर लें, उसका पुण्य उन्हें नहीं मिल पाता।
चन्द्र प्रभा सूद
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