अन्न का प्रभाव
अन्न का मनुष्य के मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। अन्न और मन का गहरा सम्बन्ध है। मनीषी कहते हैं-
जैसा खाओ अन्न वैसा बनता मन।
मन के संस्कार खाए गए अन्न के अनुसार ही बनते हैं। शुद्ध या सात्विक कमाई से खरीदकर खाए गए अन्न से मनुष्य का मन सात्विक बनता है। उसमें दया, ममता, करुणा, परोपकार आदि मानवीय गुण निवास करते हैं। उसके बच्चे आज्ञाकारी तथा सुसंस्कृत बनते हैं।
इसके विपरीत जो धन चोरी, डकैती, लूटमार, भ्रष्टाचार, किसी का गला काटकर कमाया जाता है, उससे खरीदे गए अन्न से मन वैसा ही बन जाता है। उसमें क्रूरता, हिंसा, घृणा आदि के भाव रहते हैं। ऐसा मनुष्य किसी के प्रति सहानुभूति प्रकट नहीं कर सकता। ऐसे लोगों के बच्चे अहंकारी, जिद्दी, किसी का कहना न मानने वाले होते हैं। उन पर किसी को मान नहीं होता। हर कोई उन्हें तिरस्कृत कर देता है।
निम्न श्लोक में कवि ने मनुष्य पर भोजन के प्रभाव को बताते हुए बहुत सुन्दर शब्दों में कहा है-
दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।
यादृशं भक्षयेदन्नं जायते तादृशी प्रजा॥
अर्थात् दीपक अँधेरे रूपी भोज्य या खुराक को खाकर काजल पैदा करता है। ठीक उसी तरह जिस प्रकार का भोजन हम खाते हैं, उसका प्रभाव हमारी सन्तति पर पड़ता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि यदि हम सात्विक भोजन खाते हैं, तो हमारी सन्तान में वे गुण प्रमुखता से दिखाई देंगे। यदि हम तामसिक भोजन का सेवन करते हैं, तो हमारी सन्तान तथावत होगी। उसमें वे अवगुण स्पष्ट रूप से दिखाई देंगे। कोई भी मनुष्य यह नहीं चाहता कि उसकी सन्तान उद्दण्ड बने, सबकी अवज्ञा करे, लोग उसे हिकारत की नजर से देखें।
इस श्लोक में बताया गया है कि 'अँधेरे' और 'काजल' दोनों की प्रकृति समान है। यानी दोनों की प्रकृति एक-सी होती है। अँधेरा कालिमा का प्रतीक है, इससे बहुत से लोगों को डर लगता है। दूसरी ओर काजल काला होता है। जरा-सा भी कपड़ों या शरीर पर लग जाए, तो वे खराब हो जाते हैं। फिर उन्हें साबुन और पानी का प्रयोग करके साफ किया जाता है, पुनः पहले की तरह बनाने का प्रयास किया जाता है।
कालिमा रूपी अपराधों को करते हुए भी लोग अपनी सफेदपोशी को बचाए रखने के लिए प्रयासरत रहते हैं। वे चाहते हैं कि किसी भी स्थिति में समाज को उनके काले कारनामों की न भनक लगे और न ही उनका तिरस्कृत हो। जब ऐसे अपराधों को करके धन कमाया जाएगा, तो उसका दुष्प्रभाव उनके परिवार पर पड़ेगा ही। और उस कमाई का अन्न भी इसी प्रकार परिवार पर अपना दुष्प्रभाव छोड़ेगा ही।
हमारे मनीषी अन्न को ब्रह्म मानते हैं। इसका अर्थ है कि ईश्वर का ईर्ष्या रहित होकर सरल हृदय से श्रद्धापूर्वक स्मरण करना चाहिए, तभी मनुष्य उसका प्रिय बन सकता है। उसी प्रकार अन्न को भी शुद्ध कमाई से खरीदना चाहिए। उसमें पवित्रता का होना आवश्यक है। तभी मनुष्य अन्न का सम्मान कर सकता है। शुद्ध तथा सात्विक कमाई से खरीदकर खाए गए अन्न का मनुष्य के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ता है।
मनुष्य चाहे माने या न माने, पर अन्न को खाकर वह पुष्ट होता है और उसमें रोगों का प्रतिरोध करने की क्षमता बढ़ती है। जो अशुद्ध कमाई का अन्न खाते हैं, वे अपेक्षाकृत अधिक रोगी होते हैं। उनका धन डॉक्टरों के पास अधिक जाता है। इसके विपरीत शुद्ध कमाई का अन्न खाने वाले प्रायः स्वस्थ रहते हैं यानी वे कम बीमार पड़ते हैं, वे डॉक्टरों के पास कम चक्कर लगाते हैं।
इस कथन का अनुभव अपने आस-पास रहने वाले लोगों के साथ व्यवहार में रहकर पता लगाया जा सकता है। इस सारे कथन का सारांश यही है कि मनुष्य जितना शुभकर्मों में लगा रहता है, वह ईश्वर से डरता है। तभी वह अपनी कमाई पर भी ध्यान देता है। अशुभकर्मों को करने वाले किसी से नहीं डरते। इसीलिए उनकी कमाई भी दोषपूर्ण होती है। तभी कहा जाता है-'जैसा खाओ अन्न वैसा होगा मन।'
चन्द्र प्रभा सूद
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें