सुख के हजार कारण
प्रसन्न रहना चाहे तो मनुष्य किसी भी तरह खुश होने का कारण खोज लेता है। वह दिन-प्रतिदिन की छोटी-छोटी घटनाओं से ही स्वयं को खुश रख सकता है। प्रातः दिन आरम्भ होता है और उसका अन्त रात्रि से होता है। इस बीच वह अनेकानेक कार्य कलाप करता है। उन्हीं कार्यों को करते हुए आनन्द के पलों को मनुष्यअपनी मुट्ठी में समेट सकता है। उसे कहीं बाहर जाकर उन्हें ढूंढने के आवश्यकता नहीं होती।
इसके विपरीत जिस व्यक्ति ने दुख या निराशा को अपना साथी बना लिया हो, उसे वैसे बहाने सरलता से मिल जाते हैं। उसे उनको तलाशने की आवश्यकता नहीं होती। वह सवेरे से शाम तक बिसूरता ही रहता है। इसलिए उसके कार्यों में गलतियाँ भी हो जाती हैं, जिसके लिए उसे पश्चाताप करना पड़ता है। ऐसे मनुष्य को उसके जैसे सदा दुखी रहने वाले मित्र आसानी से मिल जाते हैं।
किसी कवि ने प्रसन्नता और दुख को खोजने वाले लोगों के विषय में हमें बताते हुए कहा है-
हर्षस्थान सहस्राणि भयस्थान शतानि च।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्।।
अर्थात् मनुष्य के पास प्रसन्न होने के लिए हजारों अवसर आते हैं और दुःखी होने या डरने के लिए सैकड़ों। प्रतिदिन मूर्खों पर इनका प्रभाव पड़ता है, परन्तु ज्ञानी व्यक्ति इन सबसे व्यथित नहीं होता।
एक नादान मनुष्य को यदि खुश होने के सौ कारण मिलते हैं, तो वह दु:खी होने के लिए हजारों कारण ढूंढ लेता है। इसलिए उसे खुश कम मिलती है और वह दुखी अधिक रहता है। इसके विपरीत ज्ञानी या समझदार व्यक्ति अपने मन का सन्तुलन बनाकर रखता है। वह छोटे-छोटे कारणों की वजह से अपना दिन खराब नहीं करता। वह हर हाल में, हर समय प्रसन्न रहने का प्रयास करता है।
प्रसन्न रहना अथवा बिसूरते रहना दोनों ही मन की ही अवस्थाएँ है। यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि उसकी मन की अवस्था कैसी है? एक व्यक्ति के पास ईश्वर की दया से दुनिया के सारे ऐशोआराम हैं, धन-दौलत है, फिर भी वह हर समय किसी न किसी कारण से रोनी सूरत बनाए रहता है। किसी ने कभी उसे हँसते हुए नहीं देखा। ऐसे अकृतज्ञ व्यक्ति को क्या कहा जा सकता है?
दूसरी ओर जीवन में यदि कमियाँ हैं भी तो उन्हें सहन करता हुआ मनुष्य सदा प्रसन्न रहता है। जितना उसके पास है, उसमें सन्तुष्ट रहता है। सारा समय ईश्वर का धन्यवाद करता है कि उसने उसे बहुत दिया है, उसका जीवन निर्वाह अच्छे से हो रहा है। किसी के सामने उसे हाथ नहीं फैलाना पड़ता। वह हर किसी से प्रसन्नतापूर्वक मिलता है। लोग भी ऐसे मनुष्य को चाहते हैं, रोने वाले को नहीं।
मनुष्य के इस जीवन में बहुत से चाहे-अनचाहे पल आते ही रहते हैं। कभी घर-परिवार के झमेले, कभी नौकरी या व्यवसाय की परेशानियाँ, तो फिर कभी बन्धु-बान्धवों से तकरार ये सब कारण उसे व्यथित करने के लिए बहुत होते हैं। उसके जीवन में उतार-चढ़ाव चक्र के अरों की भाँति आते रहते हैं। इन सबके बीच रहते हुए अपने मन को व्यवस्थित करना ही कला कहलाती है।
ज्ञानी व्यक्ति वही है जो सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि द्वन्द्वों का सामना करते हुए स्वयं को संयमित रखे। ये सब उसके जीवन पर निश्चित ही प्रभाव डालते हैं, पर उनसे दो-चार होते हुए भी वह प्रसन्नता के पलों को गँवाता नहीं है। उन्हें थामने का प्रयास करता है। अज्ञ लोगों की भाँति समझदार मनुष्य अपना सन्तुलन खोकर हाय-तौबा नहीं मचाता। वह जानता है कि ये सब तो जीवन का हिस्सा हैं, इनसे घबराकर अपनी खुशियों को बर्बाद नहीं करना चाहिए।
खुशियाँ मनुष्य को अपने भीतर से ही मिलती हैं। ये बाजार में बिकने वाली कोई वस्तु नहीं हैं कि जिन्हें खरीदकर लाया जा सके और घर-परिवार के लोगों में बाँट दिया जाए। प्रसन्न रहना एक कला ही कही जा सकती है। मनुष्य अपने मन को थोड़ा समझा ले, तो प्रसन्नता उसे सहज में ही उपलब्ध हो सकती है। जहाँ तक हो सके उसे अपने हाथ से गँवाना नहीं है, बल्कि हर हाल में उसे अपने पास सम्हालकर रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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