लोभ अपराधों का मूल
लोभ या लालच सारे फसादों की जड़ है या कारण है। यह लालच मनुष्य को चैन से नहीं बैठने देता, उसे बस नाच नचाता रहता है। और और पाने की उसकी कामना उसे सदा आकुल बनाए रखती है। अपनी इन कामनाओं की तृप्ति के लिए मनुष्य कोल्हू का बैल बन जाता है। दिन-रात उन्हें पाने के लिए वह अनथक प्रयास करता रहता है। फिर भी उसकी यह लोभ की वृत्ति समाप्त नहीं होती, बल्कि निरन्तर बढ़ती ही चली जाती है।
किसी कवि ने लोभ के विषय में कहा है-
लोभमूलानि पापानि संकटानि तथैव च।
लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति॥
अर्थात् लोभ सभी पापों और संकटों का मूल है। लोभ से वैर बढ़ते हैं। लोभ की अधिकता नष्ट कर देती है।
कहने का तात्पर्य है कि यह लालसा सारे पापकर्मों की जड़ है तथा यही सभी संकटों को आमन्त्रित करती है। इसी के कारण ही मनुष्य के अनेक प्रकार के शत्रु उत्पन्न हो जाते हैं। जब यह लालसा बढने लगती है, तब वह मनुष्य के विनाश का कारण बन जाती है। मनुष्य को पता ही नहीं चलता कि कब वह इस लालच के मकड़जाल में फँसकर, तड़पने लगता है। फिर उससे बच निकलने का मार्ग खोजने लगता है।
जब यह लोभ अति हो जाता है, तब मनुष्य का पतन निश्चित होता है। यहाँ एक राजा की कथा पर चर्चा करते हैं, जिसे बहुत अधिक स्वर्ण की लालसा थी। एक दिन उसके राज्य में एक महात्मा आए। उनसे राजा ने कहा, "मुझे बहुत अधिक सोना चाहिए। क्या आप मुझे वह दे सकते हो?"
महात्मा जी ने कहा, "अवश्य दे सकता हूँ।"
राजा ने प्रार्थना की, "मुझे बहुत सारा सोना दे दीजिए।"
महात्मा ने उस राजा से कहा, "मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम जिस वस्तु को छुओगे, वह सोने की हो जाएगी।"
राजा बहुत प्रसन्न हो गया। अब क्या था, जिस भी वस्तु को वह छू लेता, वह सोने की हो जाती। उसका महल, उसका सिंहासन, उसका बगीचा आदि सब उसके छूने से सोने के हो गए। इतना सारा सोना देखकर वह बहुत प्रसन्न हो गया। जब वह भोजन करने बैठा, तो उसे खा नहीं सका क्योकि छूने से वह भी सोने का हो गया। जब उसकी बेटी ने उसे छुआ, तो वह भी सोने की हो गई।
अब वह रोने लगा और चिल्लाने लगा, "मुझे सोना नहीं चाहिए। मेरा सब कुछ ले लो, पर मेरी प्यारी बेटी मुझे वापिस दे दो।"
तब महात्मा जी ने आकर उसे शिक्षा दी कि लोभ से किसी का भला नही होता। अब राजा को समझ आ चुकी थी।इसलिए महात्मा जी ने उसे पहले की तरह बना दिया।
कहने का तात्पर्य यह है कि अति लालच भी मनुष्य को पागल बना देता है। जब राजा को मनचाहा बहुत-सा सोना मिल गया, फिर भी वह अतृप्त रह गया। तब उसे पहले वाली स्थिति चाहिए थी। अब उसे समझ आ गई थी कि मनुष्य को लालच करने से सुख नहीं मिल सकता।
इस लोभ की प्रवृत्ति को पूर्ण करने के कारण बहुत से मनुष्यों में चोरी तक की आदत हो जाती है। वे कहीं जाते हैं तो जो वस्तु उसे पसन्द आती है, उसे चुराकर ले आते हैं। इस कारण मनुष्य न्याय-व्यवस्था का दोषी बन जाता है। शीघ्र ही मनुष्य की इस आदत का पता चल जाता है। तब कोई बन्धु-बान्धव उसे अपने घर नहीं आने देता। इस तरह वह समाज से कट जाता है व अलग-थलग पड़ जाता है।
लोभ, लालच या लालसा सभी बुराइयों का मूल कारण है। लोभ करने से किसी का भला नहीं होता। हमारे मनीषी लोभ को मनुष्य का शत्रु मानते हैं। यह मनुष्य का आन्तरिक शत्रु है। इस पर विजय प्राप्त करना कठिन है, पर नामुमकिन नहीं हैं। मनुष्य अध्यात्म में जितना आगे बढ़ता है, वह इस शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेता है। मनुष्य के पास जो भी है, उसी में उसे सन्तुष्ट एवं प्रसन्न रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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