किसे दान न दें
हमारे शास्त्र दान देने पर बल देते हैं। सभी धार्मिक और सामाजिक कार्यों के लिए इसकी बहुत उपयोगिता होती है। शास्त्रों का कथन है कि दान सदा ही सुपात्र को देना चाहिए अन्यथा दिए हुए दान का सुफल मनुष्य को नहीं मिल पाता। मनुष्य बहुत ही कठोर परिश्रम करके धन कमाता है। उसके कमाए हुए धन का दुरुपयोग न होने पाए, उसे सदा इसका ध्यान रखना चाहिए।
दान किसको नहीं देना चाहिए, इस विषय में आचार्य चाणक्य का स्पष्ट कथन यह है-
वृथा वृष्टि: समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाऽपि च॥
अर्थात् समुद्र पर वर्षा का बरसना, जिसका पेट भरा हो उसे खाना देना, धनवान को धन का दान देना और सूर्य के प्रकाश में दीपक जलाकर रोशनी करना इत्यादि व्यर्थ में शक्ति का ह्रास करना होता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्ति का यथा योग्य स्थान और समयानुसार उपयोग करना चाहिए।
इस श्लोक के अनुसार दान उसे देने का कोई लाभ नहीं होता, जिसके पास बहुत है। जैसे समुद्र अथाह जलराशि समेटे हुए हैं। उसमें चार-पाँच बाल्टी पानी डालने से उसे कोई अन्तर नहीं होगा। पता ही नहीं चलेगा कि वह जल किधर गया। इसलिए समुद्र में जल डालना व्यर्थ होता है। जल वहाँ डालिए जहाँ पौधे न मुरझाएँ और वे बड़े होकर फल और छाया देने वाले बनें। वे आने वाले यात्रियों के सुख का कारण बन सकें।
जिस व्यक्ति के पास करोड़ों-अरबों रुपए हों, उसे दो-चार हजार रुपए दिए जाएँ तो उसे कोई अन्तर नहीं पड़ेगा क्योंकि उसे उस धन की आवश्यकता ही नहीं है। ऐसे स्थान पर दिया गया दान व्यर्थ होता है। ऐसे व्यक्ति को यदि वही राशि दी जाए, जिसे उसकी सचमुच आवश्यकता है, तो उसकी जरूरत पूरी हो जाएगी और उसका काम चल जाएगा। वह आशीष भी देगा और कृतज्ञ भी रहेगा।
जिसका पेट पहले से ही भरा हो, उसे पुनः खाना खिलाने का प्रयास किया जाए, तो वह खा ही नहीं सकेगा। उसके सामने परोसे गए छप्पन व्यन्जन भी बेकार हो जाते हैं। उसके स्थान पर ऐसे व्यक्ति को भोजन खिलाया जाए जो वास्तव में भूखा है। उसे भोजन की कीमत पता होती है। उसे खिलाने उसका पेट भर जाएगा और आपको उस सद्कार्य के लिए पुण्य भी मिलेगा।
सूर्य सारी पृथ्वी को प्रकाशित करता है। यदि दिन के समय दीपक जला दिया जाए, तो उसके प्रकाश की कोई अहमियत ही नहीं होगी। उसके जलने की कोई भी उपयोगिता नहीं होगी। हाँ, रात्रि के समय यदि उसे जलाया जाए तो वह प्रकाश देगा। मार्गदर्शक बनकर लोगों को ठोकर खाने से बचाने वाला बनेगा। इस प्रकार सूर्य के प्रकाश के सामने दीपक का जलना किसी के काम नहीं आता।
इसी दान की प्रवृत्ति को मद्देनजर रखते हुए तथाकथित धर्मगुरु जन साधारण को मूर्ख बनाते हैं। लोगों को दान देने तथा अपरिग्रह का उपदेश देते हैं और स्वयं ऐश करते हैं। अपने लिए सम्पत्तियाँ खरीदते हैं और मंहगी गाड़ियों का काफिला तैयार करते हैं। ऐसे स्थान पर दिए गए दान की कोई उपयोगिता नहीं होती। उनको दिया गया वह दान पुण्य देने वाला नहीं होता, अपितु व्यर्थ जाता है।
'पद्मपुराण' का स्पष्ट निर्देश है कि कैसे ब्राह्मण को दान न दिया जाए -
धूम्रपानरते विप्रे दानं कुर्वन्ति ये नराः।
ते नरा नरकं यान्ति ब्राह्मणा ग्रामशूकरा:।।
अर्थात् धूम्रपान (तम्बाकू, गांजा, भांग, चरस, बीड़ी, गुटखा, शराब इत्यादि मादक पदार्थ का सेवन) करने वाले ब्राह्मण को दान देने वाला नरक का अधिकारी होता है और उन ब्राह्मणों का तो कहा ही क्या जाए? उन अभागों को ग्रामशूकर बनकर विष्ठा-भोजन करना पड़ता है।
पद्मपुराण के अनुसार व्यसन करने वाले ब्राह्मण को कभी भी दान नहीं देना चाहिए। वह आपके दिए हुए दान का उपयोग व्यसनों में ही करेगा। इस तरह ऐसे ब्राह्मण को दिया गया दान यानी परिश्रम से कमाया गया धन नाली में जाने के समान हो जाएगा। अच्छी भावना से दान देने वाला व्यक्ति नरकगामी बन जाता है। पुण्य और यश के स्थान पर उसे अपयश और पाप ही मिलता है।
इस प्रकार अयोग्य व्यक्ति को दान देने से हमारे दान देने की उपयोगिता ही नहीं रहती। हमारा दिया गया दान व्यर्थ तो होता ही है, साथ में मानसिक सन्ताप भी होता हैं। सुपात्र को दिया गया दान पुण्य और यश देता है। इसका कारण है कि उसे धन की अहमियत पता होती है। वह धन उसके अभावग्रस्त जीवन में खुशियाँ और प्रकाश लाता है। मनुष्य को समय और योग्य पात्र को सुनिश्चित करके ही दान देना चाहिए ताकि उसके धन का दुरूपयोग न होकर सदुपयोग हो।
चन्द्र प्रभा सूद
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