कर्मों के प्रकार
मनुष्य कभी खाली नहीं बैठ सकता। वह सारा समय उठापटक करता रहता है। कोई-न-कोई कार्य उसे करना होता है, चाहे वह शुभ कर्म हो या अशुभ। इन्हीं शुभाशुभ कर्मों के आधार पर ही उसका पुनर्जन्म निर्धारित होता है। उन्हीं के अनुसार वर्तमान जीवन में उसे घर-परिवार, सुख-समृद्धि, सुख-दुख, भाई-बन्धु, पड़ोसी इत्यादि मिलते हैं।
अपने जीवन काल में प्रत्येक मनुष्य मुख्यतः तीन प्रकार के कर्म करता है। ये कर्म हैं- सात्विक कर्म, राजसिक कर्म और तामसिक कर्म।
सात्विक कर्म में परोपकार करना, सत्यभाषण करना, विद्याध्ययन में रत रहना, दान देना, दूसरों पर दया दिखना, सेवा के कार्य करना आदि आते हैं। इन्हें कर्म या सत्कर्म भी कहते हैं। सुकर्म कर्म मनुष्य को करने चाहिए लेकिन फल की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। इसी प्रकार जप करना चाहिए पर बिना फल की इच्छा रखे, एवँविध बिना किसी कामना के परोपकार करन चाहिए। यानी बिना आसक्ति के कर्म करना चाहिए।
राजसिक कर्म मिथ्याभाषण करना, क्रीडा करना, स्वाद लोलुपता रखना, स्त्रीआकर्षण में फँसना, चलचित्र देखना आदि होते हैं। इन कर्मों को अकर्म भी कहते हैं। ये कर्म मनुष्य को बारम्बार ललचाते हैं और मनुष्य इनमें लिप्त होता चला जाता है। इन कर्मों को करने से उसकी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो पाती। इनकी अधिकता हो जाने पर अनजाने में मनुष्य पतन के मार्ग की और अग्रसर होने लगता है।
सात्विक और राजसिक कर्मों के मिले जुले प्रभाव से मानव शरीर मिलता है। यदि राजसिक कर्मों की अधिकता होती है और सात्विक कर्मों कम होते हैं, तो मानव शरीर प्राप्त होता है, परन्तु किसी नीच कुल में जीव का जन्म होता है। यदि सात्विक कर्म अधिक हों और राजसिक कर्म कम हों, तो जीव को उच्च कुल में जन्म मिलता है। वहाँ उसे धन-वैभव मिलता है। इन सबसे परे जिस जीव के सात्विक कर्म अधिक होते हैं, उसका जन्म किसी विद्वान व्यक्ति के घर में होता। हैं।
तामसिक कर्म चोरी करना, जुआ खेलना, दूसरों को ठगने, लूट मार करना, अन्य लोगों के अधिकार का हनन करना आदि कहलाते हैं। इन कर्मो को विकर्म भी कहते हैं। इन कर्मों को करता हुआ मनुष्य पतन की ओर जाता है। ये उसके लिए विनाश का द्वार खोल देते हैं। ऐसे लोग धर्म और समाज के शत्रु कहलाते हैं। कोई भी समझदार व्यक्ति इनसे मित्रता करना नहीं चाहता। सभी इनसे किनारा करने में अपनी भलाई समझते हैं।
इन तीनों से परे दिव्य कर्म होते हैं, जो ऋषियों और मुनियों के द्वारा किए जाते हैं। इसी कारण वे गुणातीत कहलाते हैं। ईश्वर के समीप रहते हुए ये लोग आत्मोन्नति के लिए दिव्य कर्म करते हैं।
कर्म का आरम्भ भी होता है और अन्त भी होता है। जो कर्म करते हैं, उसका भोग जीव करते हैं और भोगकर उससे मुक्त होते हैं। पापकर्म करने पर मनुष्य नारकीय जीवन जीता है अर्थात् अपना जीवन दुखों-परेशानियों में व्यतीत करता है। पुण्यकर्म करने पर मनुष्य सुख-समृद्धि से भरपूर जीवन जीता है। शुभाशुभ दोनों तरह के कर्म करने पर मनुष्य के जीवन में क्रम से सुख-दुःख दोनों ही आते रहते हैं।
प्रारब्ध कर्म, सञ्चित कर्म और क्रियमाण कर्म भी कर्म के ही प्रकार हैं। अपने कर्मों के बड़े संचय में से थोडे-से कर्मों को लेकर मनुष्य इस देह को धारण करता है। शेष सञ्चित कर्म संस्कार के रूप में पड़े रहते हैं। ये सञ्चित कर्म संस्कार रूप में जीव के साथ रहते हैं। ये संस्कार मनुष्य को समय-समय पर चेताते रहते हैं। उसे प्रेरणा देते रहते हैं, जिनको मानना अथवा न मानना मनुष्य के अपने हाथ मे होता है।
प्रारब्ध कर्म पूर्वजन्मों के कर्मों का संग्रह होता है। इन्हीं से मनुष्य का भाग्य निर्धारित होता है। यही मनुष्य के जन्म, उसकी मृत्यु को निर्धारित करते हैं। इसके बीच उसके जीवन में क्या क्या घटेगा, ये सब तय करते हैं। प्रारब्ध कर्मों को भोगने में जीव स्वतन्त्र नहीं होता। ज्ञानी हो या अज्ञानी, भक्त हो या अभक्त, योगी हो या भोगी प्रारब्ध का प्रभाव सबके जीवन पर पड़ता है। ये प्रारब्ध कर्म जब भोग लिए जाते है, तब नष्ट हो जाते हैं।
वर्तमान जन्म में जो कर्म मनुष्य कर रहा है, वे सभी क्रियमाण कर्म कहलाते हैं। इन कर्मों को करने में मनुष्य स्वतन्त्र होता है। जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म वह अपने जीवन काल में करता है, उसी के अनुरूप उसे फल भोगना पड़ता है। चाहे उसकी इच्छा हो चाहे न हो। यानी कर्म करने में मनुष्य स्वतन्त्र है, पर उसके फल भोगने में वह परतन्त्र है।
ईश्वर ही सृष्टिकर्ता है, वही सर्जनहार है और वही कर्मों का नियामक है, निर्वाहक एवं फल देने वाला है। वह आत्मरूप से सबके अन्तःकरण में विराजमान रहता है। मनुष्य कर्ताभाव से जैसे कर्म करता है उसी के अनुरूप उसे अच्छा या बुरा फल मिल जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में इनके विषय में कहते हैं-
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।
अर्थात् जैसे लकड़ी के ढेर को अग्नि जलाकर भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञान की अग्नि से जीव के सारे कर्म-बन्धन, संस्कार भस्मीभूत हो जाते हैं। जो सञ्चित कर्म हैं वे भी भस्म हो जाते हैं। क्रियमाण कर्म जिन्हें मनुष्य कर्ताभाव से नहीं करता, उसे उन कर्मों का फल नहीं भोगना पड़ता है और प्रारब्ध कर्म भी बीत जाते हैं।
अज्ञानी मनुष्य अपना प्रारब्ध प्रतिकूल होने पर रोता है, चिल्लाता है। दुःख-कष्ट मिलने पर वह परम न्यायकारी परमात्मा पर दोषारोपण करता है, उसे भला-बुरा कहता है। जब अनुकूल प्रारब्ध होता है यानी उसे सुख-समृद्धि मिलती है, तो वह खुश होकर उसे भोगता है। उस समय वह स्वयं को संसार का भाग्यशाली मनुष्य समझता है। इसके विपरीत ज्ञानी मनुष्य हर परिस्थिति मे एकसमान रहते हुए ईश्वर का धन्यवाद करता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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