भाग्य और पुरुषार्थ
मनुष्य का भाग्य और उसका पुरुषार्थ दोनों की उसके जीवन में अहं भूमिका होती है। दोनों को एक सिक्के के दो पहलू कहा जा सकता है। भाग्य के बिना पुरुषार्थ फलदायी नहीं होता। इसी प्रकार पुरुषार्थ के बिना मनुष्य का भाग्य सो जाता है। जब मनुष्य का भाग्य प्रबल होता है, उस समय यदि वह पुरुषार्थ करने में आलस्य करता है, तब भाग्य मनचाहा फल नहीं दे पाता। मनीषी इसे ही जीवन में स्वर्णिम अवसर मिलना कहते हैं।
इसी प्रकार मनुष्य अपने जीवन में कितना भी पुरुषार्थ कर ले, परन्तु यदि भाग्य उसके विपरीत है, तब भी उसे आशा के अनुरूप फल नहीं प्राप्त हो सकता। एक मजदूर सारा दिन हाड़तोड़ परिश्रम करता है, परन्तु उसे दो जून के भोजन बड़े ही कष्ट से नसीब होता है। उसका भाग्य साथ नहीं देता, तभी उसकी यह स्थिति बनती है। जब भाग्य मनुष्य का साथ देता है, तब कम मेहनत करने पर भी अच्छा उसे परिणाम मिलता है।
हम यहाँ जानने का प्रयास करते हैं कि आखिर भाग्य कहते किसे हैं और यह पुरुषार्थ क्या है? मनुष्य जन्म-जन्मान्तरों में शुभ और अशुभ कर्म करता रहता है। कुछ शुभाशुभ कर्मों का फल वह भोग लेता है। जो कर्म शेष बचते हैं, वे इकट्ठे होकर जुड़ते रहते हैं। वही कर्म मिलकर मनुष्य का प्रारब्ध बनते हैं। ये प्रारब्ध कर्म ही मनुष्य का भाग्य बनाते हैं। उन्हीं कर्मों के अनुसार मनुष्य को इहलोक में सुख-दुख आदि भोग मिलते हैं।
इन शुभाशुभ कर्मों को भोगकर ही मनुष्य उनसे मुक्त होता है। उन्हें भोगे बिना उसकी गति सम्भव नहीं होती। मनुष्य के जीवन में आने वाले सभी सुख-दुख, सफलता-असफलता, उन्नति-अवनति आ द्वन्द्वदि इन्हीं कर्मों पर निर्भर करते हैं। यही भाग्य और पुरुषार्थ दोनों मिलकर मनुष्य जीवन की चलते हैं। इसीलिए चक्र के अरों की भाँति ये सब ऊपर-नीचे होते रहते हैं अथवा कर्मानुसार आते हैं।
आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने 'वाल्मीकिरामायणम्' के अयोध्याकाण्ड में लिखा है-
विक्लवो वीर्यहीनो य: स दैवमनुवर्तते।
वीरा: संभावितात्मानो न दैवं पर्युपासते।।
अर्थात् बलहीन या कापुरुष ही भाग्य के भरोसे बैठा रहता है। स्वावलम्बी पुरुष कर्म के माध्यम से सब कुछ प्राप्त कर लेता है, वह केवल भाग्य के भरोसे नहीं बैठा रहता है।
जिस मनुष्य को अपनी बुद्धि और शक्ति पर विश्वास होता है, निस्संदेह वह कर्म करता हुआ कुछ भी प्राप्त कर सकता है। वह आसमान में ऊँची उड़ान भर सकता है, समुद्र में गहरे पैठकर मोती ला सकता है, पर्वतों के सीना चीरकर मार्ग बना सकता है। ऐसा कौन-सा कार्य है, जो वह नहीं कर सकता? इन्हीं लोगों की बदौलत हम दुनिया के सारे सुख भोग रहे हैं। चन्दमा आदि नक्षत्रों पर आवागमन कर रहे हैं।
इसके विपरीत भाग्य के भरोसे बैठा कायर व्यक्ति कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाता। वह सारा समय अपने भाग्य को कोसता रहता है और ईश्वर को दोष देता रहता है। सफल पुरुषार्थी लोगों से ईर्ष्या करके अपना हृदय व्यथित करता रहता है। परन्तु वह अपने गिरेबान में झाँककर कभी नहीं देखता। वह आत्ममन्थन नहीं करता कि जीवन की रेस में उसके पिछड़ने का कारण क्या है?
'दैवं देयमिति कपुरुषा वदन्ति' कहकर मनीषी समझाते हैं कि भाग्य देगा, ऐसा कहकर हाथ पर हाथ रखकर निठल्ले बैठने से किसी समस्या का समाधान नहीं होने वाला। भाग्य तो अपने समय से देगा ही। पुरुषार्थ करके अपने भाग्य को जगाना बहुत आवश्यक है। अन्यथा मनुष्य के साथ उसका भाग्य भी सोने चला जाता है। इसलिए मनुष्य को अपने जीवन में सफल होने के लिए भाग्य और पुरुषार्थ रूपी दोनों पहियों से अपने जीवन की गाड़ी को चलाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें