व्याकरण का अभ्यास
भाषा को शुद्ध लिखने तथा बोलने का निकष या कसौटी व्याकरण है। वह अपने हाथ में चाबुक लेकर खड़ा रहता है। जहाँ मनुष्य ने भाषा का अशुद्ध प्रयोग किया, वहीं उसका चाबुक चल जाता है। जब तक मनुष्य भाषा का शुद्ध प्रयोग नहीं करता, व्याकरण तब तक मौन नहीं रहता। यदि भाषा पर व्याकरण का अंकुश न हो, तो सभी मनुष्य कैसे भी तोड़-मरोड़कर भाषा का प्रयोग करने लगेंगे। तब भाषा की एकरूपता और उसका सौन्दर्य कहीं खो जाएँगे। हर मनुष्य की अपनी अलग भाषा बन जाएगी।
वर्षों साधना करने पर व्याकरण को सिद्ध किया जाता है। तब जाकर भाषा का उचित रूप से ज्ञान हो पाता है। आजकल की पीढ़ी ऐसी उच्छृंखल है, जो रातोंरात महान साहित्यकार बन जाना चाहती है। अपनी महानता के झण्डे गाड़ना चाहती है। जैसे अन्य सामाजिक मर्यादाएँ चरमराती जा रही हैं, नैतिक मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है, उसी प्रकार वे व्याकरण के नियमों को भी तोड़ देना चाहते हैं।
इसीलिए आज के तथाकथित साहित्यकारों को भाषा की शुद्धता की परवाह नहीं है। इसके साथ ही उन लोगों को न वाक्य विन्यास की चिन्ता है और न ही वर्तनी की शुद्धता की ओर ध्यान है। विराम चिह्न तो मानो उनके लिए दूर की कौड़ी हैं। छन्द और अलंकारों का तो बहुत लोगों को ज्ञान ही नहीं होगा। बहुत से रचनाकार आज ऐसे हैं जो चार पंक्तियाँ शुद्ध नहीं लिख सकते।
किसी कवि ने उनकी इस दुरावस्था के विषय में व्यथित होकर लिखा है-
अव्याकरणमधीतं भिन्नद्रोण्या तरंगिणीतरणम्।
भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतम्।।
अर्थात् व्याकरण छोडकर किया हुआ अध्ययन, टूटी हुई नौका से नदी पार करना, और अयोग्य आहार के साथ ली हुई औषधी की भाँति होते हैं। ऐसे करने की अपेक्षा न करना ही बेहतर है।
व्याकरण का अध्ययन किए बिना किसी भी भाषा का ज्ञान अधूरा कहलाता है। कवि ने अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए दो उदाहरण लिखे हैं। पहला उदाहरण है कि छेद वाली नाव से नदी पार करना असम्भव है। नाव में पानी भर जाएगा और उसका डूबना निश्चित है। दूसरे उदाहरण में कवि कहते हैं कि डॉक्टर के निर्देशों के विरुद्ध दवा का सेवन करना हानिकारक होता है। इससे रोगी की जान जाने का खतरा बना रहता है।
दोनों उदाहरण बहुत सटीक हैं। बिना विचारे इन दोनों में से कोई भी कार्य करना मनुष्य के लिए खतरे की घण्टी साबित हो सकता है। उसी प्रकार व्याकरण का अभ्यास किए बिना भाषा का ज्ञान नहीं हो सकता। साहित्यकार को बहुत सावधान रहने का आवश्यकता होती है। उसकी भाषा सुसंस्कृत, परिष्कृत और मर्मस्पर्शी होनी चाहिए। भाषा पर उसकी पकड़ मजबूत होनी चाहिए।
इन सबसे बढ़कर हमारी मान्यता है। हमारे महान ग्रन्थ शब्द को ब्रह्म मानते हैं। शब्द का अशुद्ध उच्चारण तथा लेखन करने से ईश्वर का अपमान होता है। यह बात तो वैज्ञानिक भी मानते हैं कि शब्द बहुत समय तक ब्रह्माण्ड में रहता है। सबसे महत्त्वपूर्ण है कि मनुष्य जब अपने हित के लिए मन्त्र जाप करता है, तो उसके अशुद्ध उच्चारण के कारण उसका विनाश तक हो जाता है।
भाषा के अशुद्ध प्रयोग से संस्कार भी दूषित होते हैं। सभी साहित्यकारों को चाहिए कि भाषा की शुद्धता का ध्यान रखें। उसके लिए व्याकरण के नियमों का पालन करना बहुत आवश्यक है। आने वाली पीढ़ी उनकी रचनाओं को पढ़कर उनके लिए दुख न करे। उसे अपने साहित्यकारों पर मान हो, वे उन्हें अपना आदर्श समझें, इसके लिए उन्हें ऐसा प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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