ईश्वर से रिश्ता निभाना
रिश्ते हमें ईश्वर की ओर से हमारे कर्मानुसार लेन और देन का भुगतान करने के लिए मिलते हैं। उन रिश्तों का साथ निभाना मनुष्य का कर्त्तव्य होता है। रिश्ते निभाने के लिए तन, मन और धन का उपयोग करना पड़ता है। तन यानी शरीर से रिश्तों के सुख-दुख में उपस्थित रहना पड़ता है। मन से उनकी शुभ की कामना करनी पड़ती है। यदि उन्हें कोई समस्या आ जाए तो धन से उनकी सहायता करनी पड़ती है।
इस तरह तन, मन और धन से रिश्तों को निभाया जाता है। इन रिश्तों के निर्वहण के लिए किसी वाया मीडिया की आवश्यकता नहीं होती। जैसे ताली दोनों हाथों से बजती है, उसी प्रकार रिश्ते भी दोनों तरफ से निभाए जाएँ, तो लम्बे समय तक बने रहते हैं। एकतरफा रिश्ता कभी भी नहीं निभाया जा सकता। इन रिश्तों की आयु बहुत छोटी होती है, ये शीघ्र ही मुरझा जाते हैं।
यदि कोई मनुष्य कोताही करता है, तब रिश्तों में दरार आने की सम्भावना बनी रहती है। रिश्ते अपने होते हुए भी परायों की भाँति व्यवहार करने लगते हैं। 'इस हाथ ले और उस दे' के नियम पर रिश्ते निभाए जाते हैं। जितना प्यार का व्यवहार उनके साथ किया जाता है, उतने ही प्यार से दूसरे लोग रिश्ता निभाते हैं। उनमें विश्वास बनाए रखना पड़ता है। अन्यथा सब अपने-अपने में मस्त होकर दूसरे की परवाह करना छोड़ देते हैं।
यानी रिश्तों को निभाना सरल कार्य नहीं होता। जरा-जरा सी बात पर लोग आहत हो जाते हैं और मुँह फुलाकर बैठ जाते हैं। तब उस व्यक्ति को मनाने में नानी याद आ जाती है। उन्हें लगता है कि फलाँ व्यक्ति को उनकी परवाह नहीं है। वही क्यों उसके लिए मरे जाएँ। यह सोच रिश्तों को बिखेरकर रख देती है। एक बार रिश्ते जब बिखर जाते हैं, तो फिर उन्हें समेटना बहुत कठिन हो जाता है।
यदि किसी लौकिक व्यक्ति यानी किसी सांसारिक व्यक्ति के साथ कोई रिश्ता बनाना होता है, तो उसके लिए अपना बहुमूल्य समय निकालना पड़ता है। उससे मिलना-जुलना होता है। उससे मन से प्यार निभाना पड़ता है, तब जा कर कहीं एक रिश्ता बनता है। उस रिश्ते में एक खिंचाव होता है। रिश्ते को बाँधे रखने के लिए पौधे की तरह उसे खाद और पानी देना पड़ता है। तब जाकर कहीं रिश्ता फलता-फूलता है।
जब सांसारिक रिश्ते इतनी सरलता से नही जुड़ पाते, तो फिर हम कैसे सोच सकते हैं कि मन्दिर गए, घण्टी बजाई, प्रसाद ले लिया, तो चलो भगवान से हमारा पक्का रिश्ता जुड़ गया। उससे गहरी दोस्ती हो गई। ऐसा नहीं होता है। उस मालिक से यदि रिश्ता बनाना हो, तो उसकी आराधना के लिए समय निकालना पडता है। उसे सच्चे मन से याद करना पडता है। ईमानदारी से उससे प्यार करना पडता है। तब कहीं जाकर उससे मनुष्य के प्यार की पींग परवान चढ़ पाती है।
ईश्वर से सम्बन्ध बनाना हो तो अपने शरीर को कष्ट देना पड़ता है। उठकर उसका जप या ध्यान करना पड़ता है। मन से उसके विषय में विचार करना पड़ता है। उसे अपने धन से कुछ दे नहीं सकते क्योंकि वह तो उसी का ही दिया हुआ है। वह केवल मनुष्य की भावना का भूखा होता है। उसे पाने के लिए किसी आडम्बर को करने की कोई भी आवश्यकता नहीं होती। जो सरल हृदय से उसे पुकार लेता है, तो वह उसी का हो जाता है।
उसके साथ अन्य रिश्तों की तरह वरतने की अथवा उसे बार-बार याद दिलाने की भी कोई आवश्यकता नहीं होती। वह अपना एकतरफा रिश्ता सदा बहुत अच्छी तरह निभाता रहता है। हम मनुष्य उसके साथ रिश्ता निभाएँ या नहीं, तब भी वह सांसारिक रिश्तों की तरह हमसे कभी भी नाराज नहीं होता। न ही इस बात को लेकर वह हमें कभी उलाहना देता है। वह न बुरा मानता है और न ही वह कभी हमसे मुँह फुलाकर बैठ जाता है। वह हमसे कभी कोई गिला-शिकवा नहीं करता।
हम मनुष्य यदि उसका स्मरण नहीं करते, तब भी वह रूठकर हमसे दूर नहीं चला जाता। वह अपना दायित्व पूरी तरह से निभाता है। हमें पता भी नहीं लग पाता, पर वह हमारा हाथ पकड़कर चलता ही रहता है। यह हमारा नैतिक दायित्व बनता है कि हम अपना रिश्ता उस मालिक के साथ प्रगाढ़ बनाएँ। हम ही मूर्ख हैं, जो उस मालिक से दूरी बनाकर रखते हैं। वह तो हर कदम पर बिना किसी पूर्वाग्रह के हमारे साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर सदा खड़ा रहता है।
हम मनुष्यों का यह कर्त्तव्य है कि अहर्निश हमारा ध्यान रखने वाले परमपिता परमात्मा से हमें अपना मजबूत रिश्ता बनाना चाहिए। सारे सांसारिक रिश्ते मृत्यु लोक के नियमानुसार इस संसार से विदा ले लेते हैं। केवल वह परमात्मा ही अजर और अमर है। वह जन्म जन्मान्तरों तक हमारा साथ निभाता है। उसके साथ हमारा कोई लेन देन का सम्बन्ध नहीं है। हम उसी मालिक का ही अंश रूप हैं। इसलिए उससे हमारा रिश्ता अटूट है। उसी से सच्चा रिश्ता निभाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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