क्रोध पर नियन्त्रण
क्रोध का आवेग मनुष्य के विवेक का हरण करता है। यह मनुष्य के सोचने-समझने की शक्ति को प्रभावित करता है। यह मनुष्य का सबसे बहुत बड़ा शत्रु है। यह क्रोध रूपी राक्षस उसे कभी भी चैन से नहीं रहने देता। मनुष्य के अन्तस् में जब क्रोध रूपी राक्षस प्रवेश कर जाता है, तब वह उसे प्रभावित करता है। मनुष्य कितना प्रयास करे, पर उसके चक्कर में फँस जाता है। उससे छुटकारा पाने के लिए मनुष्य छटपटाता रहता है।
मनुष्य क्रोध को जितनी अधिक हवा देता है, उतना ही वह दोगुना, तिगुना और चौगुना होता चला जाता है। यानी यह मनुष्य के विवेक पर हावी रहता है। इसके वश में आ जाने पर मनुष्य का भला कदापि नहीं हो सकता। इस राक्षस की शक्ति तभी कम की जा सकती है, जब इन्सान स्वयं को सन्तुलित रखता है, हर समय प्रसन्न रहने का प्रयास करता है। तब यह मनुष्य को उकसाता रहता है।
क्रोध रूपी राक्षस की मनुष्य जितनी उपेक्षा करता है, उतना ही वह कमतर होता चला जाता है। जितना मनुष्य बदले की भावना में जलता है या उसे अपने मन के मन्दिर में विराजमान करता है, उतना ही यह बढ़ता है, फलता-फूलता चला जाता है। दूसरे का अहित मनुष्य बाद में करता है, पर अपनी हानि पहले कर लेता है। सामने वाले को कष्ट देने के लिए वह योजना बनाता है, उससे स्वयं को कष्ट देता है।
मनुष्य को यह ज्ञात ही नहीं हो पाता कि वह चुपके से उसकी कितनी हानि कर देता है। मनुष्य को इसे कदापि प्रश्रय नहीं देना चाहिए, नहीं तो यह सिर पर सवार होकर परेशान करता है। मनुष्य को सदा सावधान होकर रहना पड़ता है, तभी वह इसके चंगुल में आने से बच सकता है। अन्यथा अपने क्रोधी स्वभाव के कारण मनुष्य अपने बन्धु-बान्धवों में तिरस्कृत होता रहता है।
छोटी-छोटी बात पर गुस्सा हो जाना कोई समझदारी नहीं है। अपने घर-परिवार या पड़ोस, हर स्थान पर मनुष्य अनावश्यक बातों पर आवेश में आ जाता है। उस समय मनुष्य सोचता है कि सामने वाले पर गुस्सा करके उसे सजा दे रहा है, पर ऐसा नहीं होता। इस गुस्से के उबाल में सबसे ज्यादा नुकसान मनुष्य स्वयं का ही करता है। क्रोध के दौरान मनुष्य की मनस्थिति अव्यवस्थित हो जाती है, उसका प्रभाव उसके शरीर पर भी होता है।
क्रोध की अधिकता हो जाने पर मनुष्य काँपने लगता है, उसके शब्द साथ नहीं देते यानी लड़खड़ाने लगते हैं, मुँह से थूक भी निकलने लगता है। इससे उसकी धड़कन यानी हृदयगति तेज हो जाती है। रक्तचाप B.P. भी बढ़ने लगता है। रोगी हो जाने पर डॉक्टरों के पास समय और धन व्यय करना पड़ता है। इन सबके कारण मनुष्य काफी लम्बे समय तक अशान्त व परेशान रहता है।
इस तरह क्रोध करके मनुष्य अपने तन, मन और धन की हानि करता है। इस क्रोध रूपी राक्षस की शक्ति को मनुष्य को बढ़ने नहीं देना चाहिए। उसे अपने गुस्से पर नियन्त्रण करने का प्रयास करना चाहिए। अन्यथा वह सारा जीवन इसका गुलाम बना रहता है। क्रोधी व्यक्ति को कोई भी पसन्द नहीं करता। दुर्वासा जैसे ऋषि को उनके क्रोध के कारण वह स्थान नहीं मिल सका, जो उन्हें मिलना चाहिए था।
बड़े-बड़े ऋषि-मुनि इस क्रोध को वश में करने के लिए तपस्या करते रहे। बाहरी शत्रुओं पर मनुष्य अपने उच्च पद, शक्ति या किसी भी प्रकार से विजय प्राप्त कर सकता है। यह तो मनुष्य के अन्तस् में रहने वाला शत्रु है। इससे मनुष्य की गहरी छनती है। तभी तो इसके कहने के अनुसार चलता है। बार-बार धोखा खाता है, फिर भी समझता नहीं है। इससे दोस्ती करना नहीं छोड़ता।
क्रोध मनुष्य के हृदय में विराजमान अजेय शत्रु है। इस क्रोध को वश में करना मनुष्य के लिए असम्भव तो नहीं, पर कठिन अवश्य होता है। यदि मनुष्य इसे अपने वश में कर ले, तो उसका बेड़ा पार हो जाए। इसे नियन्त्रित करने के लिए मनुष्य को अथक परिश्रम करना पड़ता है। उसे अनवरत अभ्यास करना होता है। तब जाकर यह दुष्ट क्रोध मनुष्य को प्रभावित नहीं कर पाता और हानि नहीं पहुँचा सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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