जन्म-मरण के मध्य जीवन
मनुष्य की कुछ कामनाएँ जीवन में पूर्ण हो जाती हैं, तो कुछ आवश्यकताएँ अधूरी रह जाती हैं। इसी पूर्ण और अपूर्ण के मध्य मनुष्य की सारी जिन्दगी झूलती रहती है। जिस प्रकार बच्चे सी-सा नामक झूले पर झूलते रहते हैं और उसका आनन्द लेते हैं। कभी एक साइड ऊपर चली जाती है, तो कभी दूसरी। इसी प्रकार कामनाओं और आवश्यकताओं का चक्र भी अनवरत चलता रहता है। दोनों में से कभी कोई ऊपर और दूसरी नीचे रहती हैं।
इसी प्रकार विशाल समुद्र में सदा शान्ति नहीं रहती। वहाँ पर भी यदा कदा हलचल होती रहती है। समय-समय पर लहरें उठती रहती हैं। अचानक ही एक बड़ी-सी लहर आ जाती है, जो अपने साथ वहाँ पड़ा हुआ कुछ सामान ले जाती है और बदले में छोटे-छोटे शंख, सीप आदि छोड़ जाती है। उन्हें एकत्र करके बच्चे प्रसन्न होते हैं और खेलते हैं। लोग उन लहरों के साथ मस्ती करते हुए आनन्दित होते हैं।
समुद्र को चाहे चोर कहो, चाहे पालनहार कहो, चाहे हत्यारा कहो अथवा चाहे उसे दानी कहो, उसे इन सबसे कोई अन्तर नहीं पड़ता। जब समुद्र को क्रोध आता है, तो उसमें तूफान आ जाता है। उस समय बहुत तबाही होती है। तब उसके किनारे के आसपास रहने वाले लोगों को वहाँ से हटाकर सुरक्षित स्थान पर भेज दिया जाता है। बड़े-बड़े पेड़ टूटकर गिर जाते हैं।
उस समय वह बहुत से लोगों को अनायास ही लील जाता है। समुद्र लोगों को अनेकानेक मोती आदि भी देता है। लोग समुद्र के बारे में कुछ भी अच्छा या बुरा सोचते रहें या कहें, विशाल समुद्र अपनी लहरों में मस्त रहता है। वह किसी के कहने की परवाह नहीं करता। वह अपने उफान और शान्ति को अपने हिसाब से तय करता है, दूसरों के कहने अनुसार कुछ भी नहीं करता।
यदि मनुष्य समुद्र की तरह विशाल बनने की कामना करता है, तो उसे किसी दूसरे की किए गए निर्णय पर नहीं चलना चाहिए। जो भी कार्य वह करना चाहता है, उसे अपने अपने बलबूते पर, अपनी मर्जी से करना चाहिए। इसका कारण है कि केवल उसे ही अपनी सामर्थ्य का ज्ञान होता है, किसी अन्य को नहीं। दूसरों का कहना मानने से उसे मुँह की खानी पड़ सकती है, जो सचमुच उसके लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है।
जो बीत गया सो बीत गया। उसके बारे में सोचना अथवा उसकी चिन्ता करना बिल्कुल व्यर्थ है। सारा ही समय उसका पिष्टपेषण करते रहने से मन को बहुत पीड़ा होती है। भविष्य में मनुष्य को इस कारण से हानि उठानी पड़ सकती है। बस मनुष्य को जीत-हार, खोना-पाना, सुख-दुख, सफलता-असफलता और लाभ-हानि आदि के चलते अपने मन को विचलित नहीं करना चाहिए।
यदि मनुष्य का यह जीवन सुख और शान्ति से युक्त होता, तो उसे जन्म लेते समय रोना नहीं पड़ता। मनुष्य अपने जन्म के समय रोता है और जब उसकी मृत्यु होती है, तब वह अपने बन्धु-बान्धवों को रुलाता है। यानी उसके इस संसार से विदा लेते समय उसके परिजन रोते हैं। जन्म और मरण के मध्य होने वाले संघर्षशील समय को जीवन कहा जाता है। इसे हर हाल में मनुष्य को जीना होता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन के इस संघर्ष को मनुष्य को स्वयं ही झेलना पड़ता है। उसे सदा दृढ़ता के साथ खड़े रहना चाहिए, घबराकर कदम पीछे नहीं हटाना चाहिए। आवागमन इस मरणधर्मा संसार का क्रम है। इससे कोई भी जीव बच नहीं सकता। इसलिए जन्म है, तो मृत्यु भी है। इस फासले को मनुष्य को हर हाल में पाटना पड़ता है। यह जीवन जीना भी एक कला है, जो हर मनुष्य को सीख लेनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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