घर सराय नहीं
घर शब्द सुनते ही मन में एक कल्पना जन्म लेती है कि यह वह सुन्दर स्थान है, जहाँ पर माता-पिता तथा उनके बच्चे प्रसन्नता से रहते हैं। वहाँ होने वाली चहल-पहल से घर गुंजायमान रहता है। बच्चे माता-पिता से अपनी फरमाइशें रखते हैं और वे उन्हें जी जान से पूरा करते हैं। बच्चों का उनके साथ रूठने-मनाने का खेल अनवरत चलता ही रहता है। समय का पता ही नहीं चलता कि वह कहाँ बीत जाता है।
यह ध्यान देने वाली बात है कि खाली ईंट-पत्थरों से बने हुए मकान को घर नहीं कहते। जब वहाँ परिवारी जनों में प्रेम का वातावरण होता है यानी परिवार के सभी सदस्य मिलकर प्रेमपूर्वक रहते हैं, तब वह घर कहलाता है। घर के सभी सदस्यों में जब परस्पर सामञ्जस्य होता है, तो वह घर स्वर्ग के समान सुन्दर लगने लगता है। हो सकता है कि भौतिक रूप से वहाँ कोई कमी हो, पर उनका आपसी सौहार्द उसे पूरा कर देता है।
एम एन सी में काम करने वाले युवाओं को आजकल अपने लिए ही समय नहीं मिल पाता, तो वे अपने परिवार को क्या समय देंगे? घर-परिवार के लिए उनके पास समय नहीं होता। समयाभाव के कारण सामाजिक कार्यों में वे जा नहीं पाते। इस तरह वे सबसे कटकर रह जाते हैं। इसी प्रकार बड़े व्यवसायियों का भी कुछ ऐसा ही कार्यक्रम रहता है। वे भी प्रतिदिन बच्चों के लाड़ नहीं लड़ा पाते। उनके बच्चे बस उनकी प्रतीक्षा करते रहते हैं और बिसूरते रहते हैं।
वे लोग प्रातः जल्दी काम पर चले जाते हैं और घर लौटने का उनका कोई समय नहीं होता। बहुधा जब वे घर आते हैं, तो बच्चे सोए हुए होते हैं। प्रातः बच्चे जब विद्यालय जाते हैं, तो वे सोए हुए होते हैं। इस प्रकार उनका अपने बच्चों से मिलना बहुत कम हो पाता है। वे लोग अपने ही घर में मानो मेहमान बन जाते हैं। और यदि उनकी टूरिंग अधिक होती हो, तब तो फिर पूछना ही व्यर्थ है कि वे अपने बच्चों से कब मिलते हैं?
इन लोगों को अपने काम में व्यस्त रहने के कारण यह भी स्मरण नहीं रहता कि उनके माता-पिता, पत्नी और बच्चे घर पर प्रतीक्षा कर रहे हैं। घर में खाना खाने की फुर्सत भी इन लोगों को नहीं होती। परिवार के साथ खाना कब खाया था, इन्हें याद ही नहीं होता। घर के लोग उनसे मिलने और बात करने के लिए तरस जाते हैं। बच्चे भी शिकायत करते हैं कि स्कूल में जब कभी पीटीएम होती है, तो सब बच्चों के माता-पिता दोनों आते हैं, पर उनकी माँ सदा अकेली आती है।
इसका अर्थ यही हुआ कि इन लोगों के लिए घर घर न होकर एक सराय है या रैनबसेरा बन जाता है या फिर एक होटल है। जहाँ पर ये लोग रात बिताने के लिए आते हैं और सवेरा होते ही अपने काम पर चले जाते हैं। न किसी पड़ौसी से कोई मतलब और न ही किसी नाते-रिश्तेदार से कोई सरोकार। अपने परिवारी जनों से मिलने का समय उनके पास नहीं होता, तो वे और किसी से क्या मिलेंगे?
मनुष्य को अपनी नौकरी अथवा व्यवसाय में इतना अधिक व्यस्त नहीं हो जाना चाहिए कि उन अपनों के लिए समय ही न निकल पाए, जिनके लिए वह सारा परिश्रम करता है। दिन-रात एक कर देता है। समय बीतने पर ऐसे लोग अकेले पड़ जाते हैं। उनके साथ खड़े होने वाला कोई नहीं होता। उनकी अपनी पत्नी तथा उनके अपने जिगर के टुकड़े बच्चे तक उनसे दूर हो जाते हैं।
वृद्धावस्था की कगार पर पहुँचकर जब ये अकेले होने पर ये लोग पश्चाताप करते हैं, तब सब व्यर्थ हो जाता है। सारी आयु पत्नी और बच्चे उनकी प्रतीक्षा करते हैं। इस अवस्था में वे सबकी बाट जोहते हैं। पर सब व्यर्थ होता है। तब तक उनके सभी परिवारी जनों के मनों में दूरियाँ घर कर गई होती हैं। उन्हें पाटना असम्भव तो नहीं, पर कठिन अवश्य हो जाता है। तब जमीनी हकीकत समझ में आती है।
मेरा आप सबसे यही कहना है कि अपने घर को होटल या सराय न बनाकर एक सुन्दर घर बनाए। अपने व्यस्त समय में से अपनी पत्नी और बच्चों के लिए समय निकालिए। उनके साथ बैठकर सुख-दुख साझा कीजिए। परिवार को आपके पैसे से अधिक आपके समय और प्यार की आवश्यकता है। हो सके तो कुछ दिन के लिए परिवार के साथ देश या विदेश में कहीं घूमने का कार्यक्रम बनाइए। इस तरह करने से परिवार के लिए आप अजनबी कदापि नहीं रहेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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