मृगतृष्णा एक छलावा
मृगतृष्णा तो बस एक छलावा मात्र है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यह मनुष्य की विडम्बना है कि वह सारा जीवन मानो मृगतृष्णा के पीछे भागता रहता है। फिर भी उसके हाथ में कुछ नहीं आता। वह हर समय कदम-कदम पर प्रारब्ध के हाथों छला जाता है। वह प्रयत्न करता है, तेज कदमों से भागता है, उसे लगता है कि अब उसने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया है। पर नहीं, वहीं पर वह औंधे मुँह गिर जाता है, पटकनी खा जाता है।
कोई मनुष्य रेगिस्तान में सफर कर रहा होता है, तो गर्मी के कारण उसे प्यास सताने लगती है। सामने कुछ दूरी पर तेज धूप रेत पर चमक रही होती है, तब मनुष्य को वहाँ पानी होने का अहसास होता है। पास जाने पर उसे वहाँ फिर से रेत दिखाई देती है। इसे मृगतृष्णा कहा जाता है। यानी केवल एक छलावा भर और कुछ भी नहीं। मनुष्य के साथ होने वाला यह छल उसे भीतर तक तोड़ देता है।
यहाँ एक उदाहरण लेते हैं। कस्तूरी हिरण की नाभि में रहती है। जब हिरण को उसकी सुगन्ध आती है, तब उसे खोजने के लिए पूरा जंगल छान मारता है। वह जंगल में इधर-उधर भागता फिरता है। उसे वह इच्छित खुशबू कहीं नहीं मिल पाती। यानी मृग के साथ भी यहाँ पर छल हो जाता है। कस्तूरी की सुगन्ध को ढूंढने का उसका वह सारा परिश्रम व्यर्थ हो जाता है। वह मायूस होकर रह जाता है।
मनुष्य अपनों के बीच रहता हुआ भी किसी तलाश में लगा रहता है। वह क्या खोज रहा है, उसे स्वयं भी ज्ञात नहीं होता। उसकी वह तलाश है कि समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती। दूसरे शब्दों में कहें तो वह मृगमरीचिका के फेर में पड़ा होता है। जो उसका सारा सुख-चैन छीन लेती है। तब मनुष्य निराशा के भँवर में डूबने लगता है। उससे निकलने से उसके सारे उपाय किसी काम नहीं आते।
मनुष्य एक तृष्णा करता है। उसे पाने के लिए अनथक प्रयास करता है। जब तक उसकी वह कामना पूर्ण होती है, तो दूसरी मुँह बाए खड़ी हो जाती है। यानी वह वह तृष्णा की मृगमरीचिका में डूबता और उतरता रहता है। उसकी मृगतृष्णा को पाने की यह यात्रा अनवरत चलती रहती है, जो कभी समाप्त नहीं होती। इस जंजाल में फँसा वह छटपटाता रहता है, इससे बाहर निकलने के लिए हाथ-पैर पटकता रह जाता है।
ईश्वर मनुष्य के अपने हृदय में ही निवास करता है। परन्तु मनुष्य उसे जंगलों में, तीर्थ स्थानों में, तथाकथित धर्मगुरुओं के पास, पर्वतों की गुफाओं में, तन्त्र-मन्त्र आदि में खोजता फिरता है। वह घर-बार छोड़कर सन्यासी तक बन जाता है। परन्तु वह ईश्वर उसे कहीं भी नहीं मिलता। उसका भटकना सारा जीवन चलता रहता है, पर वह सब व्यर्थ। मनुष्य स्वयं को ठगा हुआ महसूस करता है। यानी यहाँ पर उसके साथ छल हो जाता है।
मृगतृष्णा के पीछे भागता-भागता मनुष्य अपने जीवन में सुख भी भोग नहीं पाता। जिसे उसने दिन-रात परिश्रम करके कमाया होता है। वह बस और और को पाने का असफल प्रयास करता रहता है। वह हाथ बढ़ाकर उसे पकड़कर प्रसन्न होना चाहता है और आनन्द मनाना चाहता है, पर उसके हाथ कुछ भी तो नहीं आता। उसकी स्थिति हारे हुए जुआरी की तरह हो जाती है और वह न चाहते हुए भी व्यथित हो जाता है।
मनुष्य को जानते-बुझते मृगतृष्णा के पीछे नहीं भागना चाहिए। वह सारा समय बस गोल-गोल घूमता रहता है। उसे कहीं भी ओर-छोर नहीं मिलता। जीवन में यह भटकाव उसे कहीं का नहीं रहने देता। उसे मायूसी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं मिलता। यह विचार उसे निराशा के गर्त में धकेलने के लिए बहुत होता है। उसे अपने ऊपर विश्वास रखकर आगे कदम बढ़ाते जाना चाहिए।
मनुष्य को स्वयं को संयमित कर लेना चाहिए ताकि उसे मृगतृष्णा के कड़वे अनुभव से निजात मिल सके। उसे अपने ऊपर विश्वास रखना चाहिए कि कितनी भी कठिन परिस्थिति क्यों आ जाए वह पार पा लेगा। मृगतृष्णा या मृगमरीचिका के पीछे भागने कर दुखी होने के स्थान पर, जो उसके पास है, उसी में सन्तोष करके जी लेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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