मन का व्यवहार
मनुष्य का यह मन है, जो कभी बिना किसी कारण के खुश होकर चहकने लगता है, तो कभी अनायास ही व्यथित हो जाता है। इस प्रसन्नता और अवसाद का कारण, प्रयास करने पर भी उसे समझ नहीं आता। तब वह परेशान हो जाता है। उसे ज्ञात नहीं हो पाता कि उसे अचानक ही क्या हो गया है? उसका मन इस प्रकार का व्यवहार क्यों कर रहा है? इस सबके पीछे आखिर कारण क्या हो सकता है?
ये सभी प्रश्न उसे मर्माहत कर देते हैं। उसे इनका ओरछोर नहीं मिल पाता। जितना वह सोचता है, उतना ही उलझता जाता है। मानव का यह मन यदि किसी कारण से खुश हो बात समझ आती है या किसी कष्ट में दुखी हो तो वह उसका कुछ उपाय सोच ले। पर जब कोई ऐसी घटना घटित ही नहीं हुई, तो फिर यह बवाल बुद्धि से परे होता है। उसे जानना खाला जी का घर नहीं होता।
मन खाली तो बैठ नहीं सकता, वह बस हर समय विचारों के जंगल में विचरण करता रहता है। वहाँ के कड़वे और मीठे फलों को तोड़कर चखता रहता है। उन्हीं के स्वादों में खोया रहता है। ये स्वाद या बेस्वाद फल उसे मीठा या कड़वा बनाते रहते हैं। न चाहते हुए भी ये सब उस पर अपना प्रभाव छोड़ देते हैं। इसीलिए मनुष्य का यह मन मूड का गुलाम बन जाता है। तभी मनुष्य कहता है कि फलाँ काम को करने का मेरा मन नहीं कर रहा अथवा कर रहा है।
मन जब शान्त दिखाई दे, तब भी वह कोई न कोई उठा-पटक कर रहा होता है। इसकी कोई गारण्टी नहीं कि वह उस समय सकारात्मक कार्य कर रहा होता है या फिर नकारात्मक कार्यों में व्यस्त होता है। उस समय वह देश-विदेश की सैर भी कर सकता है। अपने बन्धु-बान्धवों के यहाँ भी बैठा हो सकता है। अपने बचपन की खट्टी-मीठी यादों को खंगाल रहा हो सकता है। भविष्य की योजनाओं पर कार्य कर रहा हो सकता है। यानी मन मल्टीटास्किंग कर रहा होता है।
उस समय यदि मनुष्य से कोई यह पूछे कि क्या कर रहे थे? कहाँ खोए हुए थे? तब इन प्रश्नों को सुनकर मनुष्य हड़बड़ा जाता है। उसे समझ ही नहीं आता कि वह इस प्रश्न का क्या उत्तर दे? क्योंकि वह स्वयं ही नहीं जानता होता कि वह क्या सोच रहा था? है न यह बहुत विचित्र बात, परन्तु सत्य है। वास्तविकता यही होती है कि मनुष्य उस समय खुद इस बात से अनजान होता हैं।
विचारों के सागर में मन कभी ऊपर उठता है, तो कभी गहरे पैठता है और कभी गोते खाता है। किसी भी स्थिति में वह चाहे तो चमत्कार कर सकता है। उसे उनसे बहुत कुछ सीखने के लिए मिलता है। विचारों के बवण्डर उसे उत्तेजित करते हैं। साथ ही वे उसे सदा चौकन्ना रहने की शिक्षा भी देते हैं। पर यह बाँवरा मनुष्य का मन क्या जान पाता है और क्या भूल जाता है, उस पर ही निर्भर करता है।
मनुष्य का मन जब किसी घटना अथवा विचार का पिष्टपेषण करता है यानी बार-बार उसके बारे में सोचता है, तो प्रायः उसका प्रभाव नकारात्मक होता है। इसी चक्कर में कई सम्बन्ध पीछे छूट जाते हैं, तो कई बन्धु-बान्धव नजरों से उतर जाते हैं। बाद जब उन पर विचार किया जाए, तो अपनी ही गलती होती है। तब पश्चाताप ही शेष बचता है। रिश्तों को होमकर व्यथित होने का कोई लाभ नहीं होता।
यह मन सदा शार्टकट या आसान रास्ते की खोज में जुटा रहता है। वे सही हो इसकी कोई गारण्टी नहीं होती। शॉर्टकट प्रायः हानिकारक व दुखदाई होता है। वह मनुष्य को मुसीबत में डालने का कार्य बखूबी निभाता है। इससे मनुष्य को बचना चाहिए। सच्चाई और ईमानदारी का मार्ग लम्बा और कण्टकों से भरा हो सकता है, पर अन्ततः सुखदाई होता है। इसमें मनुष्य को स्वयं भेद करना चाहिए।
मन के अनुसार स्वयं को नहीं चलने देना चाहिए। यानी मन को मनमर्जी नहीं करने देनी चाहिए। इससे मनुष्य को प्रायः परेशानी का सामना करना पड़ता है। मन को अपनी इच्छा से चलाना चाहिए। इससे मनुष्य सुखी रहता है। इसके लिए मन को अपने वश में करना चाहिए, ताकि वह कभी भटकने न पाए। यदि यह मन मनुष्य के नियन्त्रण में रहेगा, तो निश्चित ही वह चमत्कार कर सकेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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