मुखौटानुमा जिन्दगी
मनुष्य ने अपने व्यक्तित्व को कछुए की तरह अपने खोल में समेट लिया है। यानी मनुष्य जैसा भीतर हैं, वैसा बाहर से दिखाई नहीं देता। वह अपने व्यक्तित्व को के पर्दों में छुपा लेना चाहता है, जो बहुत गलत बात हैं। सब कुछ जानते-बुझते हुए खुद को आवरण में ढक लेना उचित नहीं कहा जा सकता। दूसरे शब्दों में कहें तो मनुष्य ने अपने चेहरे पर एक मुखौटा लगा रखा है। इसीलिए उसका वास्तविक चरित्र किसी के सामने नहीं आ पाता।
बाजार में तरह-तरह के आकर्षण मुखौटे मिलते हैं, जो बच्चों को आकर्षित करते हैं। उन्हें खरीदकर बच्चे अपने चेहरों पर लगाकर प्रसन्न होते हैं। बच्चे सबको दिखाते फिरते हैं। उसी प्रकार मनुष्यों ने भी अपने-अपने चेहरों पर मुखौटे लगा रखे हैं। वे लोग अपना असली चेहरा सबसे छुपाकर रखते हैं। संसार को अपनी असलियत से लोग दूर रखना चाहते हैं। कुछ हद तक वे इसमें सफल भी हो जाते हैं।
इन्सान मेकअप करके यदि अपने चेहरे को छुपाए, कुछ समय के लिए ठीक है। जब वह उस पुते हुए चेहरे को धोता है, तो उसके पश्चात उस मनुष्य का वास्तविक चेहरा सामने आ जाता है। परन्तु मुखौटा लगाने पर ऐसा नहीं होता। जब तक मनुष्य अपना मुखौटा नहीं हटाता, तब तक उसका असली चेहरा है, उस मुखौटे के पीछे छुपा रहता है। समस्या यहाँ यह है कि मनुष्य अपना मुखौटा हटाए।
पता नहीं अपनी वास्तविकता को प्रकट करने पर मनुष्य को डर क्यों लगता है? समझ नहीं आता कि वह अपना नकली चेहरा दिखाकर क्या साबित करना चाहता है? मनुष्य जैसा है, उसे वैसा ही दिखने में खुशी महसूस होनी चाहिए, पर ऐसा होता नहीं है। बड़े दुख की बात है कि सब लोग एक चेहरे के ऊपर न जाने कितने चेहरे लगाकर घूमते हैं। इससे उनका अपना ही अस्तित्व खो जाता है।
गरीब अमीर दिखना चाहता है। मूर्ख विद्वान होने का ढोंग करना चाहता है। कोई अपने को उच्च पद पर बताना चाहता है। कोई स्वयं को सर्वगुण सम्पन्न कहलाना चाहता है। कोई अपने को सबसे बड़ा भक्त दिखाना चाहता है। कोई कुछ प्रदर्शित करना चाहता तो कोई कुछ। वे नहीं सोचते कि जब कभी मुखौटा हट जाएगा और असली चेहरा सबके सामने आ जाएगा, तब स्थिति कैसी हो जाएगी।
मुखौटा लगाते-लगाते धीरे-धीरे यह स्थिति बन जाती है कि मनुष्य स्वयं ही अपना असली स्वरूप भूल जाता है। जब किसी समय वह अपने वास्तविक चेहरे को पहचानने का प्रयास करने लगता है। तब वह उसे नहीं मिल पाता। यदि गलती से उसे अपना असली चेहरा मिल जाए तो वह उसे पहचानकर सहज नहीं हो पाता। वह अपने ही वास्तविक स्वरूप को देखकर चौंक जाता है।
आज चाहकर भी मनुष्य को दुःख से छुटकारा नहीं मिल पा रहा। सुख मिलने पर भी वह जिन्दगी को हताशा के हवाले कर देता हैं। वास्तव में अस्तित्व को जीतने की कोशिश करते हुए ये मनुष्य परस्पर एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें आपस में कोई दुश्मनी है या फिर कोई स्पर्धा है। स्पर्धा वही व्यक्ति करता हैं जो बड़बोला है और अन्दर से कमजोर होता है।
स्वाभिमान में क्या होता है? मनुष्य के शरीर को कष्ट और बीमारी घेर लेती है, पर उसके अस्तित्व को कोई हानि नहीं पहुँचती। यहाँ एक बात ध्यान रखने योग्य है कि मनुष्य जैसा होगा, उसका अस्तित्व भी वैसा ही प्रतीत होगा। इस संसार में चारों ओर दर्पण हैं। मनुष्य चाहे तो उनमें अपना प्रतिबिम्ब देख सकता है। सबसे बड़ी समस्या यही है कि वह अपना असली चेहरा देखना ही नहीं चाहता।
ईश्वर को सरल, सहज स्वभाव वाले लोग पसन्द आते हैं। उसने किसी भी मनुष्य को नकली चेहरा देकर इस धरा पर नहीं भेजा। इसलिए उसे बनावटी लोग नहीं अच्छे लगते। वह स्वयं भी कृत्रिमता से दूर रहता है और चाहता है कि उसकी सन्तानें यानी मनुष्य किसी दूसरे के साथ छल-फरेब न करें। वे जैसे हैं, वैसे ही सबके साथ पेश आएँ। संसार के सभी लोग एक-दूसरे के साथ धोखा न करें।
चन्द्र प्रभा सूद
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