अपनों से बिछोह
अपने प्रियजन से बिछोह या वियोग हृदय की गहराई तक विदीर्ण कर देता है। अपनों का साथ एक सुखद अहसास करवाता है। उनसे बिछुड़ जाने की कल्पना मात्र से जी हलकान होने लगता है। मनुष्य को अपना परिवार, अपने बन्धु-बान्धव अपनी जान से भी प्यारे होते हैं। वह उनसे कुछ दिन की दूरी बनाने से ही परेशान हो जाता है, फिर उनसे सदा के लिए बिछुड़ जाने के विषय में वह सोच ही नहीं सकता।
मनुष्य को इस जीवन में धन-वैभव, सुख-समृद्धि, भाई-बन्धु, पति या पत्नी, सन्तान आदि जो भी मिलता है, वह ईश्वर का दिया हुआ उपहार ही होता है। मनुष्य को जो कुछ मिल जाता है, उस पर वह अपना एकाधिकार समझने लगता है। यानी वे उसकी पर्सनल प्रॉपर्टी हो जाते हैं। उन्हें वह किसी भी मूल्य पर अपने से अलग नहीं होने देना चाहता। फिर हमेशा के लिए खो देना, तो कभी भी नहीं।
सृष्टि का नियम है कि जिस जीव ने यहाँ जन्म लिया है, उसे अपने पूर्वजन्मों के कर्मफल स्वरूप प्राप्त अपनी आयु को भोगकर, इस असार संसार से विदा होना पड़ता है। फिर भी मनुष्य इस सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहता। उसके सभी सगे-सम्बन्धी और वह स्वयं सोचता है कि वह पट्टा लिखवाकर आया है। वह इस दुनिया से विदा नहीं होगा। पर ऐसा हो नहीं पाता है।
यह सृष्टि अपने नियम से चलती रहती है। जीव का आवागमन यहाँ होता ही रहता है। जो कुछ भी मनुष्य का है, वह ईश्वर का दिया हुआ। इस सत्य को अनदेखा करता हुआ मनुष्य अपनी कही जाने वाली कोई वस्तु उसे वापिस नहीं करना चाहता। वह अमानत में खयानत करना चाहता है। भौतिक जगत में यदि मनुष्य किसी से कोई वस्तु या धन आदि उधार स्वरूप लेता है, तो निश्चित अवधि के उपरान्त उसे वापिस करना पड़ता है।
ईश्वर की दी हुई किसी वस्तु को निश्चित अवधि के उपरान्त भी यह मनुष्य बिल्कुल लौटाना नहीं चाहता। उस समय मनुष्य अधीर हो जाता है। वह दुखी होता है रोता है, चिल्लाता रहता है। पर वह भूल जाता है कि नेमत भी तो उसी ने ही दी थी। सदा के लिए तो मालिक ने उसे वह नहीं सौंपी थी। कभी तो उसने उसे वापिस लेना ही था।
अपना कोई प्रिय जन जब हमसे बिछुड़कर यानी इस असार संसार को छोड़कर परलोक गमन करता है या ईश्वर की शरण में जाता है, तो वह वियोग किसी भी मनुष्य को असह्य पीड़ा दे जाता है। वह उसे जीवन पर्यन्त भूल नहीं सकता। उसे याद करके रोता रहता है, आहें भरता रहता है। यह मनुष्य की मजबूरी है कि उसे मृतक का दाह संस्कार करना पड़ता है, नहीं तो वह उसे मम्मी बनाकर अपने पास ही रख लेता।
वैसे तो मनुष्य सदा अपने मुख से यही कहता है-
मेरा मुझमें कुछ नहीं जो कुछ है सब तोर।
तेरा तुझको सौंपते क्या लागे है मोर।।
यानी मनुष्य कहता तो यही है कि है प्रभु! सब कुछ तुम्हारा है, मेरा कुछ भी नहीं है। तेरी वस्तु तुझे सौंपते हुए मेरा क्या लगता है?
यानी मनुष्य की कथनी और करनी में अन्तर होता है। वह कहता कुछ और हैं, पर करता कुछ और है।
मनुष्य सांसारिक लोगों के साथ तो छल-फरेब, दुराव-छिपाव कर सकता है, पर ईश्वर के साथ उसका यह व्यवहार नहीं चल सकता है। यहाँ तो सीधा सा गणित चलता है। जितना जिस बन्धु-बान्धव के साथ मनुष्य का लेन देन का सम्बन्ध होता है, उतना ही उनको साथ निभाना होता है। उसके उपरान्त यह जुदाई निश्चित होती है। मनुष्य के चाहने अथवा न चाहने से कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला।
यह संसार रिश्तों की मण्डी है। यहाँ रिश्ते अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार मिलते हैं। जो रिश्ता इस जन्म में साथ छोड़कर बिछुड़ गया, वह फिर किसी अन्य जन्म में, किसी न किसी रूप में मिल जाता है। बस हम उस समय यह सब समझ नहीं पाते। इस संसार में रहते हुए हम कुछ समय के लिए एक-दूसरे से दूर जाते हैं और फिर वापिस मिलते हैं, उसी प्रकार परलोक गमन करने पर भी होगा। इसलिए अपनों से वियोग को मनुष्य को यही सोचकर सहन करना चाहिए कि इस संसार में रहते हुए फिर किसी जन्म में और किसी रूप में हमारा मिलना सम्भव हो जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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