दृष्टिकोण की भिन्नता
प्रत्येक मनुष्य का अपना एक दृष्टिकोण या हर वस्तु को देखने का एक नजरिया होता है। प्रायः देखा यह जाता है कि समान वातावरण, परिस्थिति और अनुशासन में रहते हुए भी हर व्यक्ति के विचार तथा कार्य करने की प्रणाली में अन्तर बना रहता है। यह अन्तर उस व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता है। इससे ज्ञात होता है कि दृष्टिकोण की भिन्नता ही इस मानव जीवन की प्रमुख विशेषता है।
यदि सभी लोगों का दृष्टिकोण एक हो जाए तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी। सभी लोग एक ही तरह से सोचेंगे, एक ही तरह से कार्य करेंगे। उस समय सब कुछ कितना नीरस हो जाएगा? दृष्टिकोण की भिन्नता से ज्ञात होता है कि कोई मनुष्य जीवन को किस रूप में देखता है? वह मनुष्य अपने जीवन में दुखी क्यों है या सुखी क्यों है? वह अपने जीवन में क्या प्राप्त कर लेना चाहता है? इन सभी प्रश्नों का किसी के भी मन में उठना स्वाभाविक है।
इस दृष्टिकोण का आधार व्यक्ति के संस्कार होते हैं, जिन्हें वह जन्म के साथ से अपने साथ लाता है अथवा जिन्हें वह इस जीवन में शिक्षा और वातावरण से ग्रहण करता है। ये संस्कार भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति तथा सुख और दुख की अनुभूति का आधार होते हैं। दृष्टिकोण का विस्तार अध्ययन, मनन एवं स्वाध्याय से सम्भव हो सकता है। इसका विस्तार हर मनुष्य को समय-समय पर करते रहना चाहिए।
अपनी उदरपूर्ति, अपने वंश की वृद्धि अथवा अपने सभी भौतिक संसाधनों की प्राप्ति की कामना कभी भी जीवन के लक्ष्य नहीं कहे जा सकते। ये सब मनुष्य की आवश्यकताओं की श्रेणी में आते हैं। इनका उपयोग मनुष्य के जीवन निर्वाह करने के लिए होता है। इन्हें दृष्टिकोण का नाम नहीं दिया जा सकता, इन सबको प्राप्त करना उसकी प्राथमिकता होती है या फिर इसे उसकी मजबूरी भी का नाम भी दिया जा सकता है।
दृष्टिकोण के द्वारा ही मनुष्य के चिन्तन की प्राथमिकता निर्धारित की जाती है। जिस समय मनुष्य की जो आवश्यकता होती है, उसका चिन्तन होना चाहिए। व्यक्तिवादी सोच के कारण ही दृष्टिकोण का संकुचन होता है। हर व्यक्ति सुख की ऐसी परिभाषा गढ़ता है, जिसमें वही अकेला स्वयं को सुखी देखता है। सुखों में जरा भी कमी आ जाए, तो वह उसे सहन नहीं कर पाता।
मनुष्य का दृष्टिकोण उस समय व्यापक होता है, जब वह देश, धर्म, समाज के परिप्रेक्ष्य में देखता और सोचता है। जब मनुष्य केवल अपने या अपनों के विषय में विचार करता है, तब उसका दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। यानी स्व से पर की यह यात्रा उसके दृष्टिकोण पर निर्भर करती है। मनुष्य का लक्ष्य राष्ट्र की उन्नति, सुखी जीवन तथा प्रकृति की सेवा हो सकते हैं। इनमें उसका मन रमता चाहिए।
किसी से लेने की इच्छा दृष्टिकोण को हीन बनाती है। मनुष्य को सदा देते रहने की इच्छा करनी चाहिए, लेने की नहीं। दृष्टिकोण के प्रति चिन्तन और मनन करने से व्यक्ति में गुणों का उदय होने लगता है। उसे अपने जीवन में नए लक्ष्य दिखाई देते हैं। जब मनुष्य अपने शरीर और बुद्धि से परे मन की भूमिका पर विचार करने लगता है, तब उसे भावनात्मक धरातल का ज्ञान होने लगता है।
मनुष्य का यह दृष्टिकोण उसके परिवेश को प्रभावित करता है। यदि उसके विचार संकुचित हैं, तब उसका दृष्टिकोण भी संकीर्ण हो जाता है। उस समय उसे अपने, अपने परिवार या बन्धु-बान्धवों के अतिरिक्त और कोई नहीं दिखाई देता। जिन मनुष्यों का दृष्टिकोण विस्तृत होता है। उन्हें व्यष्टि के स्थान पर समष्टि की चिन्ता होती है। सभी अपने दिखाई देते हैं। वे सबके विषय में सोचते रहते हैं।
इस चर्चा का उद्देश्य मात्र यही है कि मनुष्य को अपने दृष्टिकोण को विशाल बनाना चाहिए, संकुचित नहीं। इसी में ही मानव जीवन की सार्थकता है। अपने विषय में तो हर कोई विचार कर लेता है। दूसरों के बारे में जो सोचे वही वास्तव में महान होता है। वास्तव में वही मनुष्य मानव कहलाने का अधिकारी है जो अपने दृष्टिकोण का दायरा विस्तृत करके सब जीवों को उसमें समा ले।
चन्द्र प्रभा सूद
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