हिन्दी दिवस पर विशेष
हिन्दी दिवस पर केवल भाषण देने या गोष्ठियाँ कर लेने से भाषा में कोई सुधार नहीं होने वाला। हिन्दी भाषा का दुर्भाग्य है कि उसके नाम पर केवल राजनीतिक रोटियाँ ही सेकी जाती है। वह अपने देश मे ही बेगानी हो रही है। हिन्दी पखवाड़ा मना लेने से उसका उद्धार नहीं होने वाला। उसके लिए सबको मिलकर ठोस कदम उठाने होंगे।
हिन्दी के नाम पर आज बस एक-दूसरे पर छींटाकशी चलती रहती है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि तथाकथित हिन्दी प्रेमी केवल भाषणों का आदान-प्रदान करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। उससे ही उनका हिन्दी प्रेम छलककर सबको सम्मोहित करने का प्रयास करता है।
यह सत्य है कि आज हिन्दी अपने ही देश में पराई हो रही है। उसकी इस स्थिति का श्रेय हम सभी भारतवासियों को जाता है जो बड़ी शान से कहते हैं कि हिन्दी बहुत कठिन भाषा है। इसीलिए बच्चों को भी इस भाषा मे कोई रुचि नहीं है। वे इस भाषा को गले मे पड़ी आफत की तरह देखते हैं। सोचते हैं कि कब इसको पढ़ने से पीछा छूटे।
तथाकथित सभ्य लोग केवल अपने ड्राइवर, माली, नौकर आदि से हिन्दी में बात करते है, वैसे हिन्दी बोलने में उनकी हेठी होती है। यह सब उनकी गुलाम मानसिकता का परिचायक है। वे अभी तक अंग्रेजों की दासता से उबर नहीं पा रहे।
चाहे हिन्दी प्रेमी हों अथवा टीवी- सिनेमा के कलाकार हों सभी हिन्दी से रोटी कमाते हैं, पर जब उनसे कुछ पूछा जाए तो उत्तर अंग्रेजी में देते हैं। ऐसा करके उनका सीना गर्व से फूल जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें शायद हिन्दी में बोलने में शर्म महसूस होती है। खाते हिन्दी से है और उसकी ही उपेक्षा करते है।
मैं देश की राजधानी दिल्ली की बात करना चाहती हूँ जहाँ हिन्दी के नाम पर छोटे-छोटे गुट बने हुए हैं। हिन्दी भाषियों में हो रही यह गुटबन्दी भाषा का भला नहीं कर रही बल्कि उसे नित्य हानि ही पहुँचा रही है।
तथाकथित साहित्यकार एक-दूसरे की पीठ सहलाकर ही महान रचनाकार कहलवाने का जुगाड़ कर रहे हैं। बिना ऐसी किसी महत्त्वपूर्ण रचना के लिखे ही सम्मान बाँटने अथवा बटोरने की होड़-सी मची हुई है। इनमें से बहुत से ऐसे लोग भी हैं जिन्हें भाषा को शुद्ध लिखना व बोलना तक भी नहीं आता।
आपको फेसबुक पर ऐसे उदाहरण आसानी से मिल जाएँगे जिनकी लिखी हुई दो-चार पंक्तियों में भी भाषागत अशुद्धियाँ मिल जाएँगी। ऐसे लोगों को वर्तनी अथवा व्याकरण से कोई लेना देना नहीं है परन्तु हाँ, उन्हें नित्य सम्मान भी मिल रहे हैं और वाहवाही भी।
मन को उस समय बहुत कष्ट होता है जब रचनाकारों की बिना स्वाध्याय के उथली रचनाएँ पढ़ने के लिए मिलती हैं। उस समय समझ में नहीं आता कि हम साहित्य में क्या योगदान कर रहे हैं? अपने आने वाली पीढ़ी को क्या ऐसा साहित्य थाती के रूप में सौंपेगे?
फेसबुक पर प्रायः हिन्दी प्रेमियों की ऐसी व्यथा कथा पढ़ने के लिए मिल जाती है। आज फेसबुक पर एक मित्र ने बड़े ही दुखी मन से पूछा है- 'क्या इस देश समाज में लेखक या कलाकार की कोई इज्जत नहीं होती?'
इस प्रश्न के उत्तर में मैंने उन्हें लिखा है- 'इज्जत कमाई जाती है। यदि लेखक और कलाकार इज्जत कमाना चाहते हैं तो एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना छोड़कर अपनी रचनाधर्मिता का निर्वहण करें। ऐसी रचनाएँ समाज को दें कि वह उनके समक्ष नतमस्तक हो जाए।'
कुछ लोगों को रातोंरात महाकवि बनने की शीघ्रता है। सबसे बड़ा मजाक यह हो रहा है कि कुछ महानुभाव अपने नाम से पूर्व कवि, कविराज अथवा महाकवि भी लिख रहे हैं। अरे मेरे भाई साहित्य प्रेमियों को निर्धारित करने दीजिए कि आप कितने पानी में हैं।
इतने वर्षों की अंग्रेजी दासता से राजतन्त्र मुक्त नहीं हो पा रहा। इसी का परिणाम है कि सभी कार्यालयीन कार्यों में अंग्रेजी भाषा को प्रश्रय मिला हुआ है। इसीलिए हिन्दी आज अपने देश और अपने लोगों के बीच तिरस्कृत हो रही है। यदि उसे भी राजाश्रय मिल जाता तो आज उसकी ऐसी दुर्दशा नहीं होती।
हिन्दी की हो रही दुर्दशा को हम सब मिलकर सुधार सकते हैं। यह किसी एक अकेले के बूते की बात नहीं है। अपनी भाषा को यथोचित स्थान दिलाने के लिए हम सबको साझा प्रयास करना होगा। अपने आपको स्वाध्यायशील बनाना होगा। जिससे जब कलम चले तो दूसरों को झकझोर कर रख दे और सबके हृदयों पर राज करे। हिन्दी भाषा पर हमें अपनी पकड़ इतनी मजबूत करनी होगी जिससे यह समृद्ध भाषा हमें गौरवान्वित कर सके। उस समय हम अपना मस्तक शान से उठाकर कह सकें-
' हम हिन्दुस्तानी हैं और हमारी मातृभाषा हिन्दी है। हमें अपने देश और अपनी भाषा पर गर्व है।'
चन्द्र प्रभा सूद
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