पहले स्वयं को बदलो
मनुष्य का बस चले तो वह सारी दुनिया को बदल डाले। उसे दुनिया के व्यवहार पसन्द नहीं आते। इस दुनिया के लोग उसकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते। वह जो चाहता है, लोग उसे करने नहीं देते। वह सबसे ही परेशान रहता है। ये कुछ कारण हैं, जो मनुष्य की उलझन का कारण बन जाते हैं। इन सबके कारण वह दुनिया को बदलने की कामना करता है। ईश्वर ने यह सामर्थ्य किसी मनुष्य को नहीं दी कि वह उसकी बनाई हुई इस दुनिया से छेड़छाड़ करके उसे बर्बाद कर सके।
कल्पना कीजिए कि किसी समय मनुष्य के पास ऐसी शक्ति आ जाए कि वह दुनिया को अपनी इच्छा के अनुसार बदल सके। वह जो भी कामना करें, तत्क्षण पूरी हो जाए। उस समय क्या होगा, इस बात की कल्पना करना भी बहुत कठिन कार्य हो जाएगा। हर व्यक्ति अपनी इच्छा से दुनिया को मोड़ने का प्रयास करेगा। सोचने वाली बात यह है कि दुनिया किसकी इच्छानुसार चलेगी?
एक व्यक्ति कहेगा मुझे पूर्व दिशा बड़ी लुभाती है, अतः सभी पूर्व की ओर चलो। दूसरा कहेगा मैंने पश्चिम दिशा की ओर जाना है, सब पश्चिम की ओर चलो। तीसरा कहेगा उत्तर दिशा मेरे लिए सदा ही भाग्यशाली रही, सब उत्तर की ओर चलो। चौथा कहेगा मुझे दक्षिण दिशा पसन्द है, इसलिए सब दक्षिण की ओर चलो। इस तरह तो सब बस घूमते रह जाएँगे। लोग कन्फ्यूज हो जाएँगे की वे किसकी बात माने और किसकी नहीं मानें।
इसी प्रकार एक व्यक्ति कहेगा कि उसे काला रंग पसन्द है, तो सभी काले वस्त्र पहनो। दूसरे को लाल रंग भाता है, तीसरे को हर रंग रुचता है, चौथे को नीला रंग, यानी हर व्यक्ति को अलग-अलग रंग अच्छा लगता है। उस समय दुनिया के सभी लोग किसका कहना मानेंगे और किसके कहे अनुसार तथाकथित रंग के वस्त्र पहनेंगे। यह तो एक बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी। इसका समाधान कौन करेगा?
अब इसी तरह खाने की वस्तुओं पर झगड़े होने लगेंगे। प्रकृति की विविधता पर भी प्रश्नचिह्न लगने लगेंगे। उस समय शक्तिशाली जीत जाएगा और बलहीन हर हाल में हारेगा। सर्वत्र ही अराजकता फैल जाएगी। चारों ओर मारकाट मच जाएगी। कल्पना में तो यह अच्छा लग सकता है, पर वास्तविकता के धरातल पर यह आधारहीन है। इसलिए ईश्वर ने मनुष्य के अधीन कुछ नहीं रखा। मनुष्य संसार में केवल अपना कर्म कर सकता है, और कुछ नहीं।
मनुष्य के वश में संसार अथवा सृष्टि को बदलना नहीं है। इसलिए उसे स्वयं को ही बदल लेना चाहिए, इसी में ही उसकी भलाई छिपी है। उसे यदि दूसरे का व्यवहार पसन्द नहीं आता, तो पहले अपने गिरेबान में झाँककर देखे। हो सकता है उसका स्वयं का आचरण ही दोषपूर्ण हो, जिसके कारण लोग उससे दूरी बनाकर रहते हों। इस संसार में सर्वगुण सम्पन्न कोई मनुष्य नहीं हो सकता।
मनुष्य गलतियों का पुतला है यानी गलती करना उसका स्वभाव है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह अनवरत गलतियाँ ही करता रहे और दोष दूसरों पर मड़ता रहे। मनुष्य को सदा अपने विवेक से चिन्तन करना चाहिए। स्वयं को सुधारने का प्रयास करते रहना चाहिए। उसका व्यवहार इतना सन्तुलित तो होना ही चाहिए कि उसके पास बैठने वाले को उससे वितृष्णा न होने पाए।
मनुष्य को अपने दोषों को देखना चाहिए, दूसरों के नहीं। यदि मनुष्य अपने दोष गिनने लगे, तो उसे लगेगा कि उसके बराबर दोष और किसी में नहीं हैं। अपने अन्तस् में खोज करते रहना चाहिए। दूसरों के दोषों को अनदेखा करके उनके गुणों को पहचानते हुए, उनके साथ व्यवहार करना चाहिए। जहाँ तक हो सके अपने दोषों को दूर करना चाहिए। यही सकारात्मक उपाय कहलाता है।
मनुष्य को पहले स्वयं को सुधारना चाहिए। तभी उसकी कही हुई किसी बात का प्रभाव सामने वाले पर पड़ता है। जब मनुष्य अपने मन में संकल्प कर लेता है कि वह अपने दोषों को दूर करके चैन लेगा। तब वह मानव से ऊपर उठकर महामानव बन जाता है। तब उसकी कही गई बात को दूसरे लोग महत्त्व देते हैं। उस समय वह इन्सान समाज को दिशा देने के योग्य बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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