सोमवार, 14 सितंबर 2020

सन्तुष्ट मन

 सन्तुष्ट मन

मन का सन्तुष्ट होना बहुत आवश्यक होता है अन्यथा यह बहुत ही परेशान करता है, नाच नचाता है। सबसे बड़ी समस्या यही है कि यह बहुत कठिनता से सन्तुष्ट होता है। सारा समय यह स्वयं इधर-उधर भटकता रहता है और मनुष्य को भी चैन से बैठने नहीं देता। यह उसे बस किसी न किसी कारण से उद्वेलित करता रहता है। मन यदि सन्तुष्ट होकर शान्ति से टिक जाए, तो मनुष्य को भटकने की आवश्यकता ही नहीं रहती।
           'श्री भागवत पुराण' में महर्षि वेद व्यास ने इस मन के विषय में बहुत सत्य कहा गया है-
        अकिञ्चनस्य दान्तस्य 
                शान्तस्य समचेतसः।
          सदा सन्तुष्टमानसः 
                सर्वाः सुखमया दिशाः॥
अर्थात् कुछ न रखने वाले, नियन्त्रित करने वाले, शान्त, समान चित्त वाले, सदा सन्तुष्ट मन वाले मनुष्य के लिए सभी दिशाएँ सुखमय होती हैं।
           इस श्लोक में वेद व्यास जी के कहने का तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति का मन सन्तुष्ट हो जाता है, उसके लिए सभी दिशाएँ स्वत: सुखदायी हो जाती हैं। यानी मनुष्य किसी भी स्थान पर रहे, उसे सन्तोष रूपी धन मिल जाता है। उसे यहाँ वहाँ कहीं भी भटकना नहीं पड़ता। किसी ऋषि-मुनि के पास जाकर उसे अपने मन की शान्ति पाने का मन्त्र देने के लिए प्रार्थना भी नहीं करनी पड़ती।
            निम्न श्लोक में कवि शान्त मन वालों के लिए कह रहा है-
          सन्तोषामृततृप्तानां 
               यत्सुखं शान्तचेतसाम्।
           कुतस्तद्धनलुब्धानां 
                एतश्चेतश्च  धावताम्॥
अर्थात् सन्तोष रूपी अमृत से तृप्त शान्त मन वालों का सुख उन लोभियों को कैसे मिल सकता है, जो धन के पीछे अचेत होकर भागते फिरते हैं।
          इस श्लोक में कवि समझाना चाहते हैं कि जो मनुष्य लोभ के जल में फँसे हुए हैं, वे सदा बेसुध होकर धन के पीछे भागते रहते हैं। उन्हें दिन-दुनिया की कोई सुध नहीं रहती। वे सदा बस 'हाय पैसा, हाय पैसा' का मन्त्र जपते रहते हैं। यह पैसा है कि किसी के हाथ नहीं आता। सबको अँगूठा दिखाता हुआ यह बस इधर से उधर भागता फिरता है। किसी के साथ अपनी वफादारी नहीं निभाता।
          कवि ने सन्तोष को अमृत बताया है। जिस मनुष्य के मन ने इस अमृत का पान कर लिया वह स्वयं ही सुख से रहता है और मनुष्य को भी सुख से रहने देता है। यह सुख धन के पीछे पागल होने वालों को कदापि नहीं मिल सकता। समान चित्त वाले द्वन्द्व को सहने वाले होते हैं। मन को अपने नियन्त्रण में करने वाले मनुष्यों के इशारों पर यह नासमझ छोटे बच्चे की तरह शान्ति से चलता है। 
         मनुष्य का मन बहुत चञ्चल है। यदि इसे वश में करने की कला मनुष्य सीख ले, तो उसका जीवन तर जाता है। अन्यथा इस मन के फेर में फँसे लोग बाहर निकलने के लिए छटपटाते रहते हैं। इस मन के चंगुल से बचकर निकल पाना कोई सरल कार्य नहीं है। सारा जीवन मनुष्य का यह जीवन भटकता ही रहता है। दुर्भाग्य से उसे इस आसार संसार में कहीं भी ठौर नहीं मिल पाती।
          मनुष्य के मन को जब सन्तोष रूपी धन मिल जाता है, तो बाकी सारे धन उसके लिए व्यर्थ हो जाते हैं। ऐसा मनस्वी पुरुष सहज ही सुख-शान्ति प्राप्त कर लेता है। तब उसे मन्दिरों, तीर्थस्थानों, तथाकथित धर्म गुरुओं, तान्त्रिकों या मन्त्रिकों के पास व्यर्थ ही भटकना नहीं पड़ता। जिसे घर बैठे सन्तोष मिल जाए उसका जीवन सफल हो जाता है। उसने मानो इस दुनिया पर विजय प्राप्त कर ली।
         जहाँ तक हो सके मनुष्य को अपने इस मन का गुलाम नहीं बनना चाहिए। यदि ऐसा हो जाए तो वह स्वामी की तरह आदेश देकर उसकी नाक में दम कर देता है। अतः यथासम्भव इसे अपने वश में कर लेना चाहिए। इससे यह मन मनुष्य पर अपनी हकूमत नहीं चल सकता, बल्कि तब मनुष्य की इच्छा के अनुसार चुपचाप सिर झुकाए अच्छे बच्चे की तरह उसके पीछे-पीछे चलता रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद

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