रविवार, 27 सितंबर 2020

अपनी उन्नति

अपनी उन्नति 

अपनी उन्नति चाहने वाले मनुष्यों को सदा लक्ष्मी, कीर्ति, विद्या और बुद्धि के विषय में चर्चा करते रहना चाहिए।  निम्न श्लोक में कवि ने इनके विषय में बताया है कि ये किसका अनुसरण करती हैं-
       सत्यानुसारिणी लक्ष्मीः 
               कीर्तिस्त्यागानुसारिणी।
       अभ्याससारिणी विद्या 
               बुद्धिः कर्मानुसारिणी॥
अर्थात् लक्ष्मी सत्य का अनुसरण करती है, कीर्ति त्याग का अनुसरण करती है, विद्या अभ्यास का अनुसरण करती है और बुद्धि कर्म का अनुसरण करती है।
          लक्ष्मी सदा सत्य का अनुसरण करती है। उसे सत्य का साथ चाहिए होता है, झूठ का कभी नहीं। धन-दौलत कभी एक स्थान पर नहीं टिकते। आज यह किसी एक के पास है, तो हो सकता है कल उसे अँगूठा दिखाकर दूसरे के पास चली जाए। यानी आज धन-वैभव राजा के पास है, तो कल रंक के पास चला जाएगा। इसलिए कबीरदास जी ने कहा है-
        माया को महा ठगिनी हम जानी।
यानी लक्ष्मी बहुत धोखा देने वाली है। कहने का तात्पर्य यह है कि यह किसी की भी सगी नहीं है। यह अपने साथ कई बुराइयों को लेकर आती है। जब मनुष्य के पास इसकी अधिकता हो जाती है, तब उसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ जाता है। उस समय वह सारी दुनिया को आग लगा देने और देख लेने की बात करता है।
           कीर्ति त्याग का अनुसरण करती है यानी देश, धर्म, घर-परिवार और समाज के प्रति त्याग करने वालों को यश मिलता है।पैसे और सत्ता के पीछे कीर्ति कभी नहीं भागती। परोपकारी लोग पीछे-पीछे चलते हैं और उनकी कीर्ति उनके आगे-आगे चलती है। यही इसकी विशेषता कही जाती है। कीर्ति पाकर जो लोग अहंकारी हो जाते हैं, वह उन्हें कदापि पसन्द नहीं करती। वह उनसे नाराज हो जाती है। तब उनकी कीर्ति अपयश में परिवर्तित हो जाती है।
          विद्या जितनी भी पढ़ लो, उसका अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास के बिना पता नहीं चलता कि कुछ समझ में आया अथवा नहीं। इसीलिए स्कूल या कालेज में पढ़ाने के उपरान्त बच्चों की परीक्षा ली जाती है। उससे पता चलता है कि विद्यार्थी कितने पानी में है। तभी मनीषी कहते हैं- 'अनभ्यासे विषं  विद्या।' अर्थात् यदि विद्या का अभ्यास न किया जाए, तो वह विष के समान हो जाती है।
           विद्या की परीक्षा लेते रहने से मनुष्य को ज्ञात होता रहता है कि उसने जो पढ़ा था, उसे कितना आत्मसात कर पाया है। वह ज्ञान उन चार विद्वान ब्राह्मणों को शेर का शिकार बना देता है, जो केवल ज्ञानार्जन करते हैं। कभी उसका अभ्यास नहीं करते। वह पुस्तकीय ज्ञान मनुष्य के किसी काम का नहीं होता जो समय आने पर उसका साथ न दे सके। उसे सहारा न बन सके। 
           बुद्धि कर्मानुसार प्रेरणा लेती है। उस पर हमेशा कर्म का अंकुश रहता है। बहुत बार हम देखते है कि मनुष्य अपेक्षा से विपरीत बर्ताव करने लगता है। हमें आश्चर्य होता है कि हमेशा विशिष्ट तरह व्यवहार करने वाला मनुष्य को अचानक ही क्या हो गया जो ऐसा बर्ताव कर रहा है। उसे उस प्रकार का व्यवहार करते हुए देखकर लोग कहते हैं -
        विनाशकाले विपरीत बुद्धि:। 
अर्थात् जब मनुष्य के विनाश का समय आता है, तब उसकी बुद्धि विपरीत आचरण करने लगती है।
          यहाँ वास्तव में कर्मफल सिद्धान्त ही लागू होता है । यह सत्य है कि हर एक व्यक्ति अपनी बुद्धि का उपयोग करने के लिए स्वतन्त्र है। परन्तु इस बात की कोई गारण्टी नहीं होती कि बुद्धि सदा ही  उचित निर्णय लेगी। यदि निर्णय उचित होगा, तो मनुष्य सफलता की ऊँचाई छू लेगा। यदि निर्णय में चूक हो गई तो मनुष्य को पटकनी अवश्य मिलती है। उसे धराशायी होने से कोई नहीं रोक सकता।
          श्लोक में कही गई बातों पर मनन करने से मनुष्य को निश्चित ही ज्ञान होता है। वह लक्ष्मी के व्यवहार को समझता हुआ धनार्जन तो करता है। कीर्ति को अपनी ही गलतियों से अपकीर्ति में परिवर्तित नहीं करता। विद्याध्ययन करके उसे कसौटी पर परखता रहता है। अपने ज्ञान का सदुपयोग करता है। अपनी बुद्धि को सदा उपयोगी कार्यों में लगता है। इस प्रकार करता हुआ मनुष्य निरन्तर उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है।
चन्द्र प्रभा सूद

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें