गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

क्रोध

अपने अंतस में विराजमान शत्रुओं से हमारी गहरी छनती है। उनको पुष्ट करने में हम इतने मस्त रहते हैं कि सारी दुनिया को आग लगाने को तैयार रहते हैं। मैं और मेरा अहम दोनों ही बस तुष्ट होते रहें बाकी किसी से कोई मतलब हम नहीं रखना चाहते। हालांकि यह स्थिति बड़ी विकट है। हमें यथासंभव इससे बचना चाहिए।
      इन शत्रुओं में क्रोध प्रमुख है। इसके बारे में शास्त्र कहता है-
क्रोधो मूलमनर्थानां क्रोध: संसारबन्धनम्।
धर्मक्षयकर: क्रोध: तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत्॥
        अर्थात् क्रोध सभी बुराइयों की जड़ है। संसार में बंधन कारण है, धर्म का नाश करने वाला है। इसलिए इसका त्याग करना चाहिए।
       क्रोध हमारा बहुत बड़ा शत्रु है। यह विवेक यानी हमारी सोचने-समझने की शक्ति को नष्ट करता है। हम आम भाषा में कहते हैं कि क्रोध में इंसान पागल हो जाता है। ऐसे क्रोधी को कोई भी पसंद नहीं करता। सभी उससे किनारा करने में ही अपनी भलाई मानते हैं।
         महर्षि परशुराम इतने विद्वान व शक्तिशाली थे परंतु फिर भी उन्हें समाज में यथोचित स्थान नहीं मिला। इतने वर्ष वे संघर्ष करते रहे महर्षि वसिष्ठ से महर्षि शब्द सुनने के लिए।
       जितना अधिक इस शत्रु को गले लगाएँगे उतना ही घर, परिवार, मित्रों व समाज से कटते जाएँगे। सामने मुँह पर हमारे लिए शायद कोई भी प्रतिक्रिया न करे पर पीठ पीछे हमारा उपहास करेंगे।
        ऐसे लोगों के साथ दोस्ती स्वार्थ के कारण होती है। जब तक स्वार्थों की पूर्ति होती रहती है तब तक मित्रता बनी रहती है। उसके बाद सब अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं। और तो और उनके परिवार जन भी उनकी इस आदत से परेशान रहते हैं। वे इसी यत्न में लगे रहते हैं कि किसी भी प्रकार से उनका यह क्रोधी स्वभाव शांत स्वभाव में बदल जाए।
       क्रोधी व्यक्ति को यह ज्ञात ही नहीं होता कि वह अपना स्वयं का बहुत नुकसान करता है यानि कि अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मारता है। ज्यादा क्रोध करने से मन अशांत होता है व बेचैनी रहती है। मनुष्य अतिक्रोध की स्थिति में आपा खो देता है। बड़े-बजुर्ग कहा करते थे कि गुस्सा करने से इंसान का खून जलता है।
        मन अशांत होगा तो पक्की बात है तन भी अस्वस्थ होगा। तन और मन के रोगी होने से हानि ही होगी। क्रोध करने वाले से जब लोग किनारा करते हैं तो वह इसे सहन नहीं कर पाता। ऐसे हालत में मनुष्य मानसिक संतुलन तक खोने लगता है।
        व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहता है या सबसे कटकर रहना चाहता है। हालांकि अपनी आदतों को बदलना या छोड़ना बहुत मुश्किल होता है। पर यदि मनुष्य दृढ़ संकल्प करे तो कुछ भी असंभव नहीं। थोड़े से अभ्यास से इस पर काबू पाया जा सकता है और अपने व अपनों से दूरी बनाने से बचा जा सकता है।

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