मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

मौन

मौन की अपनी एक भाषा होती है। यह मनुष्य का एक बहुत बड़ा गुण है और मुखरता अवगुण। यदि मनुष्य संकेतों से बात करे और मौन को अपना ले तो बहुत से विवाद स्वयं ही समाप्त हो जाएँगे। हमारे बड़े-बजुर्गों ने ये कहावते कही हैं-
  एक चुप सौ सुख और एक चुप सौ को हराए।
चुप रहकर अनेकों समस्याओं को आसानी से सुलझाया जा सकता है।
          हमारे मुँह में विद्यमान जीभ कहने को चाहे कितनी ही लचीली है या कठोरता से रहित है पर उसके द्वारा दिया गया घाव बहुत गहरा वार करता है। सुनने वाला बाण के प्रहार से भी अधिक घायल हो जाता है। अन्य घाव तो भर जाते हैं पर वाणी का घाव भरना नामुमकिन तो नहीं पर कठिनता से अवश्य भरता है।
        यही वाणी राज भी कराती है और बरबाद भी करती है। इतिहास साक्षी है ऐसे नष्ट होते साम्राज्यों का। हम यदि अब महाभारत का युद्ध ही देखें तो वह द्रौपदी के कड़वे वचन बोलने से हुआ जिसे रोका जा सकता था। उसका दुष्परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं। उस समय विद्वान बड़ी संख्या में न मारे जाते तो अनेकों कुप्रथाएँ व रूढ़ियाँ हमारे देश में डेरा न जमातीं। दुर्योधन की स्थिति देखकर यदि द्रौपदी मौन रह जाती तो देश बरबादी की ओर न जाता।
       घर-परिवार में भी कलह-क्लेश का कारण भी अनर्गल प्रलाप ही होता है। सभी  लोग मिलजुलकर यदि प्यार से रहें और एक-दूसरे की गलतियों को नजरअंदाज कर मौन रह जाएँ तो निश्चित ही हमेशा पारिवारिक सामंजस्य बना रहता है। गुरू नानक जी कहते हैं-
    एक ने आखी दूजे ने मानी नानक आखे दौवें ग्यानी।
इसका अर्थ है एक-दूसरे की बात यदि बिना हील-हुज्जत के मान लें तो कहने व सुनने वाले दोनों ही समझदार कहलाएँगे। यह स्थिति तभी बनेगी जब हम एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करेंगे तो व्यर्थ विवाद नहीं करेंगे।
      
हो सकता है चुप रहने वाले को आम लोग डरपोक या दब्बू कहकर अपमानित करने का यत्न करें परन्तु वे इसकी शक्ति से अपरिचित नादान कहे जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त घर-परिवार में भी उन्हें यह कह कर नकार दिया जाए कि इसे तो कुछ कहना नहीं होता।पर वह कुछ न कहना व्यर्थ की बकवाद से तो कहीं बेहतर है। सभी लोग यह तो अवश्य कहकर उनकी प्रशंसा करेंगे कि अमुक व्यक्ति फालतू नहीं बोलता पर पते की बात करता है।
        हमारे ऋषि-मुनि कठोर तप किया करते थे। मौनव्रत भी धारण करते थे। कई-कई दिनों, महीनों या वर्षों तक मौन संसार से दूर साधना में लीन रहते थे। इसे एकांत साधना कहते हैं।
     यह सत्य हैं कि जो मौन की साधना जो करता है उसे सिद्धि प्राप्त होती है। उसकी वाणी में इतनी शक्ति आ जाती है कि उसके मुँह से निकला हर वाक्य ब्रह्मवाक्य बन जाता है अर्थात् सत्य हो जाता है। मौन को अपनाने से मनुष्य की आत्मिक शक्ति की वृद्धि होती है।
        यह आवश्यक नहीं कि हम घरबार छोड़कर संयासी बन जाएँ और जंगलों के एकांत में मौन साधना करें। घर में रहते हुए अपने दैनंदिन कार्य करते हुए भी हम मौन साधना कर सकते हैं।
        मौन हर स्थिति में लाभदायक होता है। इसे अपनाकर मनुष्य कभी भी दुखी नहीं हो सकता। अपने आप को और अपनों को सुख-शांति प्रदान करने का यह अचूक रामबाण उपाय है। अनेकों विवाद या तो होंगे ही नहीं या फिर स्वतः समाप्त हो जाएँगे।

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