मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

विद्या

विद्या मनुष्य को विवेक शक्ति देती है। हमें उचित-अनुचित का ज्ञान करवाती है।विद्वान  जानते हैं कि ज्ञान के बिना मानव जीवन व्यर्थ है। इसीलिए सभी को विद्या ग्रहण करके अपना जीवन संवारने के लिए प्रेरित करते हैं। विद्या के महत्त्व को पहचान कर  हमारे ग्रंथ माता-पिता को चेतावनी देते हुए समझाते हैं-
माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पाठित:।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा॥
         इस श्लोक का अर्थ है कि वे माता या पिता शत्रु हैं जिन्होंने अपने बच्चे को नहीं पढ़ाया। वह बच्चा सभा में उसी तरह सुशोभित नहीं होता जैसे हंसों के बीच बगुले का मान नहीं होता।
        यह श्लोक विद्या अध्ययन पर बल देता है। आज इक्कीसवीं सदी में भी बहुत से ऐसे बच्चे हैं जो विद्यालय जाने में अपनी मजबूरियों के कारण असमर्थ हैं या उनके माता-पिता अपनी बेबसी के चलते उन्हें बच्चों को पढ़ने के लिए नहीं भेज पाते जो देश के भावी कर्णधार हैं। हम आने वाली पीढ़ी की ओर बड़ी आशा से देखते हैं।
        परंतु कुछ बच्चे कुसंग में पड़कर पढ़ने से जी चुराते हैं व स्कूल नहीं जाते। ऐसे ही लोगों के विषय में भर्तृहरि का कथन है कि विद्या से रहित मनुष्य पशु के समान है-
         विद्याविहीन: पशुभि: समान:।
पशु और मनुष्य में केवल बुद्धि का अंतर है। सोना-जागना, खाना-पीना, लड़ाई-झगड़ा और संतानोत्पत्ति आदि कार्य तो सभी जीव कर लेते हैं।
       विवेक बुद्धि मनुष्य को अन्य जीवों से अलग करती है। इसीलिए वह अपनी बुद्धि के बल पर वह शेर जैसे खूंखार पशु को वश में कर लेता है। आकाश की ऊँचाइयों को छूने का हौंसला रखता है। समुद्र की गहराई में पैठकर मोती निकाल कर ले आता है। जीवन के ऐशो-आराम के लिए उसने तरह-तरह के सभी प्रकार के अविष्कार किए।
विद्या मनुष्य को सब कुछ देती है। कवि ने बहुत सुन्दर शब्दों में कहा है-
विद्या ददाति विनयं विनयात् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं तत: सुखम्॥
     यह श्लोक कहता है कि विद्या विनम्रता देती है, विनय से व्यक्ति योग्य बनता है, योग्यता से धन कमाता है और फिर जब धन से अपनी दैनंदिन आवश्यकताओं को पूरा करके, दान आदि देकर इहलोक व परलोक सुधारने के मानसिक संतोष से  सुख प्राप्त करता है। कहने का यह तात्पर्य है कि विद्या से मनुष्य जो भी प्राप्त करना चाहता है पा लेता है।
      विद्या दो प्रकार की होती है- परा और अपरा। जो विद्या परलोक, आत्मज्ञान आदि का ज्ञान दे वह परा विद्या कही जाती है।
      इस लोक का ज्ञान देती है वह अपरा कहलाती है। इस संसार में रहते हुए जो भी शिक्षा ग्रहण करते हैं वह हमारा यह लोक सुधारती है व लोगों का सिरमौर बना देती है।
        कहते हैं  ज्ञान या विद्या जन्म-जन्मातरों तक हमारे साथ रहती है। इस शरीर को छोड़ने के बाद भी अन्य भौतिक पदार्थों की भांति नष्ट नहीं होती। पूर्व जन्म के ज्ञान के साथ जुड़कर बढ़ती रहती है।
        हम अपने आसपास देखते हैं कि कुछ लोग अल्प श्रम से बहुत कुछ प्राप्त कर लेते हैं उन्हें हम God gifted कहते हैं। और कुछ ऐसे भी लोग हैं जो बहुत मेहनत करके सारा जीवन यूँ ही बिता देते हैं उन्हें हम भाग्यहीन कह देते हैं।
       ऋषि हमें समझाते हुए कहते हैं-
'या विद्या या विमुक्तये'
अर्थात् जो विद्या हमें इस संसार के बंधनों से मुक्त करवाए वास्तव में वही विद्या है। उसे हमें यत्नपूर्वक प्राप्त करके लोक-परलोक सुधारना चाहिए।

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