मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

सदा बुद्ध

धी(सद् बुद्धि) का वरदान मनुष्य को ईश्वर ने विशेष रूप से दिया है जो सृष्टि के अन्य जीवों से उसे अलग करता है। इसके बल पर मनुष्य इस ब्रह्माण्ड में अपना स्थान बनाता है।
    पशु और मनुष्य में केवल बुद्धि का अंतर है। सोना-जागना, खाना-पीना, लड़ाई-झगड़ा करना और संतानोत्पत्ति करना आदि सभी कार्य तो मनुष्य के अतिरिक्त अन्य सभी जीव भी कर लेते हैं।
     बुद्धि से रहित मनुष्य को पशु कहते हैं। हालांकि कहने को ही वे पशु होते हैं सचमुच के पशु नहीं बन जाते। जैसे पशुओं या मूर्खों की भाँति व्यवहार करने वालों को हम शेर, गाय, घोड़ा, गधा, उल्लू, तोता, मेंढक, सांप आदि कह देते हैं।
       विवेक बुद्धि मनुष्य को अन्य जीवों से अलग करती है। इसीलिए वह अपनी बुद्धि के बल पर वह शेर जैसे खूंखार और हाथी जैसे बलशाली पशुओं को वश में कर लेता है। आकाश की ऊँचाइयों को छूने का हौंसला रखता है। समुद्र की गहराई में पैठकर मोती निकाल कर ले आता है। हम सबके जीवन के ऐशो-आराम के लिए उसने तरह-तरह के सभी प्रकार के अविष्कार किए।
         सद् बुद्धि मनुष्य को कुमार्ग की ओर जाने से रोकती है। कुमार्ग की ओर जाने वाले मनुष्य से सभी किनारा कर लेते हैं । इसका कारण है कि कोई भी अनावश्यक रूप से बुरा कहलाकर समाज में हँसी का पात्र नहीं बनना चाहता। एक उदाहरण देखिए। एक शराबी यदि शराब के पात्र में दूध लेकर जा रहा हो तो लोग यही समझेंगे कि शराब लेजा रहा है। इस बात का कोई विश्वास ही नहीं करेगा कि वह दूध लेकर जा रहा है।
       इसके विपरीत एक सज्जन दूध के पात्र में शराब लेकर भी जा रहा तो लोग समझेंगे दूध ही ले जा रहा है। इसका कारण उसकी साफ-सुथरी छवि है। यही अंतर होता है दोनों के प्रति समाज की सोच का। इस सोच को हम कभी भी नहीं बदल सकते।
यदि हम अपनी सद् बुद्धि के अनुसार चलेंगे तो हम गलत रास्ते पर कभी नहीं जाएँगे। बुद्धि हमारे शरीर रूपी रथ का सारथी है जो सभी इन्द्रिय रूपी घोड़ों को मन रूपी चाबुक से साधती है। बुद्धि के इस प्रकार नियंत्रण से हमारे शरीर में विद्यमान यात्री आत्मा अपने गंतव्य तक पहुँच सकती है। अन्यथा सभी इन्द्रियाँ बेलगाम घोड़ों की तरह इधर-उधर विषय-वासनाओं में फँस जाएँगी और हमारी आत्मा अपने लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकेगी। इस प्रकार वह आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं हो सकेगी।
        बुद्धि हमें ज्ञाता और ज्ञेय का भेद स्पष्ट कराती है। स्मृति का आधार भी हमारी बुद्धि ही है। विद्वानों की बुद्धि निश्चयात्मक होती है जिससे वे सोच-समझकर अपने कार्यों का निष्पादन करते हुए सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं। इसके विपरीत अनिश्चयात्मक बुद्धि वाले लोग करणीय व अकरणीय कार्यों का अंतर नहीं कर पाते तभी वे जीवन की रेस में पिछड़ जाते हैं। हमें समझ-बूझकर यह निश्चय करना है कि हम किस ओर जाएँ?
       इसी लिए बार-बार हम ईश्वर से सद् बुद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं ताकि हम सन्मार्ग पर चलकर इस संसार में अपने आने के उद्देश्य को सफल कर सकें और चौरासी लाख योनियों व जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो सकें।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें