शनिवार, 20 दिसंबर 2014

धर्मान्तरण

धर्मांतरण का मुद्दा आजकल बहुत गरमाया हुआ है। इस विषय पर समाचार पत्र भरे होते हैं और टीवी पर नित्य प्रति चर्चाएँ हो रही हैं। सोचने की बात यह है कि आखिर यह धर्मांतरण किस चिड़िया का नाम है जिसने सभी धर्मगुरुओं को हिला कर रख दिया है।
        एक धर्म को मानने वाले जब अपना धर्म छोड़कर किसी दूसरे धर्म में परिवर्तित हो जाते हैं तब उसे हम धर्मांतरण कहते हैं। धर्म परिवर्तन के कई कारण होते हैं। कभी-कभी किसी धर्म विशेष के धर्मावलम्बी शक्तिशाली होते हैं जो दूसरे धर्म के कमजोर या असहाय लोगों को डरा-धमकाकर अपने वश में करने के लिए उनके धर्म को बदलने के लिए जबरदस्ती करते हैं। उन्हें या उनके परिवार जनों को जान से मार देने की धमकी देकर धर्म बदलवाते हैं। ऐसे उदाहरण इतिहास में बहुतायत से मिल जाते हैं।
          एक धर्म के लोग अपने पैसे के बल पर निर्धन लोगों को पैसा, नौकरी आदि का या कोई अन्य लालच देते हैं। अपनी मजबूरियों के कारण वे अपने धर्म को छोड़ दूसरे धर्म को अपना लेते हैं।
       ऐसा भी होता है कि अपने धर्म के प्रति विद्वेष के कारण लोगों को जो धर्म पसंद आ जाता है उसे प्रसन्नता से अपनाते हैं। वैसे ऐसा कम ही होता है।
    स्वयं अपनी इच्छा से भी कभीकभार लोग धर्म परिवर्तन करते हैं। एक-दूसरे धर्म में जब जीवन साथी ढूँढ लेते हैं तब धर्मेतर विवाह संबंध बनाने के कारण अपना धर्म छोड़ कर स्वेच्छा से दूसरे साथी का धर्म अपना लेते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि एक-दूसरे के धर्म का सम्मान करते हुए विवाह अवश्य किए जाएँ पर दोनों पति-पत्नी अपने-अपने धर्म की अनुपालना करते हुए, बिना धर्म परिवर्तन किए प्रसन्नता पूर्वक जीवन बिताएँ।
       अपने धर्म में रहते हुए उसे छोड़ना बहुत मुश्किल होता है। अपने रीति-रिवाजों को त्यागना और भी असंभव-सा होता है। आज तक यह समझ नहीं आया कि वो कौन सी ऐसी मजबूरी होती है जिसके कारण लोग अपने धर्म को छोड़कर दूसरे धर्म को अपना लेते हैं।
      अपनी मान्यताओं को तिलांजलि देने की सोच गले नहीं उतरती। जो संस्कार हमारी जड़ों में गहरी पैठ बना चुके हैं उन्हें उखाड़ फैंकना किसी के लिए भी सरल नहीं होता।
        विचारणीय यह है कि धर्म परवर्तन कर लेने से क्या अपने संस्कार या अपनी मान्यताएँ छोड़ना इतना सरल है? वे लोग अपने संस्कार या मान्यताएँ छोड़ नहीं पाते और नये सिरे से सब मन से अपना नहीं पाते। इस कारण दुविधा में रहते हैं। तब उनके लिए पश्चाताप करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचता।
         जितने प्रलोभन या वादे लोगों को धर्म बदलवाने के लिए दिए जाते हैं वास्तव में  उन्हें पूरा नहीं किया जाता। वास्तविकता का सामना होने पर वे समझ जाते हैं कि उनका धर्म परिवर्तन महज उनके साथ धोखा है। तो वही स्थिति होती है- अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत। इसीलिए कहा है कि-
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मे भयावहः।
अर्थात् अपने धर्म में मरना श्रेयस्कर होता है दूसरे धर्म में भयावह होता है।
        इसलिए अपना धर्म कैसा भी हो वही श्रेष्ठ होता है। दूसरे का धर्म अपनाना सबसे बड़ी मूर्खता है। अत: अपने धर्म में रहते हुए कितनी भी कठिनाइयों का सामना क्यों न करना पड़े अपने धर्म में ही अंगद की तरह पाँव जमाकर रहना चाहिए।

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