रविवार, 7 दिसंबर 2014

स्त्री पर व्यंग्य

स्त्री पर व्यंग्य करना या उसका मजाक बनाना पुरुष मानसिकता है। प्राय: पुरुषों का तकिया कलाम है कि वे तो पत्नी से बड़ा डरते हैं या घर जाते ही उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है आदि-आदि। उसे न जाने किन-किन नामों से उसे संबोधित कर अपने अहम की तुष्टि करते हैं। दिखावा या छलावा करना उनकी फितरत में शामिल है। मौके-बेमौके सबके सामने पत्नी को अपमानित करने से भी नहीं चूकते।
       हर आज्ञा का पालन होते देखने का आदि पुरुष किसी भी कदम पर अपनी अवहेलना सहन नहीं कर सकता। छोटी-छोटी बातों से उसके अहम को ठेस लग जाती है और वह घायल होने लगता है। उसका पुरुषत्व या उसका अहम शायद ऐसे काँच का बना हुआ है जो जरा हल्की-सी चोट लगने से टूटकर किरच-किरच हो  जाता है।
       सड़क पर चलते हुए मनचलों का नवयुवतियों पर फब्तियाँ कसना,  उन पर कटाक्ष करना या अनर्गल प्रलाप करना भी  तो विकृत पुरुष मानसिकता का ही उदाहरण कहलाता है। कुछ मुट्ठी भर ओछे लोगों के कारण जो सारे पुरुष समाज को कटघरे में कर देता है।
       प्रतिदिन फेसबुक पर स्त्रियों के लिए अभद्र बातें, अपमानजनक टिप्पणियाँ, व्यंग्य, चुटकुले आदि जिस लहजे में लिखते हैं उन्हें देख-पढ़ कर मन को बहुत पीड़ा होती है। ऐसे घिनौने विचारों के प्रदर्शन से उनकी महानता कदापि सिद्ध नहीं हो सकती। यह बात उन्हें हमेशा समझनी और याद रखनी चाहिए।
      व्यंग्यकार, लेखक व कवि स्त्रियों पर अश्लील टीका-टिप्पणी व भद्दे मजाक करके जिस तरह अपनी रोटियाँ सेकते हैं वह बरदाश्त के बाहर हो जाता है। पता नहीं उन्हें पत्नी या स्त्री के अतिरिक्त अन्य कोई विषय ही नहीं मिलते अपनी रचनाओं के लिए। इसके अतिरिक्त ढेरों सामाजिक विषय हैं जिन पर लिखकर वह अपनी समझ का परिचय दे सकते हैं।
          बहुत सोचने पर भी मैं इसका हल नहीं खोज सकी। रचनाकार का धर्म समाज को दिशा देना है न कि इस प्रकार अपने विचारों का भौंडा प्रदर्शन करना। यदि साहित्यकार सहृदयता को नहीं दर्शाता तो आम जन से हम शालीनता की बात कैसे करें? यह तो रचनाधर्मिता का निर्वहण नहीं है कि आप अपनी सोच का दायरा इतना सीमित करके कूप मंडूक बन जाएँ।
       लेखनी उसी रचनाकार की महान व कालजयी बनती है जिसकी सोच का दायरा सीमित और अमर्यादित नहीं है। साहित्य की विशाल परंपरा में ऐसे महान दिग्दर्शक साहित्यकारों और उनकी रचनाओं का स्थान आज भी सर्वोपरि है। हम उनके प्रति श्रद्धावनत होते हैं और उस साहित्य को अपने घर में सजाकर, पढ़कर और उन पर चर्चा करके स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं।
       मेरा सभी पुरुष मानसिकता वालों से निवेदन है कि महिलाओं की छिछालेदार करने के बजाय सकारात्मक रुख अपनाते हुए समाज के दिग्दर्शक बनें और आने वाली पीढ़ियों के मार्गदर्शक।

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