शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

मानव जीवन

भारतीय दर्शन मानव जीवन को पानी के बुलबुले के समान मानता है। इसका अर्थ हम इस प्रकार कर सकते हैं कि जैसे पानी में बनने वाला बुलबुला पलभर में ही हमारी आँखों के सामने ही ओझल होकर पुनः पानी में मिलकर वही रूप ले लेता है। उसी प्रकार मनुष्य गिनती के श्वास लेकर इस धरा पर जन्म लेता है। उनके समाप्त होने पर देखते-ही-देखते सबकी नजरों के सामने सांसारिक रिश्तों-नातों से विदा लेकर उस परमपिता परमात्मा में एकाकार हो जाता है।
       संसार से जीव उसी तरह तिरोहित हो जाता है या छुप जाता है जैसे प्रात: काल होते ही तारागण हमारी नजरों से ओझल हो जाते हैं। इन्हीं भावों को इस दोहे में बड़े ही सुन्दर शब्दों में पिरोया गया है-
पानी केरा बुलबुला अस मानस की जात।
देखत ही छिप जाएगा ज्यों तारा परभात॥
      यह मानव जन्म बहुत दुर्लभ है। हमारे ऋषि-मुनि बार-बार हमें चेताते हैं कि चौरासी लाख योनियों में अपने पापों (दुष्कर्मों) का फल भोगकर जीव मानव चोले का अधिकारी बनता है। इतने कठोर तपों से तपकर पाए गए इस जीवन को हम अपने अहंकार व कुकृत्यों से व्यर्थ ही नहीं गँवा सकते।
       कठोर परिश्रम करके जब किसी  फल या वस्तु को प्राप्त करते हैं तो उसका मूल्य हम सभी भलीभाँति जानते हैं। उस पर हम बहुत नाज करते हैं और उस भौतिक पदार्थ को हम यूँ ही नष्ट नहीं होने देते।
        अब हमारे समक्ष यह ज्वलंत प्रश्न विचारणीय है कि इतनी कठिनाइयों से प्राप्त इस मानव जीवन को हम कैसे व्यर्थ गँवा सकते हैं? हमें फूँक-फूँक कर कदम उठाने की आवश्यकता है। इस क्षणिक जीवन में जितने भी सत्कर्म कर सकते हैं कर लेने चाहिएँ ताकि इस दुनिया से विदा लेते समय हमें हाथ मलकर पछताना न पड़े। रोते हुए यहाँ से विदा लेने के बजाय हँसते हुए जाएँ।
      परलोक गमन करते समय हमारा मन तभी शांत होगा जब अपने इस जन्म में हम ईश्वर द्वारा दिए गए कार्य को पूरा करने का हम ईमानदारी से यत्न करेंगे। ईश्वर हमें जन्म-मरण के बंधनों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए बारंबार पृथ्वी पर जन्म देता है।
      हम पर यह निर्भर करता है कि हम ईश्वर प्रदत्त कार्य करना चाहते हैं या अपने लक्ष्य को भूलकर दुनिया की चकाचौंध में खो जाएँ। इस जन्म को हम अपने सद्कर्मों  से सार्थक बना सकते हैं।

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