रविवार, 28 दिसंबर 2014

माँ

माँ से बढ़कर दुनिया में और कोई नहीं हो सकता। ईश्वर ने माँ के रूप में अनमोल उपहार मानव को दिया है। वह मनुष्य की सबसे बड़ी ताकत होती है। बच्चे के जन्म से अपनी मृत्यु तक हमेशा अपने आशीर्वाद से मालामाल करती है।
       हमारे ऋषि-मुनियों ने माँ की महत्ता और बलिदान को समझते हुए उसे देवता का सम्मान दिया और कहा- 'मातृदेवो भव' अर्थात् माता को देवता मानो। भगवान की तरह ही अपनी माँ की भी पूजा करो। ईश्वर की उपासना माँ के रूप में की जाए तो वह हमारी करुण पुकार से शीघ्र द्रवित होता है। तभी दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती के रूप में सारी शक्तियाँ माँ में ही ईश्वर ने समेट दी हैं।
        भगवान की तरह माँ की पूजा का यह तात्पर्य नहीं कि उसकी मूर्ति बनाकर मंदिर में सजा दो और प्रातः-सायं धूप-अगरबत्ती दिखाकर उसकी पूजा करो या शंखनाद करते हुए उसकी प्रशस्ति में गीत गाओ। इसका सीधा सा अर्थ है उसका सम्मान करो, उसकी इच्छा को शिरोधार्य करो। उसकी हर छोटी-बड़ी आवश्यकता को यथासंभव पूरा करने का यत्न करो। कहते हैं माँ के चरणों में स्वर्ग है।
        माता का मनुष्य पर बहुत बड़ा ऋण है। इस संसार में जीव को लाकर इस योग्य बनाती है कि वह अपना सिर उठाकर समाज में जी सके। अपनी एक पहचान बना सके वह नौ मास तक अपने गर्भ में रखकर अपने रक्त से उसको पुष्ट करती है। उसके इस उपकार का ऋण सारी आयु उसकी सेवा करके भी नहीं चुकाया जा सकता।
      वह अपने संतान की खुशी में खुश होती है और उसके कष्ट में तार-तार। अपने सारे सुखों को तिलांजली देकर संतान का पालन-पोषण करती है। बालपन में बच्चे को सुखे का सुख देकर प्रसन्नतापूर्वक स्वयं गीले में सो जाती है। बच्चे को पालते समय अपने सारे कष्ट नजरअंदाज कर देती है।
      माँ पिता के न रहने पर भी अकेले रहकर भी संतान को कलेजे से लगाकर पालती है।
वह अपने बच्चों को माता व पिता दोनों का प्यार देती है। उनकी हर छोटी-बड़ी आवश्यकता को यथासंभव पूरा करती है। उसे अपने ससुराल से कुछ मिले तो ठीक और न मिले तो परवाह नहीं करती बच्चों को अच्छा जीवन देने में।
       इसके विपरीत पिता माँ के परलोक सिधारते ही प्रायः बच्चों के लिए पराए हो जाते हैं। बच्चे दरबदर की ठोकरें खाने के लिए विवश हो जाते हैं।
        जिन्दगी टीवी के सीरियल गोहर की स्थिति को देखकर मन यह सब लिखने का विचार प्रबल हो गया और मैं यह लिखने से स्वयं को रोक न पाई।
        यह केवल सीरियल की बात नहीं है परन्तु समाज में प्रायः ऐसी घटनाएँ यदाकदा दिखाई देती हैं जो मन को अंदर तक हिलाकर उद्वेलित करती हैं। हमारे बड़े-बजुर्ग कहते हैं- 'माँ के मरते ही पिता भी पराया हो जाता है।'
         बड़ विचित्र है ऐसा व्यवहार। जो बच्चे माता-पिता की आँखों के तारे होते हैं, जिनको न देखें तो दिल बेचैन हो जाता है और जिनका जीवन संवारने में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहते वे माँ की मृत्यु के बाद कैसे पराए हो जाते हैं? पिता पर बोझ बन जाते हैं और वह उनसे अपना पिण्ड छुड़ाने के उपाय करने लगता है।
       यहाँ सभी सुधीजनों से आग्रह करती हूँ कि जब तक माँ जीवित है अपने दिलोजान से उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करें, उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए अपनी सामर्थ्य के अनुसार सेवा अवश्य करें। उसके जीते जी जीवन काल में यदि न पूछा तो मृत्यु के पश्चात आडंबरों का कोई लाभ नहीं होगा। मंदिरों में जाकर पत्थर की मूर्तियों की पूजा करते हो पर घर में जीवित बैठे देवताओं(माता-पिता) की पूजा करें। इससे ईश्वर तो प्रसन्न होते ही हैं मन को शांति व घर में बरकत भी रहती है। चारों ओर समाज में यश फैलता है। श्रवण कुमार की तरह युगों तक अमरता मिलती है। सभी तीर्थों का फल उसकी सेवा करने वाले को मिलता है।

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