मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

आत्मिक शान्ति

आत्मिक शांति जीवनदायिनी शक्ति है। यदि हमारा मन प्रसन्न होगा तो हमारे अंदर उत्साह होता है। उस समय हम कहते हैं मेरा काम करने का मन कर रहा है। तब सचमुच हम शीघ्रता से अपने कार्यों को निपटा लेते हैं। और कभी-कभी ऐसा संयोग भी होता है कि सब कार्य निपटा लेने के बाद हमें समझ में ही नहीं आता कि अब हम क्या करें?
       इस शांति को हम प्राप्त कैसे करें? यह ज्वलंत प्रश्न है। यह बाजार में बिकने वाली वस्तु नहीं है कि गए और किलो के भाव से खरीद कर ले आए। इसे पाने के लिए मन को साधना होता है। मन को सु-मन बनाना होता है। उसे कुमार्ग पर जाने से रोकना होता है।
       हमारा मन तब प्रसन्न होता है जब हम अपने पारिवारिक, धार्मिक, सामाजिक कार्यों का प्रतिपादन सुचारू रूप से करते हैं। मन में एक संतुष्टि का भाव आता है। अपने मन को परोपकारी कार्यों में लगाने से भी आत्मतुष्टि होती है।
       जहाँ हम अपने दायित्वों के निर्वहण में कोताही बरतते हैं वहाँ हम अशांत हो जाते हैं। मानस में अपराध बोध होता है जो हमें विचलित करता है। कुछ लोग जो आपराधिक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं उन्हें तो पलभर भी चैन नहीं मिलता। कभी उन्हें पुलिस का तो कभी कानून का डर सताता है। कहने को तो वे अकड़ कर चलते हैं पर अंदर से खोखले होते हैं। अपने अपराधबोध से ग्रस्त होकर वे मानसिक यंत्रणा भोगते हैं। इसका कारण उनका नैतिक आचरण होता है। हम अपने परिवेश  में ऐसा अनुभव कर सकते हैं।
      कहते हैं गलत कार्य सौ परदों में भी छिप कर किया जाए फिर भी प्रकाश में आ जाता है। मनुष्य अपनी शक्ति या पद के बल पर कुछ समय के लिए अपने कुकृत्यों को दबा तो  सकता है पर प्रकाशित होने से नहीं रोक सकता। उस समय आत्मग्लानि होती है। तब वह बेतुके तर्क देता है।
        आत्मिक शांति के लिए दूसरों की सहायता करना आदि परोपकारी कार्यों का निष्पादन बहुत आवश्यक है। इससे जहाँ हमारा मन शांत रहता है वहीं दूसरों पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।

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