बुधवार, 17 दिसंबर 2014

संत समाज का आईना

संत समाज का आईना व मार्गदर्शक होते हैं। साधु-संतों की जाति नहीं पूछी जाती बल्कि उनका ज्ञान परखा जाता है। इसीलिए कहा है-
'जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।'
       जिसे हम वास्तव में संत कहते हैं वह संसार के बंधनों से मुक्त होता है। वह किसी आडंबर या नाम की इच्छा नहीं रखता।ऐसे संत समाज का आभूषण कहलाते हैं। वे अनाम रहकर आत्मोन्नति के लिए समाज से कटकर जंगलों, पर्वतों या गुफाओं साधना करते हुए  कैवल्य प्राप्त करते हैं। और यदि समाज में रहते भी हैं तो भौतिक ऐश्वर्यों का त्याग कर समाज की भलाई के कार्य करते हुए संसार से विदा लेते हैं। 
       संतों को हम उनके सद् गुणों, संयम, आचार-व्यवहार, उनकी कथनी-करनी के एकस्वरूप होना आदि गुणों से पहचान सकते हैं।
       संत को पहचान कर उस पर विश्वास करना उचित है। दूसरों की चिकनी-चुपडी बातों में न उलझकर अपने विवेक पर भरोसा कीजिए।आपकी तर्क की कसौटी  पर जो खरा उतरे उसे मानें अन्यथा सब छोड दें।
     संत समाज को दिशा नहीं दे सकता अथवा दिग्दशर्क नहीं बनता तो ऐसा वह त्याज्य है व सम्मान नहीं प्राप्त करने के योग्य नहीं हो सकता।
      संत की कोइ उपाधि नहीं होती। न ही उसके लिए कोई मापदंड होता है। उसके लिए किसी विद्वत परिषद के गठन की भी आवश्यकता नहीं होती।
     संत यदि केवल पुस्तकीय ज्ञान से प्रभावित करता है और उसका आचरण अनुकरणीय नहीं है तो वह त्याज्य है। पुस्तकीय ज्ञान तो गधे पर लादे बोझ की तरह होता है यदि उस पर मन, वचन व कर्म से आचरण न किया जाए। साधु-संतो की परख उनके सद् गुणों और आचरण से होती है।
       हमारा अपना विवेक सबसे बडी कसौटी है। अपनी तर्क की कसौटी पर जो खरा उतरे उसे ही विद्वान मानें अन्यथा सब छोड दें। हमारा विश्वास हमारी पूँजी है इसे यूँ ही नहीं डगमगाने दे सकते।
      वे कदापि संत या धर्मगुरु नहीं कहे जा सकते जिन्हें लोकप्रशंसा की भूख हो। जो टीवी अथवा राजनैतिक पार्टी के मंच से लुभावने और मंत्रमुग्ध करने वाले प्रवचनों और भाषणों से सबको मन्त्र मुग्ध कर लें।  इसके अतिरिक्त वे भी संत नहीं हो सकते जो देश व समाज के प्रति आपराधिक गतिविधियों में संलग्न हो। मजबूरन उन पर भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आरोप सिद्ध किए जाएँ।
       संतों का स्वभाव बालसुलभ होता है। वे सच्चे संत नहीं हो सकते जो द्वन्द्व सहन नहीं कर सकते या मात्र अपनी आलोचना से विचलित हो जाएँ।
      मेरा मानना है कि संत की उपाधि के  ज्ञान, धैर्य, इन्द्रिय नियंत्रण, मानसिक और शारीरिक बल के आकलन की कदापि आवश्यकता नहीं होती। संत बनाने या कहलाने के कोई मानक या मापदंड नहीं हैं।
     एक आख्यान है कि ऋषि विश्वामित्र को महर्षि कहलाने के लिए महर्षि वसिष्ठ की अनुमति चाहिए थी। पर जब तक वे इस पद के योग्य न हुए तब तक वसिष्ठ जी ने उन्हे महर्षि नहीं कहा। वर्षों की साधना के पश्चात जब वे अपने आचरण से इस पद के योग्य हुए तब उन्हें महर्षि वसिष्ठ ने उनको महर्षि विश्वामित्र कहकर पुकारा।
       साधना करके ही ये उपाधियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। वैसे जो वास्तव में सच्चे संत होते हैं वे इन उपाधियों के गुलाम नहीं होते। उनके कर्म ऐसे होते हैं जिससे लोग उन्हें सिर माथे पर बिठाते हैं।
       दूसरों को धोखा देने या ठगने वालों से हमेशा सावधान रहना चाहिए चाहे वे तथाकथित धर्मगुरु कहलवाने वाले हों या आम धूर्त। इनसे किनारा करना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है।
     यदि आप कर्मसिद्धांत और पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं तो कबीर दास जी के शब्दों में मानकर चलिए-
  जो करेगा सो भरेगा तू क्यों भया उदास।

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