इन्द्रियों का निग्रह करना हमारा कर्त्तव्य है। यदि इन्हें वश में न किया जाए तो मनुष्य बड़ी कठिनाई में पड़ जाता है।
आँख, नाक, कान, जिह्वा और त्वचा हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और हाथ, पैर, मुँह, गुदा व उपस्थ हमारी पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं हमारी ये इन्द्रियाँ घोड़े हैं।
इन इन्द्रियों के संस्कृत में पर्यायवाची शब्द हैं- अज, गो व अश्व आदि। इन शब्दों का कुछ विद्वानों ने गलत अर्थ लेकर इन्हें पशुबलि के साथ जोड दिया। जबकि इनकी बलि का अर्थ था इनका निग्रह या इन्हें वश में करना।
उपनिषद में इन इन्द्रियों को वश में करने के लिए एक बहुत सुन्दर व विचारोत्तेजक उदाहरण दिया है। ऋषि कहते हैं कि ये हमारा शरीर एक रथ है, इन्द्रियाँ इस रथ के घोड़े हैं, बुद्धि सारथि है, मन लगाम है और इसमें यात्रा करने वाला यात्री आत्मा है।
यदि सारथी घोड़ों को नियन्त्रित न करे तो वे मनमानी करेंगे व गलत रास्ते पर चलेंगे और यात्री को उसकी मंजिल पर नहीं पहुँचाएँगे।
यही हमारी स्थिति है। यदि सारथि बुद्धि मन रूपी लगाम को कसकर नहीं रखेगा तो घोड़े रूपी इन्द्रियाँ मनमानी करेंगी। इस तरह तो यात्री आत्मा अपने लक्ष्य पर नहीं पहुँच पाएगा।
विचारणीय विषय है कि आत्मा का लक्ष्य क्या है? हमारे ऋषि-मुनियों का कथन है कि आत्मा का लक्ष्य है जन्म जन्मान्तरों के चक्र से मुक्त होना। चौरासी लाख योनियों में अपने पापकर्मों को भोगकर मिले मानव जन्म को व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए। परमात्मा के अंश आत्मा का उसी में एकाकार करने का यत्न करना हमारा कर्तव्य है।
यह सब इन्द्रियों का निग्रह करने से होगा। यह हमारी प्राथमिकता है कि आत्म नियंत्रण करके हम मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं।
यदि हम इन्द्रियों को वश में नहीं करेंगे तो वे हमें नाच नचाएँगी। हमारे कान कहेंगे कि भाई मैं जो चाहे सुनूँगा पर अच्छी व जीवनोपयोगी बातें नहीं। और तो और हरि कथा या मुझे हरि चर्चा नहीं सुननी।फिर तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। इसी तरह आँखें अपनी इच्छा के अनुसार शोभनीय-अशोभनीय दृश्य देखेंगी तो अपराधों की बढ़ोत्तरी हो जाएगी। फिर यदि हमारी नाक भी मनमाने सुगंध या दुर्गन्ध का मजा लेने लगे तो परेशानी बढ़ेगी।
हमारी रसना यानि जीभ सारा दिन स्वादों को चखती रहे तो शरीर बर्बाद हो जाएगा। अथवा दूसरों के मान-सम्मान की परवाह किए बिना अनर्गल प्रलाप करेगी तो हररोज सिर फूटेंगे। ऐसे ही हमारी त्वचा यदि स्पर्श सुख में डूबी रहेगी तो संसार का चक्का जाम हो जाएगा।
कहने का तात्पर्य यह है कि हम इन इन्द्रियों को पूर्व में ले जाना चाहेंगे तो ये पश्चिम में चलेंगी। जैसे घर-परिवार में सभी सदस्य मनमानी करें तो घर नहीं चलते। इसी तरह इन इन्द्रियों की मनमानी भी तो हम सहन नहीं कर सकते। इनकी सुनेंगे तो हम अपना लोक और परलोक दोनों को बिगाड़ लेंगे।
अपनी आत्मा को लक्ष्य तक ले जाने और अपने इस भौतिक जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए हमें इन्द्रियों का निग्रह अवश्य करना चाहिए अन्यथा हम दोनों जहान से जाएँगें। इस जन्म-मरण के चक्र से हमारी मुक्ति असम्भव हो जाएगी। तब चौरासी लाख योनियों के फंदे से कोई हमारी रक्षा नहीं कर सकेगा।
शनिवार, 13 दिसंबर 2014
इन्द्रिय निग्रह
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अत्यंत मार्गदर्शी लेखन
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