शनिवार, 10 मई 2025

माता बच्चे की पहली गुरु

माता बच्चे की पहली गुरु

माता बच्चे की पहली गुरु होती है। वह उसे बोलना सिखाती है और अक्षर ज्ञान कराती है। इसी प्रकार पिता उसका भरण-पोषण करता है तथा उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। एवंविध माता और पिता अपने बच्चे के जीवन में अहम् भूमिका निभाते हैं। वे दोनों मिलकर अपनी सन्तान को इस योग्य बनाते हैं कि वह संसार में सिर उठा कर चल सके और भविष्य में अपना जीवन यापन बाधा रहित होकर कर सके।
           बच्चे को जो संस्कार माता-पिता या घर के बड़े-बजुर्ग दे सकते हैं, वे कोई अन्य नहीं दे सकता। ये संस्कार आजन्म मनुष्य के साथ रहते हैं। इसमें मैं एक बात और जोड़ना चाहूँगी कि न ही क्रच वाले, न आया-नौकर और न ही पड़ौसी व रिश्तेदार बच्चे को संस्कार दे सकते हैं। वे बच्चे के मधुर व्यवहार की प्रशंसा हो सकता है न करें। पर वे तो बच्चे के दुर्व्यवहार से उसके संस्कारों को देखकर आलोचना करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। दूसरों को नीचा दिखाने में आनन्द का अनुभव करते हैं।
           मिलने वाले सभी लोग बच्चे के शालीन व मधुर व्यवहार की प्रशंसा कर सकते हैं तथा साथ ही उसके माता-पिता की भी सराहना कर सकते हैं कि उन्होंने अपने बच्चे को इतना संस्कारी बनाया है। यह क्षण बच्चे के माता-पिता के लिए बहुत गौरव का पल होता है। संस्कारी बच्चे सभी लोगों को अच्छे लगते हैं। उनसे बात करने के लिए सभी लोग लालायित रहते हैं। वे लोग अपने बच्चों को उनके उदाहरण देकर उन्हें भी‌ वैसा ही बनने के लिए प्रेरित करते हैं।
           इसके विपरीत अभद्र व कठोर व्यवहार करने वाले बच्चे की उसके माता-पिता सहित सभी आलोचना करते हैं। हो सकता है उनका लिहाज करते हुए प्रत्यक्षत:(सामने) केवल संकेत मात्र करें परन्तु परोक्षतः(पीठ पीछे) उन्हें कोसने से नहीं चूकेंगे कि उनका बच्चा कितना बिगड़ा हुआ है। ऐसे तथाकथित बिगड़े हुए बच्चों को कोई अपने घर पर आने देना पसंद नहीं करता। बन्धु-बान्धव और पड़ोसी‌ ऐसे उन बच्चों के साथ अपने बच्चों को खेलने से भी मना करते‌ हैं। 
      इसीलिए हमारे महान ग्रन्थ हमें समझाते हैं-
    माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पाठित:।
    न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।
अर्थात् वह माता और पिता शत्रु हैं जिन्होंने अपने बच्चे को नहीं पढ़ाया। वह बच्चा सभा में उसी तरह सुशोभित नहीं होता जैसे हंसों के बीच बगुला।
         ‌ इस श्लोक में विद्या अध्ययन की चर्चा है। इसके अनुसार बच्चों के अशिक्षित रह जाने का दोषी कवि माता-पिता को मानते हैं। बच्चों को संस्कारित करने के साथ-साथ उन्हें शिक्षित करना भी आवश्यक होता‌ है। अन्यथा बच्चे समय की दौड़ में पिछड़ जाते हैं। वे धनार्जन करने में भी असहाय से रह जाते हैं। वे लोग अपना व अपने परिवार की आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर सकते। आज इक्कीसवीं सदी में भी बहुत से बच्चे विद्यालय जाने में अपनी मजबूरियों के कारण असमर्थ हैं। 
            यहाँ हम उन बच्चों की बात कर लेते हैं जो विद्यालयीन शिक्षा तो ग्राहण करते हैं पर उच्छृंखल होते हैं। ऐसे बच्चों के माता-पिता भी अपने बच्चों व समाज के शत्रु हैं जो संतान को सुसंस्कृत नहीं कर सकते। अपितु यह कहकर वे अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं कि क्या करें बच्चा हमारी सुनता नहीं? ऐसे ही बच्चे आगे जाकर समाज, देश, धर्म व जाति को हानि पहुँचाते हैं। ऐसे बच्चों को कोई भी पसन्द नहीं करता है। सब लोग उन्हें हिकारत से देखते हैं।
           हमें गम्भीरता से इस विषय पर विचार करना चाहिए कि हम अपने दायित्वों के प्रति कितने सजग हैं? अपने बच्चों को संस्कारित करके भावी पीढ़ियों के प्रति हम उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं। अथवा उनके प्रति लापरवाही बरत कर उन्हें देश, धर्म, समाज और परिवार के दोषी बनाने का अपराध करते हैं। अन्त में हम यह कह सकते हैं कि माता को अनावश्यक ही लाड़-प्यार में बच्चे को बिगाड़ने के स्थान पर उसे संस्कारवान बनाकर जिम्मेदार बनाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें