रविवार, 11 मई 2025

अपने मन को बांस मानना छोड़िए

अपने मन को बास मानना छोड़िए 

मनुष्य को कभी-कभी यह घमण्ड हो जाता है कि वह जो भी कहता है अथवा करता है, उसका कोई मुकाबला नहीं हो सकता। वह अपने मन को अपना बास मानने लगता हैं। अपने बन्धु-बान्धवों के समक्ष वह बड़ी शान बघारते हुए कहता है कि वह तो बहुत मनमौजी है। वह वही काम करता है जो उसका मन कहता है। वह अपने मन के विपरीत जाकर कोई काम नहीं करता। यहीं पर मनुष्य सबसे बड़ी भूल कर देता है। उसे यह नहीं समझ आता कि अपनी हेकड़ी दिखाते हुए जो वह कर रहा है, उसके सामने जब समस्या आ जाएगी तब वह उससे निपटने में समर्थ हो भी पाएगा या नहीं। 
         अब विचारणीय प्रश्न यह उठता है कि क्या मन सदा मनुष्य को सही सलाह देता है? क्या मन का परामर्श मानना मनुष्य के लिए आवश्यक होता है? मन की कही बात मानने से क्या मनुष्य को सदा सफलता मिलती है?
            मनुष्य इस सत्य को भूल जाता है कि यह मानव मन बहुत चंचल होता है। मनुष्य को ज्ञात ही नहीं हो पाता कि यह क्या क्या कारनामे कर जाता है। इसकी गति और चंचलता का पार मनुष्य नहीं पा सकता। इसलिए इसे अपने वश में करना बहुत आवश्यक है। मनुष्य का मन यदि उसके वश में हो जाए तो समझिए उसका बेड़ा पार हो गया। परन्तु यदि मन मनुष्य के वश में हो गया तो उसका पतन निश्चित हो गया। इसलिए इस पर लगाम कसना हमारे हित में है। 'श्रीमद्भागवद्गीता' में भगवान कृष्ण ने कहा है कि मन बहुत चंचल है इसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है।
           मनीषी कहते हैं- 
   मन साडे आखे नहीं लगदा 
  अस्सी मन दे आखे क्यों लगिए 
अर्थात् जब मन हमारे कहने पर नहीं चलता तो हम उसके कहने पर क्यों चलें? यदि इसके कहने पर चलेंगे तो हम अपनी अन्तरात्मा की आवाज को सुनने से कतराने लगेंगे। इसका कारण स्पष्ट है कि मन पंख लगाकर उड़ना चाहता है। इसलिए जब बिना मेहनत के सब कुछ पाना चाहेगा है तो प्रायः शार्टकट का सहारा लेगा। उस समय वह हमें कुमार्ग पर चलने के लिए विवश करेगा और हम भी बड़ी खुशी-खुशी उसके सुझाए हुए लुभावने मार्ग पर चल पड़ेंगे। फिर वहाँ से लौटकर आना हमारे लिए बहुत ही कठिन हो जाएगा।
            यह वास्तव में सत्य भी है क्योंकि मन दिनभर खुद तो भटकता ही रहता है और हम सबको भी भटकाता रहता है। मनुष्य को पता ही नहीं चल पाता और यह उसे न जाने कौन-सी गलियों में घुमाकर, सैर करवाकर वापिस ले आता है। पलभर के लिए भी न यह स्वयं चैन से बैठता है और न किसी को चैन नहीं लेने देता। एक स्थान पर बैठे-बैठे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को क्षणभर में नापकर लौट आता है। हजारों-हजार मीलों की यात्रा पलक झपकते ही करके यह ऐसे नादान बन जाता है जैसे उसे कुछ भी पता नहीं। यह सभी इस मन की खूबियॉं हैं। 
         यह मन ही मनुष्य के अन्दर पनपने वाले अवसाद, घृणा,  ईर्ष्या-द्वेष, आशा-निराशा, उपकार-अपकार आदि भावनाओं के साथ-साथ काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि शत्रुओं को भी न्योता देता है। यदि इन भावनाओं और शत्रुओं से मन के कहने पर हम मित्रता कर लेंगे तो समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने में समय नहीं लगेगा। तब घर-परिवार, देश व समाज के शत्रु कहलाकर सबसे अलग-थलग रहकर जीना ही मनुष्य की विवशता बन जाएगी।
    मन में उठने वाली इच्छाओं को पूरा करते हुए मनुष्य जीवन पर्यन्त कोल्हू के बैल की तरह खटता रहता है। परन्तु वे इच्छाऍं हैं कि समाप्त होने का नाम नहीं लेतीं। एक-के-बाद एक करके उठने वाली मनोकामनाएँ मनुष्य को चैन से नहीं जीने देतीं। वह हमेशा अशान्त रहता है। तब शान्ति की खोज में इधर-उधर भटकता रहता है। कभी जंगलों में, कभी तीर्थ स्थानों में, कभी धार्मिक स्थलों में और फिर कभी तथाकथित धर्म गुरुओं की शरण में परन्तु शान्ति ऐसी चिड़िया है जो उसे कहीं पर भी नहीं मिलती। भटकना छोड़कर शान्ति उसे अपने मन में ही मिलती है यदि वह उसे साध लेता है।
        इसीलिए सयाने कहते हैं- 
      मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
हम कह सकते हैं कि मन ही हम मनुष्यों को विनाश के गर्त में ढकेल सकता है और यही है जो हमें आकाश की बुलन्दियों को छूने की सामर्थ्य देता है। जिसने इसे अपने वश में कर लिया वह सिद्ध बनकर ईश्वर तुल्य हो जाता है। समाज को दिशा और दिशा देने का कार्य करता है। और जो इसके बहकावे में आकर भटक जाते हैं वे अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष से बहुत दूर होकर पुनः जन्म-मरण के चक्र में फँस जाते हैं। फिर इस ब्रह्माण्ड की कहें जाने वाली चौरासी लाख योनियों में भटकते रहते हैं।
          यथासम्भव मन के कथनानुसार चलकर परेशान होने के स्थान पर यदि मनुष्य अपनी इच्छा से मन को चलाएगा तो सफलता व प्रसन्नता उसके कदम चूमेंगी। मनुष्य को जीवन में कभी निराशा एवं असफलता का मुँह नहीं देखना पड़ेगा। अब मनुष्य को स्वयं ही विचार करके अपने रास्ते का चुनाव करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

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