ईश्वर की आराधना का प्रदर्शन
इस संसार में ईश्वर ने हमें इसलिए भेजा था कि हम उसका स्मरण करते हुए भवसागर को पार करके मोक्ष प्राप्त करें। परमात्मा के साथ एकाकार होकर तदरूप हो जाएँ। पर बड़े अफसोस की बात है कि जीव के रूप में जन्म लेने के पश्चात हम दुनिया की चकाचौंध से प्रभावित होकर अपने आने के उद्देश्य को ही भूल गए हैं। जबकि माता के गर्भ में रहते हुए, वहॉं के अन्धकार से घबराकर ईश्वर से प्रार्थना करते थे, "हे प्रभु! मुझे इस अन्धकार और कष्ट से मुक्ति प्रदान कीजिए। संसार में जाकर मैं सदैव आपका स्मरण करूॅंगा।"
पर होता क्या है? इस दुनिया में आते ही जीव यहॉं की चकाचौंध में खो जाता है। उसे ईश्वर से किया गया अपना वादा भी विस्मृत हो जाता है यानी याद नहीं रहता। वह बस रंगरेलियॉं मनाने में मस्त होने लगता है। दुनिया के व्यापार में मग्न होकर ईश्वर से दूरी बनाने लगता है। ईश्वर की उपासना भी अपने जीवन में करनी चाहिए। इस विषय पर मनुष्य मौन साध लेता है। तब सोचता है कि प्रभु के स्मरण का समय अभी नहीं आया है। बहुत सारा जीवन पड़ा है हरि भजन के लिए।
तब वह सोचता है कि अभी तो मैं व्यस्त हूॅं, कुछ समय बाद भगवान को याद कर लूॅंगा, उसका नाम जप लूॅंगा। अभी और दायित्व पूरे कर लें। ईश्वर का क्या है, उसे बुढ़ापे में जप लेंगे। परन्तु बड़े दुख की बात है कि वृद्धावस्था भी बीत जाती है। वह समय आ ही नहीं पाता और और मृत्यु सिर पर आकर खड़ी हो जाती है। उसकी इस असार संसार से विदाई की बेला आ जाती है। तब मनुष्य पश्चाताप करता है कि मैंने क्या कर डाला? उस समय कुछ नहीं हो सकता। यदि मनुष्य ईश्वर की उपासना निरन्तर करता रहे, तो उसे कभी घबराने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
तब वह रो-रोकर प्रभु से अपने लिए थोड़े समय की मोहलत मॉंगता है। वह प्रार्थना करते हुए कहता है, " हे प्रभु! मुझे थोड़ा-सा समय दे दो ताकि मैं तुम्हारी अराधना करके अपना वचन निभा लूॅं।" परन्तु मनुष्य को तब पलभर के लिए भी समय का एक्सटेंशन नहीं मिल पाता।
अपने जीवनकाल में ईश्वर की आराधना हम केवल प्रदर्शन के लिए करते हैं। हम चाहते हैं कि लोग हमें ईश्वर का सबसे बड़ा भक्त कहें। इसके लिए अपने नाम के पत्थर लगवाते हैं। समय-समय पर भंडारे भी करवाते हैं। दूसरों को दिखाने के लिए मोटा दान भी करते हैं। पर यह सब समाज को दिखाने के लिए होता है। वास्तव में मन में भावना तो होती नहीं। सबसे बड़ी बात यह भी है कि लोग जायज-नाजायज हर प्रकार से धन कमाते हैं। फिर अपनी सफेदपोशी बनाए रखने के लिए समाज सेवा के नाम पर दान आदि के सब कार्य करते हैं।
हमारा मन हमेशा चहुॅं ओर भटकता रहता है। कबीरदास जी ने बहुत ही कठोरता से हमें चेताने का प्रयास किया है-
माला फेरत जुग भया मिटा न मन का फेर।
कर का मनका छोड़कर मन का मनका फेर।।
अर्थात् कबीरदास जी कहना है कि वर्षों ईश्वर का भजन करते हुए बीत गए परन्तु हमारे मन से हेर-फेर की भावना समाप्त नहीं होती। मन पंछी की तरह ऊँची उड़ान भरता रहता है। उसे हम नियंत्रण में नहीं कर पाते बल्कि वह हमें जैसे नाच-नचाता है वैसे ही हम करते चले जाते हैं। इसलिए भगवद् भजन सच्चे मन से करो। उसके लिए हाथ में माला लेकर फेरने से कुछ नहीं होगा अपितु माला के मनकों को फेरना छोड़ कर अपने अन्तस् में चलने वाली साँसों की माला का सहारा लो और उस पर मन को एकाग्र कर सात्विकता से मालिक का ध्यान करो।
बहुत ही सुन्दर शब्दों में कबीरदास जी ने हमारा मार्गदर्शन किया है। ईश्वर का निवास ब्रह्माण्ड के कण-कण में है, जर्रे-जर्रे में है। उसे पाने के लिए इधर-उधर ठोकरें खाने की आवश्यकता नहीं। हमें जंगलों में भटकने, तीर्थों में जाने, तथाकथित गुरुओं को माथा टेकने और तन्त्र-मन्त्र का सहारा लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह तो सदा ही हमारे पास है। जब भी हम उसे देखना चाहते हैं तो बहुत सरल उपाय है। अपने मन के अन्दर झाँककर उसके दर्शन कर सकते हैं।वहॉं पर पल भर में ही उसके दर्शन हो जाएँगे।
यद्यपि इस मार्ग पर चलना बहुत कठिन है पर असम्भव नहीं है। मनुष्य चाहे तो क्या नहीं कर सकता? सचमुच यदि वह ईश्वरमय होना चाहता है तो विश्व की कोई ताकत उसे रोक नहीं सकती। बस दुनिया की चकाचौंध से मन को हटाकर ईश्वर की ओर प्रवृत्त करना पड़ता है। ईश्वर की भक्ति का प्रदर्शन न करके सच्चे मन से और श्रद्धा से यदि उस प्रभु की अराधना की जाए तो वह अपने साधक का हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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