धन की गतियॉं
जीवन यापन करने हेतु मनुष्य के लिए धन की महती आवश्यकता होती है। इसके बिना जीवन की कल्पना करना कठिन है। मनुष्य अपने परिवार की सुख-समृद्धि के लिए दुनिया भर के साधनों को जुटा लेना चाहता है। उसके लिए कठोर परिश्रम करता है। वह न दिन देखता है न रात, बस कोल्हू के बैल की तरह बन जाता है। निस्सन्देह वह अपने इस प्रयास में सफल भी हो जाता है। अब प्रश्न उठता है कि इस धन का संरक्षण किस प्रकार किया जाए? मनीषियों ने इसका बहुत सरल-सा उपाय हमें बताया है।
धन की तीन तरह की गतियॉं होती हैं- दान देना, उसका उपभोग करना और नाश हो जाना। इसी बात को हमें समझाते हुए भर्तृहरि जी ने अपने ग्रन्थ 'नीतिशतकम्' में बहुत ही सुन्दर शब्दों में समझाते हुए कहा है-
दानं भोगो नाशः तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।।
अर्थात् धन की तीन गतियॉं होती हैं। अपनी ईमानदारी व परिश्रम से कमाए गए धन का कुछ अंश दान देना चाहिए। उसका कारण है कि हम सामाजिक प्राणी हैं और समाज से जाने-अनजाने बहुत कुछ लेते हैं। अत: समाज की भलाई के लिए परोपकारार्थ हमें अपनी आत्मिक संतुष्टि के लिए दान करना चाहिए। यह धन की पहली स्थिति है और धन का सदुपयोग कहलाता है।
धन की दूसरी गति है उसका उपभोग करना, सदुपयोग करना। यदि हम अपने खून-पसीने से कमाए पैसे को बच्चों की शिक्षा, उन्हें जीवन में व्यवस्थित करने, घर-परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने में धन व्यय करते हैं तो हम धन का सदुपयोग कर रहे हैं। यहाँ मैं एक बात और जोड़ना चाहती हूँ कि धन यदि ईमानदारी, सच्चाई से कमाया जाए तो उसमें बहुत बरकत होती है। इसके विपरीत यदि धन भ्रष्टाचार, बेइमानी, दूसरों को धोखा देकर अर्थात् नाजायज तरीके से कमाया जाए तो वह धन उसी तरह व्यय भी होता है। ऐसा धन व्यसनों में, बिमारी आदि में खर्च होता है, चोर-डाकुओं को लूट का रास्ता दिखाता है अथवा दामाद के काम आता है। ये सब मैं नहीं कह रही हमारे ग्रन्थ कहते हैं। कभी-कभी ऐसा धन बच्चों की बर्बादी का कारण भी बनता है।
सच्चाई व ईमानदारी से धन कमाने वाले जीवन में बहुत अधिक उदारता से शायद उसे खर्च न कर सकें पर बड़ी शान्ति से अपना जीवन जीते हैं। परन्तु गलत तरीकों से धन कमाने वाले भौतिक रूप ऐश अवश्य करते हुए दिखाई हैं। वे पानी की तरह पैसा बहा सकते हैं पर हमेशा एक के बाद एक परेशानी से घिरे रहते हैं। वे सदा मन से डरे हुए रहते हैं। उनके समक्ष उस धन को सुरक्षित रखने की समस्या रहती है।
धन की तीसरी गति है नाश। धन का दान न करके, उपयोग न करके सिर्फ जोड़ने की प्रवृत्ति यदि मनुष्य की रहेगी या कहें कि 'चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए' वाली आदत धन के विनाश का कारण बनती है। ऐसा धन बुराइयों का कारण बनता है। जीते जी जब मनुष्य धन पर कुण्डली मारकर बैठता है तो उसकी मृत्यु के पश्चात अनायास मिले धन का प्रायः बच्चे दुरूपयोग करते हैं। वे अपनी जायज-नाजायज इच्छाओं पर उस धन को बर्बाद कर देते हैं।
पहले जमाने में लोग जमीन में धन को गाढ़कर सुरक्षित रखते थे। ऐसा धन जो परिवार की जानकारी में नहीं होता था, वह पता नहीं कब और किसके उपयोग में आता था। सालों-साल जमीन में दबा रह जाता था। आज भी ऐसे धन की कमी नहीं। पति-पत्नी दोनों ही एक-दूसरे से और यहाँ तक कि बच्चों से छुपाकर धन संग्रह करते हैं। उसे हवा भी नहीं लगने देते। उन में से यदि किसी एक की भी मृत्यु हो जाए तो दूसरा साथी या उनके बच्चे इस धन से अनभिज्ञ रहते हैं। इसी तरह बेनामी सम्पत्ति की भी यही स्थिति होती है।
प्राकृतिक आपदाओं यानी भूकम्प, बाढ़, भूस्खलन आदि के कारण भी धन-सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। इस तरह धन का विनाश हो जाता है। कवि का मत है कि यदि धन को दान में न दिया जाए, अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में न लगाया तब धन की तीसरी गति होती है यानी उसका नाश हो जाता है।
धन जीवन में बहुत कुछ है पर सब कुछ नहीं है। धन से सुख-सुविधा के साधन जुटाए जा सकते हैं परन्तु सुख, स्वास्थ्य, प्रसन्नता, रक्त सम्बन्ध आदि खरीदे नहीं जा सकते। इसलिए धन-सम्पत्ति पर व्यर्थ ही अभिमान नहीं करना चाहिए। जहाँ यह जीवन में खुशियाँ देता है, वहीं अनेक मुसीबतों का कारण भी बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें