भाग्य और पुरुषार्थ अन्योन्याश्रित
भाग्य और पुरुषार्थ दोनों अलग-अलग हैं। मनुष्य का भाग्य पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार बनता है। इसे हम इस प्रकार समझते हैं। हम नित्य प्रति कर्म करते रहते हैं। बिना कार्य किए हम पल भर भी नहीं रह सकते। इनमें कुछ अच्छे कर्म होते हैं और कुछ विपरीत कर्म। इन कर्मों का शुभाशुभ फल हमें प्राप्त होता रहता है। हमारे कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका फल हमें तुरन्त प्राप्त नहीं होता। यही कर्म पूर्वजन्मों के शेष बचे हुए कर्मों के साथ जुड़ जाते हैं। यही कर्म प्रारब्ध कहलाते हैं। इन्हीं कर्मों के द्वारा हमारा भाग्य निर्मित होता है। इसी बात को तुलसीदास जी 'रामचरितमानस' में कहते हैं -
प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर।
तुलसी चिन्ता क्यों करें भज ले श्री रघुवीर।।
अर्थात् मनुष्य के इस संसार में जन्म लेने से पूर्व ही उसके प्रारब्ध या भाग्य का निर्धारण हो जाता है। उन्हीं कर्मों के अनुसार मनुष्य को इस जीवन में सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि मिलते हैं। इसलिए चिन्ता छोड़कर ईश्वर का स्मरण करना चाहिए।
पुरुषार्थ का अर्थ है प्रयास, परिश्रम और संकल्प से प्राप्त होने वाली चीजें। इसे मनुष्य का उद्देश्य या लक्ष्य भी कह सकते हैं। व्यक्ति अपनी लगन, परिश्रम और बुद्धिमानी से सफलतापूर्वक अर्जित कर सकता है। जब तक मनुष्य पुरुषार्थ नहीं करेगा तब तक वह अपने इच्छित लक्ष्य का संधान नहीं कर सकता। केवल भाग्य के भरोसे नहीं बैठना चाहिए। इसलिए मनुष्य को यत्नपूर्वक पुरुषार्थ करते रहना चाहिए ताकि भाग्य से मिलने वाले अवसर को खोने का दुख न होने पाए।
भाग्य और पुरुषार्थ अन्योन्याश्रित हैं यानी ये दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। इन दोनों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। कर्म के बिना भाग्य फलदायी नहीं होता और भाग्य के बिना कर्म सफल नहीं होता। इस बात को हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि वे दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और एक ही सिक्के के पहलू हैं। सिक्के के दोनों ओर को हम अलग-अलग नहीं कर सकते या दोनों को अलग करना असम्भव कार्य है।
जब मनुष्य का भाग्य प्रबल होता है तब उसे थोड़ी मेहनत करने पर भी अधिक फल प्राप्त होता है। यदि वह सोचे कि मैं बड़ा बलवान हूँ मुझे मेहनत करने की क्या आवश्यकता है? मेरे पास सब थाली में परोस कर आ जाएगा तो यह उसका भ्रम है। श्रम न करके वह अपना स्वर्णिम अवसर खो देता है। उस समय अहंकार के वशीभूत वह भूल जाता है कि ईश्वर बार-बार अवसर नहीं देता। अवसर खो देने के पश्चात पुनः वह अपना मनचाहा कब प्राप्त करेगा, ऐसा कुछ नहीं कहा जा सकता।
इसके विपरीत कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य कठोर परिश्रम करता है परन्तु आशा के अनुरूप उसे फल नहीं मिलता। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वह परिश्रम करना छोड़कर बस निठल्ला बैठ जाए। उस समय वह भाग्य को कोसे या ईश्वर को। मनुष्य को अपने भाग्य और कर्म दोनों को एक समान मानते हुए बार-बार सफलता प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। हमेशा चींटी का श्रम याद रखिए जो पुनः पुनः प्रयास करके अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो जाती है।
किसी के किसी कवि ने यह बताया है कि कौन-सा मनुष्य लक्ष्मी को प्राप्त करता है -
उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः,
दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति।
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या,
यत्ने कृते यदि न सिद्ध्यति कोऽत्र दोषः।।
अर्थात् लक्ष्मी पुरुषार्थ करने वाले सिंह रूपी मनुष्य के पास आती है। देवता या भाग्य देगा, ऐसा कायर पुरुष कहते हैं। अतः भाग्य का सहारा छोड़कर अपनी शक्ति से कर्म करो। प्रयत्न करने पर भी यदि कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती तो कोई दोष नहीं है। पुनः प्रयास करना चाहिए।
हम कह सकते हैं कि जब भाग्य का आश्रय छोड़कर मनुष्य पुरुषार्थ का मार्ग अपनाता है तो वह निश्चित ही सफल बनता है। भाग्य तो अपने समय पर फल देता है पर पुरुषार्थ करने वाले अपने रास्ते में आने वाली कठिनाइयों को दूर करके, अपना हाथ बढ़ाकर अपने लक्ष्य को छू लेता है। असफल होने की स्थिति में पुनः प्रयास करना महत्त्वपूर्ण कदम कहलाता है। इसलिए मनीषी कहते हैं -
मेहनत करने वालों की कभी हार नहीं होती।
यहाँ मैं चर्चा करना चाहती हूँ कि हर प्रकार की सुख-समृद्धि हमें अपने पूर्वजन्म के किए कर्मों के अनुसार मिलती है। फिर भी हमारे लिए यही उचित है कि हम अपने कठोर परिश्रम की बदौलत ही अपनी सफलताओं को पाने से न चूकें। जब-जब हम अपने बाहुबल पर विश्वास करके कठोर परिश्रम करेंगे तो हमारा भाग्य देर-सवेर हमें अवश्यमेव फल देगा। शर्त यह है कि अवसर की प्रतीक्षा करते हुए हमें हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठना है अन्यथा हम अच्छा अवसर खो देंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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