सोमवार, 26 मई 2025

परिश्रम से कार्य सिद्ध

परिश्रम करने से कार्य सिद्ध

परिश्रम करने से ही मनुष्य के कार्य सिद्ध होते हैं, केवल कामना करने से नहीं। इसी विचार को निम्न श्लोक में उदाहरण सहित कवि ने बहुत सुन्दर शब्दों में बताया है-
     उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
   न हि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे प्रविशन्ति मृगाः॥
इस श्लोक में कवि ने जंगल के राजा शेर का सटीक उदाहरण दिया है। शेर बेशक जंगल का राजा कहलाता है और कोई अन्य पशु शक्ति में उसका मुकाबला नहीं कर सकता फिर भी भोजन के लिए उसे शिकार करना पड़ता है। उनका राजा भूखा है ऐसा सोचते हुए कोई भी पशु उसके मुँह में स्वयं ही नहीं चला जाता। अर्थात् कोई भी व्यक्ति शक्तिशाली क्यों न हो जाए, उसे अपने लिए रोटी कमानी पड़ती है। उसे स्वयं परिश्रम करना पड़ता है। घर बैठे उसकी रोजी-रोटी का प्रबन्ध नहीं हो सकता। उसे हाथ-पैर चलाने पड़ते हैं।
      इसका अर्थ यह है कि चाहे कोई मनुष्य कितना भी शक्तिशाली या धनवान क्यों न हो उसे परिश्रम करने पर ही सफलता प्राप्त होती है। वह स्वयं चलकर नहीं आती कि भाई लो मैं आ गयी अब तुम ऐश करो। परिश्रमी व्यक्ति ही अपने लक्ष्य को पा सकते हैं। चाहे वह शेर जैसे खूंखार और हाथी जैसे बलशाली पशुओं को वश में करने का कार्य ही क्यों न हो। वह अपनी मेहनत से आकाश की ऊँचाइयों को छूने का हौंसला रखता है। समुद्र की गहराई में पैठकर मोती निकाल कर ले आता है। ऐसा ही व्यक्ति निस्सन्देह हम सबके जीवन के ऐशो-आराम के लिए तरह-तरह अविष्कारों से हमें चमत्कृत कर देता है।
      जीवन में हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला अर्थात् परिश्रम से जी चुराने वाला मनुष्य जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ पाता और न ही सफलता की बुलन्दियों को छू सकता है। आलसी व्यक्ति भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ रखकर बैठता है। वह सोचता है कि अपने-आप ही उसे मनचाहा प्राप्त हो जाएगा।मलूक दास जी के अनुसार ऐसा आलसी मनुष्य बस यही सोचता रहता है-
     अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
     दास मलूका कह गए सबके दाता राम॥
अर्थात् अजगर किसी की चाकरी या नौकरी नहीं करता और पक्षी भी काम नहीं करता फिर भी भगवान उन सबको भोजन देता है, उनका पेट भरता है। वे लोग सोचते हैं कि ईश्वर उन आलसियों का भी पालन-पोषण करेगा। इसलिए वे निश्चिन्त होकर बैठे रहना चाहते हैं।
          ऐसे लोग इस पृथ्वी पर भार की तरह होते हैं। वे अपना व अपने परिवार की आवश्यकताओं को प्रायः पूर्ण नहीं कर सकते। इसलिए हर ओर से  वे तिरस्कृत होते हैं। उनके पत्नी और बच्चे भी उनसे प्रसन्न नहीं होते। इस प्रकार घर-परिवार में भी उन्हें अवमानना झेलनी पड़ती है। ऐसे लोग सारा जीवन अभावों में व्यतीत करते हैं। सारा जीवन असन्तुष्ट रहते हैं, कभी सन्तुष्टि नहीं प्राप्त कर सकते। जो लोग अपने जीवन में सफल होते हैं, उनसे वे ईर्ष्या करते हैं। ये लोग भूल जाते हैं कि केवल भाग्य के आश्रित रहकर दुनिया में जीना कठिन होता है। 
        इसके विपरीत केवल पुरुषार्थ के बल पर भी अपना स्थान बना पाना नामुमकिन तो नहीं कठिन अवश्य होता है। पुरुषार्थ और भाग्य दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों का संयोग सोने पर सुहागा होता है। वैसे कहा यह भी जाता है कि मनुष्य अपने भाग्य का विधाता स्वयं है या उसका भाग्य उसके अपने हाथ में है। वह जैसा चाहे अपना मार्ग स्वयं चुन सकता है। उसके लिए बस दृढ़ इच्छा शक्ति का होना परम आवश्यक है।
        पुरुषार्थ करने वाले व्यक्ति को सभी पुरुषसिंह कहते हैं। वह अपने इस छोटे से जीवन में जो प्राप्त करना चाहता है हासिल करके ही चैन लेता है। यदि जीवन में उसे कभी असफलता का मुँह देखना भी पड़ जाए तो हिम्मत न हार कर चींटी की तरह अपने कर्मक्षेत्र में पुनः उत्साहित होकर पूर्णरूपेण जुट जाता है। फिर सफल हो जाता है। सफलता प्राप्त करने के दिन-रात एक करके जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है व पसीना बहाना  पड़ता है तब जाकर वह हमारे कदम चूमती है। इसलिए आलस्य का त्याग करके नव स्फूर्ति व नये उत्साह से अपने लक्ष्य प्राप्ति से जुट जाएँ और सफल बनें।
चन्द्र प्रभा सूद 

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