शनिवार, 31 मई 2025

पारस पत्थर

पारस पत्थर

पारस पत्थर के विषय में बहुत सुना और पढ़ा है। कहते हैं लोहे को यदि पारस पत्थर छू ले तो लोहा सोना बन जाता है। सोचना यह है कि पारस पत्थर में ऐसी क्या विशेषता है कि वह लोहे को सोना बनाता है। 
          हम में से किसी ने ऐसा पत्थर नहीं देखा पर प्रायः सुनते रहते हैं इसके विषय में। वैसे सुनने में बहुत अच्छा लगता है पर स्वप्न जैसा प्रतीत होता है। सभी सोचते हैं काश ऐसा पत्थर हमें मिल जाए तो हम मालामाल हो जाएँ। ऐसा नहीं हो पाता। सब ईश्वरीय इच्छा है यह कहकर सन्तोष कर लेते हैं। मिलना वही होता है जो हमारे भाग्य में है, न उससे अधिक और न उससे कम।
             हम उस काल्पनिक पत्थर की चर्चा तो प्रायः करते हैं पर हमारे मध्य विद्यमान पारसों को हम अपने अहं के कारण नहीं पहचान पाते। आप कहेंगे कि यह क्या मजाक है? यदि हमारे आसपास पारस है तो फिर हमें दिखाई क्यों नहीं देता? 
           इन सब प्रश्नों के उत्तर में यही कह सकते हैं कि हमारे बीच विद्यमान हंस की भाँति नीरक्षीर विवेकी महापुरुष ही पारस हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उन्हें अच्छे व बुरे की पहचान होती है। जिस तरह हंस पात्र में पड़े हुए दूध में से दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है। उसी प्रकार ये सज्जन पुरुष भी हित-अहित के विषय में हमें चेताते रहते हैं।
          विवेकशील होना ही उनका सर्वोपरि गुण होता है। अपने इस गुण के कारण वे दूसरों में भी सोचने-समझने की शक्ति को विकसित करना चाहते हैं। हम सबके हित चिन्तक वे सदा हमें सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करते हैं। कुमार्ग से विमुख करने का प्रयास करते हैं। वे महापुरुष या सज्जन इसीलिए हैं कि वे बादलों की तरह जो कुछ भी इस संसार से ग्रहण करते हैं, उसे अपने पास न रखकर समाज के हित में लगा देते हैं। वे ऐसे फलदार वृक्ष होते हैं जो प्रसन्नतापूर्वक अपना सर्वस्व देश, धर्म व समाज के लिए अर्पित कर देते हैं।
         ये महानुभाव नारियल के फल की तरह मन से सहृदय होते हैं, ऊपर से चाहे वे कितने ही कठोर दिखाई दें। उनकी कठोरता भी हमारे लिए हितकारी होती है। वे अनावश्यक ही किसी का पक्षपात नहीं करते। ऐसे सज्जन व्यक्ति के विषय में संस्कृत भाषा के महाकवि कालिदास ने 'मेघदूतम्' महाकाव्य में कहा है-
         याञ्चा मोघा अधिगुणे नाधमे लब्धकामा।
अर्थात् सज्जन यदि हमारी याचना को ठुकरा दें तो वह दुर्जनों द्वारा पूरी की गई उस प्रार्थना से अधिक अच्छी है।
           यह श्लोकांश यही स्पष्ट करता है कि सज्जन निस्वार्थ होते हैं और यदि हमारी किसी विनती को ठुकराते हैं तो हमारे भले के लिए होता है। दुर्जन हमेशा दूसरों का अहित चाहते हैं। इसलिए उनकी सहायता भी हानिकारक होती है। उसमें उनका स्वार्थ छुपा होता है।
            पारस रूपी इन महानात्माओं के संसर्ग में आकर मूर्ख से मूर्ख मनुष्य भी सोना बन जाता है। डाकू वाल्मीकि इसी प्रकार सोना बनकर घर-घर में श्रद्धा से पढ़ी जाने वाली महाती रामायण कथा के  रचनाकार बने। अंगुलीमाल डाकू महात्मा बुद्ध के संपर्क से महान सन्त बने। महामूर्ख कालिदास विद्वानों के सहयोग से महकवि बनकर आज भी विश्व के आकाश में नक्षत्र की तरह चमक रहे हैं। इतिहास में हमें अनेकों उदाहरण मिल जाएँगें, जहाँ लोहे जैसे अज्ञानी मनुष्य सोना बन गए और उन्होंने संसार को दिशा दी।
           हमें ऐसे पारसों को श्रमपूर्वक ढूंढकर उनका सानिध्य करना चाहिए ताकि हमारे हृदयों में विद्यमान लौह तुल्य बुराइयों से मुक्त होकर हम पारस रूपी सद् गुणों से युक्त होकर संसार में अपना एक स्थान बना पाएँ। इनके साथ से हमारा चहुॅंमुखी विकास निश्चित है। अत: घाटे का सौदा छोड़ कर यथासम्भव अपना हित साधने का यत्न करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

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