वर्ण व्यवस्था
भारत में सामाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए ऋषियों के द्वारा वर्णाश्रम व्यवस्था का विधान किया गया। स्मृतियों में न्याय व्यवस्था का चित्रण है। वहॉं अपराध के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान है। आज हम वर्ण-व्यवस्था के विषय में चर्चा करेंगे। समाज को चार वर्णों में विभक्त किया गया। चारों वर्ण और उनके कार्यों का विभाजन निम्नलिखित हैं-
1. ब्राह्मण- कार्य था अध्ययन-अध्यापन
2.क्षत्रिय- कार्य था रक्षा करना
3. वैश्य- कार्य था व्यापार करना
4. शूद्र- कार्य था सेवा करना
उस समय जो व्यक्ति जिस कार्य के योग्य होता था, वह वही कार्य करता था। जो लोग अध्ययन-अध्यापन का कार्य करते थे, उन्हें ब्राह्मण कहा जाता था। शिक्षण करने वाले ये विद्वान समाज के सभी वर्गों को शिक्षित करने का कार्य करते थे। उस काल में गुरुकुल प्रथा थी। जो ब्रह्मचारी या बच्चे वहॉं पर विद्याध्ययन करने आते थे, उनका सम्पूर्ण व्यय गुरुकुल के द्वारा वहन किया जाता था। जब शिष्य या बच्चा अपनी शिक्षा पूर्ण कर लेता था, तभी वह अपने घर वापिस जाता था।
आजकल तो शिक्षा के लिए विद्यालय हैं। यहॉं जो बच्चे पढ़ते हैं, वे प्रातः अपने विद्यालय आते हैं और छुट्टी होने पर घर चले जाते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ आवासीय विद्यालय भी हैं। यहॉं पढ़ने वाले छात्र छुट्टियों के समय अपने घर जाते हैं। आज बच्चे की शिक्षा पर व्यय होने वाला सारा खर्च माता-पिता को करना होता है। विभिन्न शिक्षण बोर्ड द्वारा परीक्षा ली जाती यह। फिर छात्रों को अपने विषय के आधार पर कॉलेज में जाना होता है। यह दोनों काल की शिक्षा प्रणाली का अन्तर है।
देश और समाज की रक्षा का दायित्व सम्हालने वाले वीर योद्धाओं को क्षत्रिय कहा जाता था। इनका प्रमुख कार्य राज्य की रक्षा करना होता था। इसके अतिरिक्त दूसरे राजाओं के आक्रमण करने पर, वे अपने राजा के साथ युद्ध के मैदान में जाकर अपने पराक्रम का परिचय दिया करते थे। जैसा कि आजकल भी होता है। तीनों सैनाऍं हर समय देश की सुरक्षा के लिए सन्नद्ध रहती हैं। उसी प्रकार उस समय भी सैनिक तैयार रहते थे। आज की ही भॉंति उन्हें भी उनके शौर्य के लिए राजा पुरस्कृत किया करते थे।
समाज में व्यापार करने वालों को वैश्य कहा जाता था। यह सब प्रकार के सामानों का विक्रय किया करते थे। उस समय भी कुछ लोग अपने व्यापार को दूर-दूर तक फैलाते थे। इस सिलसिले में वे विदेश भी जाया करते थे। वहॉं जाकर अपना सामान बेचकर धन कमाकर लाते थे। बहुत समय तक वे लोग आज की तरह अपने घर-परिवार से दूर रहा करते थे।
इनके अतिरिक्त जो अध्ययन, रक्षा तथा व्यापार का कार्य नहीं कर सकते थे, वे सेवाकार्य करते थे। चारों वर्णों में परस्पर बहुत सौहार्द होता था। छोटा काम या बड़ा काम वाली बात कहीं नहीं होती थी। समाज के सभी लोग अपनी बुद्धि और सामर्थ्य के अनुसार अपना-अपना कार्य किया करते थे। यह समाज का विभाजन मात्र था ताकि सामाजिक ढाँचे की सुचारू व्यवस्था हो सके। कोई भी व्यक्ति इन चारों वर्णो की सहायता के बिना एक दिन भी नहीं गुजार सकता था।
उस काल में यह वर्ण विभाजन मनुष्य के जन्म के आधार पर नहीं अपितु कर्म के अनुसार किया गया था। भगवान श्रीकृष्ण ने 'श्रीमद्भगवद्गीता' में कहा है-
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः
अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि गुण और कर्मों के आधार पर चारों वर्णों - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र की रचना की गई है।
भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार गुण और कर्मों के आधार पर चारों वर्णों की रचना की है। जो व्यक्ति जिस कर्म को करना जानता है, वह उस वर्ण का है। वर्ण किसी खान्दान या पूर्वज के कर्म पर नहीं चलेगा। अर्थात् गुण और कर्म के अनुसार। यहॉं झगड़े की कोई गुॅंजाइश है ही नहीं कि मैं महान हूँ और तुम हीन हो अथवा तुच्छ हो। मनु महाराज ने 'मनुस्मृति:' में कहा है -
जन्मन: जायते शूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते।
कहने का तात्पर्य है कि जन्म से हर व्यक्ति शूद्र अर्थात् संस्कार रहित पैदा होता है। जब उसका संस्कार किया जाता है तब वह द्विज बनता है।
द्विज ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य को कहते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय किसी कुल या वंश विशेष में उत्पन्न होने से मनुष्य को वैसा नहीं मान लिया जाता था बल्कि जिस कर्म को वह अपनाता था, उसी के अनुरूप ही उसकी पहचान बनती होती थी। दूसरे शब्दों में कहें तो यह श्लोक प्राचीन भारत की वर्ण व्यवस्था से सम्बन्धित है। यह इस बात की पुष्टि करता है कि यह व्यवस्था जन्म से निर्धारित नहीं होती थी बल्कि कर्म से इसका निर्धारण होता था।
हम इस कथन को इस प्रकार समझते हैं। यदि ब्राह्मण अपना अध्ययन-अध्यापन का कार्य छोड़कर व्यापार करता है तो शास्त्र के अनुसार उसे वैश्य कहा जाना चाहिए। इसी प्रकार वैश्य यदि अध्ययन-अध्यापन का कार्य करता है तो वह ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है। इसी प्रकार यदि कोई तथाकथित शूद्र अध्ययन करके योग्य बनकर अध्ययन-अध्यापन का कार्य करता है तो शास्त्रों के अनुसार वह ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है। एवंविध यदि कोई ब्राह्मण रक्षाकार्य करता है तो वह निश्चित ही क्षत्रिय कहलायेगा। समाज का विभाजन इस प्रकार कर्म के आधार पर किया गया था, न कि जन्म के आधार पर।
बहुत दुख की बात है कि कुछ सदियों से ऐसा नहीं हो रहा है। धर्म के तथाकथित ठेकेदारों ने अपने स्वार्थ के लिए इन सभी वर्णों को रूढ़ बना दिया है। इसीलिए हम विवादों में उलझते जा रहे हैं। मुझे आशा है कि आप सभी सुधीजन मेरे इन विचारों से सहमत होंगे। आजकल सोशल मीडिया का समय है। इसका उद्देश्य ही अपने विचारों का आदान-प्रदान करना है। इस चर्चा को बिना किसी पूर्वाग्रह के आगे बढ़ाएँगे तो समाज के लिए यह एक सकारात्मक प्रयास होगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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