शनिवार, 31 मई 2025

पारस पत्थर

पारस पत्थर

पारस पत्थर के विषय में बहुत सुना और पढ़ा है। कहते हैं लोहे को यदि पारस पत्थर छू ले तो लोहा सोना बन जाता है। सोचना यह है कि पारस पत्थर में ऐसी क्या विशेषता है कि वह लोहे को सोना बनाता है। 
          हम में से किसी ने ऐसा पत्थर नहीं देखा पर प्रायः सुनते रहते हैं इसके विषय में। वैसे सुनने में बहुत अच्छा लगता है पर स्वप्न जैसा प्रतीत होता है। सभी सोचते हैं काश ऐसा पत्थर हमें मिल जाए तो हम मालामाल हो जाएँ। ऐसा नहीं हो पाता। सब ईश्वरीय इच्छा है यह कहकर सन्तोष कर लेते हैं। मिलना वही होता है जो हमारे भाग्य में है, न उससे अधिक और न उससे कम।
             हम उस काल्पनिक पत्थर की चर्चा तो प्रायः करते हैं पर हमारे मध्य विद्यमान पारसों को हम अपने अहं के कारण नहीं पहचान पाते। आप कहेंगे कि यह क्या मजाक है? यदि हमारे आसपास पारस है तो फिर हमें दिखाई क्यों नहीं देता? 
           इन सब प्रश्नों के उत्तर में यही कह सकते हैं कि हमारे बीच विद्यमान हंस की भाँति नीरक्षीर विवेकी महापुरुष ही पारस हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उन्हें अच्छे व बुरे की पहचान होती है। जिस तरह हंस पात्र में पड़े हुए दूध में से दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है। उसी प्रकार ये सज्जन पुरुष भी हित-अहित के विषय में हमें चेताते रहते हैं।
          विवेकशील होना ही उनका सर्वोपरि गुण होता है। अपने इस गुण के कारण वे दूसरों में भी सोचने-समझने की शक्ति को विकसित करना चाहते हैं। हम सबके हित चिन्तक वे सदा हमें सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करते हैं। कुमार्ग से विमुख करने का प्रयास करते हैं। वे महापुरुष या सज्जन इसीलिए हैं कि वे बादलों की तरह जो कुछ भी इस संसार से ग्रहण करते हैं, उसे अपने पास न रखकर समाज के हित में लगा देते हैं। वे ऐसे फलदार वृक्ष होते हैं जो प्रसन्नतापूर्वक अपना सर्वस्व देश, धर्म व समाज के लिए अर्पित कर देते हैं।
         ये महानुभाव नारियल के फल की तरह मन से सहृदय होते हैं, ऊपर से चाहे वे कितने ही कठोर दिखाई दें। उनकी कठोरता भी हमारे लिए हितकारी होती है। वे अनावश्यक ही किसी का पक्षपात नहीं करते। ऐसे सज्जन व्यक्ति के विषय में संस्कृत भाषा के महाकवि कालिदास ने 'मेघदूतम्' महाकाव्य में कहा है-
         याञ्चा मोघा अधिगुणे नाधमे लब्धकामा।
अर्थात् सज्जन यदि हमारी याचना को ठुकरा दें तो वह दुर्जनों द्वारा पूरी की गई उस प्रार्थना से अधिक अच्छी है।
           यह श्लोकांश यही स्पष्ट करता है कि सज्जन निस्वार्थ होते हैं और यदि हमारी किसी विनती को ठुकराते हैं तो हमारे भले के लिए होता है। दुर्जन हमेशा दूसरों का अहित चाहते हैं। इसलिए उनकी सहायता भी हानिकारक होती है। उसमें उनका स्वार्थ छुपा होता है।
            पारस रूपी इन महानात्माओं के संसर्ग में आकर मूर्ख से मूर्ख मनुष्य भी सोना बन जाता है। डाकू वाल्मीकि इसी प्रकार सोना बनकर घर-घर में श्रद्धा से पढ़ी जाने वाली महाती रामायण कथा के  रचनाकार बने। अंगुलीमाल डाकू महात्मा बुद्ध के संपर्क से महान सन्त बने। महामूर्ख कालिदास विद्वानों के सहयोग से महकवि बनकर आज भी विश्व के आकाश में नक्षत्र की तरह चमक रहे हैं। इतिहास में हमें अनेकों उदाहरण मिल जाएँगें, जहाँ लोहे जैसे अज्ञानी मनुष्य सोना बन गए और उन्होंने संसार को दिशा दी।
           हमें ऐसे पारसों को श्रमपूर्वक ढूंढकर उनका सानिध्य करना चाहिए ताकि हमारे हृदयों में विद्यमान लौह तुल्य बुराइयों से मुक्त होकर हम पारस रूपी सद् गुणों से युक्त होकर संसार में अपना एक स्थान बना पाएँ। इनके साथ से हमारा चहुॅंमुखी विकास निश्चित है। अत: घाटे का सौदा छोड़ कर यथासम्भव अपना हित साधने का यत्न करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

शुक्रवार, 30 मई 2025

अभिवादनशील व्यक्ति

अभिवादनशील व्यक्ति 

यथायोग्य अभिवादन करने वाला व्यक्ति जो नित्य प्रति अपने से बड़ों की सेवा करता है उसकी आयु, विद्या, यश और बल में बढ़ोतरी होती है। इस भाव को निम्न श्लोक में बड़ी ही सुन्दरता से व्यक्त किया गया है-
       अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
     चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्॥
यह तो सीधा-सा गणित है चाहे इसे आप मानें चाहे न मानें। जो मनुष्य सबका अभिवादन करता है अर्थात् बड़ों को प्रणाम, अपने बराबर वालों से स्नेह पूर्वक सौहार्द रखता है व छोटो के सिर पर प्यार से हाथ रखकर आशीष देता है वह विनम्र होता है। ऐसा विनयी व्यक्ति सबका प्रिय होता है।
          श्लोक में दूसरी बात कही है बड़े-बजुर्गो की सेवा करने की। दूसरों की सेवा करना मनुष्य का परम सौभाग्य होता है। बड़े-बजुर्गो को जो एक आयु के पश्चात अशक्त होने लगते हैं, उन्हें सेवा करवाने की बहुत आवश्यकता होती है। उनकी सेवा का अर्थ है उनकी आवश्यकताओं को पूरा करना। ऐसा सद् कार्य जो करता है वह सौभाग्यशाली सेवाभावी सबका मन मोह लेता है।
            विनम्र होना और सेवाभावी होना, ये दोनों गुण सोने पर सुहागा होते हैं। जिस मनुष्य में ये दोनों गुण होते हैं, वह आम जन न रहकर खास जन बन है। उसकी उपस्थिति मात्र से ही सब लोग निश्चिन्त हो जाते हैं क्योंकि उसे सभी संकटमोचक की तरह देखते हैं।
          सब बड़ों का आशीर्वाद उस मनुष्य को मिलता है। लोग ऐसे व्यक्ति की दीर्घायु की कामना करते हैं। कहते हैं कि श्राप फलीभूत होते हैं। यदि श्राप फलता है तो निश्चित ही आशीर्वाद का भी फल मिलता है। जब बहुत से लोग उसकी दीर्घायु की कामना करेंगे तो उसकी आयु बढ़ेगी। यहाँ एक बात करना आवश्यक है कि हमारी आयु कितनी है, यह बताना सम्भव नहीं होता। हमारे पूर्वकृत कर्मों के आधार पर ही हमें ईश्वर आयु निर्धारित करके इस संसार में भेजता है। 
           यहाँ हम उस आयु की चर्चा कह सकते हैं कि वे व्यक्ति मरणोपरान्त भी हमारे हृदयों में जीवित रहते हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनकी चर्चाएँ होती रहती हैं। इतिहास भरा पड़ा है ऐसे महान पुण्यात्माओं के उल्लेख से।
            अपने जीवन में विद्या अध्ययन हर मनुष्य करता है। इससे उसे ज्ञान प्राप्त होता है व चहुँमुखी प्रतिभा का विकास होता है। वह योग्य बनकर घर-परिवार, देश, धर्म और समाज के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहण करता है। परन्तु जब मनुष्य वृद्धजनों के पास बैठता है तो उनके अनुभव जन्य ज्ञान से बहुत कुछ सीखता है। इस प्रकार उसके सांसारिक ज्ञान की वृद्धि होती है।
            सदा अभिवादन करने से, सबसे आशीर्वाद लेने से और दुनियादारी की समझ होने से मनुष्य का यश चारों ओर फैलता है। जैसे कस्तूरी को कितनी भी परतों में छिपा लो वह खुशबू ही फैलाती है। उसी प्रकार ये लोग अपने निश्छल स्वभाव से यश, मान सम्मान के भागीदार बन जाते हैं।
           सबके प्रिय होने से इनका साथ देने के लिए बहुत से लोग आगे बढ़ते हैं। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि उनका बल बढ़ता है। किसी परेशानी में अगर ये लोग घिर जाएँ तो अनेकों हाथ इनका साथ निभाने के लिए उठ जाते है अर्थात् भौतिक बल बढ़ जाता है। इसी से मनुष्य की अपनी एक पहचान बनती है।
           मनुष्य सामाजिक प्राणी है। यदि वह अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझेगा तो समाज से कटकर अकेला हो जाता है। इसके विपरीत समाज में अपना एक स्थान बनाता है तो सभी उसे अपने सिर आँखों पर बिठाते हैं। इसी की चर्चा इस श्लोक के माध्यम से हमने की है। अब मार्ग का चुनाव हमें स्वयं करना है।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 29 मई 2025

बिना प्राण के शरीर मिट्टी

बिना प्राण के शरीर मिट्टी

शरीर प्राण के बिना मिट्टी हो जाता है। इसका कोई मूल्य नहीं रह जाता। जो शरीर कुछ समय पहले जीवन्त होता है, वहीं पलक झपकते निष्प्राण हो जाता है। इसे कुछ समय के लिए भी प्रियजन अपने घर में नहीं रख सकते। सभी यही कहते हैं जल्दी करो अन्यथा इस मृत शरीर से दुर्गन्ध आने लगेगी। जिस शरीर को हम निहारते नहीं थकते, दिन भर सजा-संवार कर रखते हैं, उसे ही पलक झपकते अपने प्रिय से प्रिय बन्धु-बान्धव अग्नि के हवाले कर देते हैं।
            हमारे इन प्राणों को चलाने के लिए ईश्वर ने सारा तामझाम किया है। हमारे शरीर में विद्यमान सभी अंगों-प्रत्यंगों का निर्माण इसी उद्देश्य से किया है। ईश्वर ने हर जोड़ पर एक आटोमेटिक मोटर फिट की हुई है जिनके कारण हम अपने जोडों को हिलाडुला सकते हैं और उन्हें मोड़ सकते हैं। भौतिक मोटरें कुछ समय चलने के उपरान्त जाम हो जाती हैं या खराब हो जाती हैं। उसी प्रकार ईश्वर प्रदत्त ये मोटरें भी कभी-कभी जाम हो जाती हैं या खराब हो जाती हैं। 
          ये सब हमारी गलती से होता है। आप कहेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है? हम क्योंकर परेशान होना चाहेंगे? पर इसका कारण हमारा असंयमित आहार-विहार होता है। हम चटपटा जंक फूड खाना पसन्द करते हैं। सन्तुलित भोजन नहीं हमें बेस्वाद लगता है। इसके अतिरिक्त हमारा जागना, सोना व खाना निश्चित समय पर न होकर अनियमित समय पर होता है। स्वयं पर हम ध्यान नहीं देते, लापरवाही बरतते रहते हैं। इसलिए से हमारा शरीर अस्वस्थ होने लगता है।
            इनके जाम होने पर या टूट जाने की स्थिति में हमें डाक्टरों के पास ईलाज करवाने के लिए चक्कर लगाने पड़ते हैं। अन्धाधुन्ध पैसा खर्च करना पड़ता है। बहुत समय तक फिजीयोथेरेपी करवानी पड़ती है। पूर्णरूपेण स्वस्थ होने में समय लगता है। इस समस्या से आसानी से छुटकारा नहीं मिलता। कभी-कभी तो ये अंग टेढ़े हो जाते हैं या मुड़ जाते हैं। उस स्थिति में मनुष्य को बहुत कष्ट का सामना करना पड़ता है।
          उस समय हम अपने कर्मों को दोष देते हैं या फिर भगवान को कोसते हैं। ऐसा करके अपने-आप को हम सांत्वना तो दे देते हैं पर अपनी आदतों में सुधार लाने के विषय में नहीं सोचते। हाँ, आयु बीतने पर जब वृद्धावस्था आती है तब इनकी कार्यशक्ति क्षीण हो जाती है। आयु बीतने पर शरीर  नया जन्म पाने के लिए मृत्यु की ओर बढ़ता है। जैसे अन्य भौतिक मोटरें भी समय रहते पुरानी होकर चलने में असमर्थ हो जाती हैं व उसे फैंककर नई खरीदनी पड़ती है।
         इन मोटरों के अतिरिक्त हमारे शरीर में ईश्वर ने एक पम्प या टुल्लू पम्प भी फिट किया हुआ है जो हमारे हृदय में लगा हुआ है। वह रक्त प्रवाहित करने का कार्य करता है। इसके ठीक से कार्य न कर पाने की स्थिति में हृदय में अवरोध(blockage) हो जाती है। इससे मनुष्य की साँस फूलने लगता है व बेचैनी होने लगती है। उस समय स्टन्स डालकर इसका उपचार किया जाता है। ईश्वर न करे यदि heart attack हो जाए तो प्राण घातक भी हो सकता है।
       इस हृदय का उपचार करवाने में लाखों रूपये व्यय करने पड़ते हैं। उस समय डाक्टरों के परामर्श पर खानपान में जबरदस्ती सुधार करना पड़ता है। तब सादा भोजन खाना पड़ता है। सभी जंक फूड मन मारकर त्यागने पड़ते हैं। यदि समय रहते स्वेच्छा से हम अपनी आदतों में सुधार कर लें तो समय और परिश्रम से कमाए गए गए धन की बर्बादी नहीं होगी। यह सत्य है कि आयु पर्यन्त औषधियों का गुलाम बनकर हमें जीवन जीने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। 
          यह हमारे ऊपर अब यह निर्भर करता है कि हम कैसा जीवन जीना चाहते हैं? रोगी  रहकर खाने-पीने से लाचार होकर जीना चाहते हैं या स्वस्थ रहकर सुख-शान्ति से जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। मेरे विचार में सभी लोगों को स्वस्थ रहना ही अधिक उपयुक्त प्रतीत होगा। इसीलिए महाकवि कालिदास ने कहा है- 
            शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।
अर्थात् स्वस्थ शरीर धर्म के पालन के लिए सबसे पहला साधन है।
          शरीर स्वस्थ होगा तभी हम अपने धर्म या कर्त्तव्य का पालन कर सकते हैं। शरीर के रोगी होने पर मनुष्य स्वयं के कार्य करने के लिए लाचार हो जाता है। उस अवस्था में औरों के लिए वह कुछ भी नहीं कर सकता। जब तक जीवन है तब तक हमें स्वस्थ रहने का यथासम्भव प्रयास करना चाहिए। अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए हमें उचित आहार-विहार के नियमों का पालन करना चाहिए। वास्तव में नीरोगी काया मनुष्य के लिए ईश्वर का वरदान है।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 28 मई 2025

मित्र और शत्रु हमारे व्यवहार से

मित्र और शत्रु हमारे व्यवहार से 

मित्र और शत्रु हमें ईश्वर की ओर से उपहार में नहीं दिए जाते बल्कि इस संसार के आने के पश्चात हम स्वयं अपने लिए चुनते हैं। ईश्वर केवल हमें हमारे सम्बन्धियों को उपहार में देता है। हम अपने आचार और व्यवहार से लोगों को अपना या पराया बनाते हैं। आचार्य चाणक्य कहते हैं कि न कोई किसी का मित्र है और न ही कोई किसी का शत्रु है। हम अपने व्यवहार से शत्रु और मित्र बनाते हैं- 
      न क: कस्यचित् शत्रु: न क: कस्यचित् मित्रम्।
       व्यवहारेण जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा।।
        मित्र बनाना और मित्रता करना बहुत सरल है परन्तु उनके साथ रिश्ते निभाना बहुत कठिन है। मित्रता तभी दूर तक साथ निभाती है जब तक उसमें दिखावा न हो और आपसी सामंजस्य बना रहे। मित्रता में किसी प्रकार के स्वार्थ की गुंजाइश नहीं होती। मित्रता ऊँच-नीच, जात-पात, अमीर-गरीब आदि किसी बन्धन को नहीं मानती। भगवान कृष्ण और सुदामा की मित्रता से बढ़कर इसका उदाहरण और कोई नहीं हो सकता।
          हमारे स्वार्थ जब टकराते हैं तब वह मित्रता नहीं रहती व्यापार बन जाती है। ऐसी मित्रता स्थायी नहीं होती। जब स्वार्थ पूरे हो जाते हैं तब मित्रता टूट जाती है और तथाकथित मित्र एक-दूसरे के दुश्मन तक बन जाते हैं। उस समय वे एक-दूसरे का चेहरा भी नहीं देखना चाहते। यह तो मित्रता नहीं कहलाती और न ही उसकी कोई उपयोगिता होती है।
           मित्रता की परख विपत्ति के समय होती है। कहते हैं श्मशान के द्वार तक जो साथ निभाता है वास्तव में वही वास्तव में हमारा सच्चा मित्र कहलाता है। सही मायने में यही मित्र की पहचान होती है। कभी-कभी लोग दूसरे के धन-वैभव व उच्च पद के कारण मित्रता का प्रदर्शन करते हुए साथ जुड़ते हैं जैसे गुड़ के चारों ओर मक्खियाँ आती हैं। ऐसी जी हजूरी वाली स्वार्थपरक मित्रता अस्थायी होती है।
           शत्रु बनाना सबसे आसान है। हम अपनी स्वयं की गलतियों से लोगों को शत्रु बना बैठते हैं। हमारा झूठा अहं, हमारा अविवेक, हमारा जनून ही हमारे शत्रु बनाता  है। हमें ज्ञात नहीं होता कि कब हम अपने शुभ चिन्तकों को नाराज कर देते हैं और अपने पैर खुद ही कुल्हाड़ी मार लेते हैं। एवंविध जाने-अनजाने हम अपने शत्रुओं की संख्या बढ़ाते रहते हैं।
          राजनीति में तो समीकरण नित्य प्रति बदलते रहते हैं। आज जो मित्र है पता नहीं कब वह अपना दल बदलकर दूसरे विरोधी दल में चला जाए। आज आँख बन्द करके अपने नेता पर विश्वास करने वाला कल प्रतिपक्ष में जाकर पलक झपकते ही घोर विरोधी बन जाता है। फिर उनकी धज्जियॉं उड़ाने लगता है।
          राजनीतिक समीकरण आम जन की समझ से परे है। वहाँ शत्रु व मित्र की पहचान करना बहुत कठिन है। पता ही नहीं चलता कि कौन मित्र हैं और कौन शत्रु। इसका कारण है सत्तालोलुपता। सत्ता को पाने के लिए किसी को भी बाप बनाया जा सकता है और  किसी से विलग होने की स्थिति बनने अथवा होने पर ऐसी दुश्मनी का प्रदर्शन किया जाता है मानो उनमें सदियों से शत्रुता है। जनता की आँखों में धूल झोंकते सभी राजनीतिज्ञ वास्तव में एक ही होते हैं।
        आचार्य चाणक्य एक कुशल राजनीतिज्ञ थे इसलिए उनका यह कथन आज की राजनीतिक शत्रुता और मित्रता पर सटीक बैठता है।
        हर मनुष्य को सोच-समझ कर व्यवहार करना चाहिए जिससे शत्रुओं की संख्या नगण्य हो। मित्रों का चुनाव सोच-समझ कर करना चाहिए। हमारे मित्रों की संख्या चाहे कम हो पर वे हमारे सच्चे व अच्छे मित्र हों।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 26 मई 2025

परिश्रम से कार्य सिद्ध

परिश्रम करने से कार्य सिद्ध

परिश्रम करने से ही मनुष्य के कार्य सिद्ध होते हैं, केवल कामना करने से नहीं। इसी विचार को निम्न श्लोक में उदाहरण सहित कवि ने बहुत सुन्दर शब्दों में बताया है-
     उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
   न हि सुप्तस्य सिंहस्य मुखे प्रविशन्ति मृगाः॥
इस श्लोक में कवि ने जंगल के राजा शेर का सटीक उदाहरण दिया है। शेर बेशक जंगल का राजा कहलाता है और कोई अन्य पशु शक्ति में उसका मुकाबला नहीं कर सकता फिर भी भोजन के लिए उसे शिकार करना पड़ता है। उनका राजा भूखा है ऐसा सोचते हुए कोई भी पशु उसके मुँह में स्वयं ही नहीं चला जाता। अर्थात् कोई भी व्यक्ति शक्तिशाली क्यों न हो जाए, उसे अपने लिए रोटी कमानी पड़ती है। उसे स्वयं परिश्रम करना पड़ता है। घर बैठे उसकी रोजी-रोटी का प्रबन्ध नहीं हो सकता। उसे हाथ-पैर चलाने पड़ते हैं।
      इसका अर्थ यह है कि चाहे कोई मनुष्य कितना भी शक्तिशाली या धनवान क्यों न हो उसे परिश्रम करने पर ही सफलता प्राप्त होती है। वह स्वयं चलकर नहीं आती कि भाई लो मैं आ गयी अब तुम ऐश करो। परिश्रमी व्यक्ति ही अपने लक्ष्य को पा सकते हैं। चाहे वह शेर जैसे खूंखार और हाथी जैसे बलशाली पशुओं को वश में करने का कार्य ही क्यों न हो। वह अपनी मेहनत से आकाश की ऊँचाइयों को छूने का हौंसला रखता है। समुद्र की गहराई में पैठकर मोती निकाल कर ले आता है। ऐसा ही व्यक्ति निस्सन्देह हम सबके जीवन के ऐशो-आराम के लिए तरह-तरह अविष्कारों से हमें चमत्कृत कर देता है।
      जीवन में हाथ पर हाथ रखकर बैठने वाला अर्थात् परिश्रम से जी चुराने वाला मनुष्य जीवन में कभी आगे नहीं बढ़ पाता और न ही सफलता की बुलन्दियों को छू सकता है। आलसी व्यक्ति भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ रखकर बैठता है। वह सोचता है कि अपने-आप ही उसे मनचाहा प्राप्त हो जाएगा।मलूक दास जी के अनुसार ऐसा आलसी मनुष्य बस यही सोचता रहता है-
     अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
     दास मलूका कह गए सबके दाता राम॥
अर्थात् अजगर किसी की चाकरी या नौकरी नहीं करता और पक्षी भी काम नहीं करता फिर भी भगवान उन सबको भोजन देता है, उनका पेट भरता है। वे लोग सोचते हैं कि ईश्वर उन आलसियों का भी पालन-पोषण करेगा। इसलिए वे निश्चिन्त होकर बैठे रहना चाहते हैं।
          ऐसे लोग इस पृथ्वी पर भार की तरह होते हैं। वे अपना व अपने परिवार की आवश्यकताओं को प्रायः पूर्ण नहीं कर सकते। इसलिए हर ओर से  वे तिरस्कृत होते हैं। उनके पत्नी और बच्चे भी उनसे प्रसन्न नहीं होते। इस प्रकार घर-परिवार में भी उन्हें अवमानना झेलनी पड़ती है। ऐसे लोग सारा जीवन अभावों में व्यतीत करते हैं। सारा जीवन असन्तुष्ट रहते हैं, कभी सन्तुष्टि नहीं प्राप्त कर सकते। जो लोग अपने जीवन में सफल होते हैं, उनसे वे ईर्ष्या करते हैं। ये लोग भूल जाते हैं कि केवल भाग्य के आश्रित रहकर दुनिया में जीना कठिन होता है। 
        इसके विपरीत केवल पुरुषार्थ के बल पर भी अपना स्थान बना पाना नामुमकिन तो नहीं कठिन अवश्य होता है। पुरुषार्थ और भाग्य दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों का संयोग सोने पर सुहागा होता है। वैसे कहा यह भी जाता है कि मनुष्य अपने भाग्य का विधाता स्वयं है या उसका भाग्य उसके अपने हाथ में है। वह जैसा चाहे अपना मार्ग स्वयं चुन सकता है। उसके लिए बस दृढ़ इच्छा शक्ति का होना परम आवश्यक है।
        पुरुषार्थ करने वाले व्यक्ति को सभी पुरुषसिंह कहते हैं। वह अपने इस छोटे से जीवन में जो प्राप्त करना चाहता है हासिल करके ही चैन लेता है। यदि जीवन में उसे कभी असफलता का मुँह देखना भी पड़ जाए तो हिम्मत न हार कर चींटी की तरह अपने कर्मक्षेत्र में पुनः उत्साहित होकर पूर्णरूपेण जुट जाता है। फिर सफल हो जाता है। सफलता प्राप्त करने के दिन-रात एक करके जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है व पसीना बहाना  पड़ता है तब जाकर वह हमारे कदम चूमती है। इसलिए आलस्य का त्याग करके नव स्फूर्ति व नये उत्साह से अपने लक्ष्य प्राप्ति से जुट जाएँ और सफल बनें।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 25 मई 2025

अपने रहस्यों को प्रकट न करें

अपने रहस्यों को प्रकट न करें 

अपने रहस्यों को कभी दूसरों के समक्ष प्रकट नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से स्वयं की हानि होती है। दूसरे को उन्नति करते देखकर बहुत कम लोग हैं जो प्रसन्न होते हैं। आजकल प्रायः लोग एक-दूसरे की टाँग खींचने में ही व्यस्त रहते हैं। अपनी हानि भले ही हो जाए पर दूसरा आगे न बढ़े, यह घातक प्रवृत्ति पनपती जा रही है। इस स्वार्थ वृत्ति के कारण हम पिछड़ रहे हैं।
         'चाणक्यनीति:' में आचार्य चाणक्य ने कहा बहुत सुन्दर शब्दों में हमें बताया है - 
      मनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत् ।
     मन्त्रवत् रक्षयेद् गूढं कार्य चापि नियोजयेत् ।।
अर्थात् मन में सोचे हुए कार्य को मुख से बाहर नहीं निकालना चाहिए। मन्त्र के समान गुप्त रखकर उसकी रक्षा करनी चाहिए। गुप्त रखकर ही उस काम को करना भी चाहिए।
          इस श्लोक में कहा है अपने रहस्य या अपनी योजना की मन्त्र के समान रक्षा करनी चाहिए। वेद, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद आदि हमारे महान ग्रन्थ हैं। प्राचीन काल में श्रवण परम्परा के कारण वेदों को श्रुति ग्रन्थ कहते हैं। उस समय आज की भॉंति प्रिंटिंग की सुविधा नहीं थी। गुरु परम्परा से शिष्य वेदपाठ करके उन्हें कण्ठस्थ करते थे। इस पर भी वेद मन्त्रों की संख्या ज्ञात है। इसीलिए आचार्य चाणक्य ने मन्त्र के समान रहस्य की रक्षा करने के लिए कहा है।
        जी-तोड़ परिश्रम करके मनुष्य योजना बनाता है। यदि उस योजना का वह बिना हल्ला किए या शोर मचाए क्रियान्वयन कर ले तो उसमें सफलता प्राप्त कर सकता है। परन्तु यदि योजना को कार्य रूप में परिणत करने से पूर्व उसे सार्वजनिक कर दिया जाए तो हो सकता है कि मामूली-सा परिवर्तन करके कोई अन्य उस योजना का लाभ उठा ले। जिसने श्रम करके योजना बनायी है, वह ठगा हुआ महसूस करे और देखता ही रह जाए। ऐसा भी हो सकता है कि लाभ लेने के स्थान पर उसे हानि ही उठानी पड़ जाए। उस समय सिर धुनकर रोने का कोई लाभ नहीं होता। उस समय फिर वही स्थिति हो जाएगी- 
'अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।'
         अत: समझदारी इसी में है कि अपना कार्य चुपचाप करो। कार्य सफलतापूर्वक जब पूर्ण हो जाएगा तो बिन कहे ही सबको पता चल जाएगा कि अमुक व्यक्ति ने ऐसा कार्य किया है।
            यहॉं हम अपने देश भारत का उदाहरण लेते हैं। यदि पोखरण में परमाणु विस्फोट से पहले विश्व में चर्चा फैल जाती तो शायद विश्व के दबाव में आकर हमें यह कार्यक्रम रद्द करना पड़ जाता। शायद आज तक भी हम परमाणु सम्पन्न राष्ट्र न बन पाने का दुख मना रहे होते। शत्रु देश के चेलेंज का सामना करने के लिए विवश होते।
           इसी प्रकार राष्ट्रीय सुरक्षा की योजनाएँ यदि किसी भी तरह से शत्रु देश के हाथ लग जाएँ तो देश में असुरक्षा का वातावरण बन जाएगा। शत्रु देश उन सभी योजनाओं के सफल होने से पूर्व हमला करके देश को हर प्रकार से कमजोर बना सकता है। उस पर अपना आधिपत्य भी जमाकर उस देश को अपने अधीन कर सकता है।
            इसी प्रकार निष्ठुर आतंकवादी संगठन जन-साधारण के जान-माल की परवाह किए बिना गुपचुप होकर बड़े खुफिया तरीके से अपनी कुयोजनाओं को अंजाम देते हैं। उसमें सफल भी हो जाते हैं। अगर उनके रहस्य खुफिया एजेंसियों को, सी बी आई को, रॉ को या सरकार को पहले पता चल जाऍं तो उनके कुत्सित षडयन्त्र का पर्दाफाश हो सकता है। और फिर उन आतताइयों को मुँह की खानी पड़ सकती है।
             इसी प्रकार अपने मन के रहस्यों को भी किसी के सामने प्रकट नहीं करना चाहिए। यदि अपने दुख किसी को विश्वस्त मानकर बताएँगे तो हो सकता है कि सामने तो वह आपके दुख में दुखी होने का ढोंग करे। परन्तु पीठ पीछे सबके सामने नमक-मिर्च लगाकर, चटकारे लेकर आपका उपहास करे। तब तो लोगों को चर्चा करने का एक अवसर मिल जाएगा।
          अपनी खुशी यदि बाँटना चाहेंगे तो लोग तब भी मजाक बनाएँगे और पीठ पीछे कहने से नहीं चूकेंगे कि जरा-सी सफलता क्या मिली इसके तो पैर ही जमीन पर नहीं पड़ रहे। पता नहीं अपने को क्या समझता है। यह बहुत ही घमण्डी होकर आसमान में उड़ने का प्रयास रहा है।
           अपनी योजनाओं को बनाने में सावधानी बरतना बहुत आवश्यक है। इसी प्रकार अपने मन के भावों को यथासम्भव प्रकट न किया जाए, यही सभी के लिए हितकार होता है। अपने-आप को सन्तुलित रखें और दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति करते हुए आगे बढ़ते जाएँ।
चन्द्र प्रभा सूद 

शनिवार, 24 मई 2025

धन का सदुपयोग कीजिए

धन का सदुपयोग कीजिए 

आयुपर्यन्त भागदौड़ करके बहुत ही परिश्रम से हम अपने जीवन में धन कमाते हैं। उसका अर्जन करने के लिए दिन-रात की परवाह किए बिना कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहते हैं। धन जीवन में बहुत ही अनिवार्य है। उसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। खन पसीने से कमाए उस धन का सदुपयोग करते हुए हम अपने सभी पारिवारिक, धार्मिक तथा सामाजिक दायित्वों को निभाते हैं। बच्चों को समाज में उनका उचित स्थान दिलाने के लिए भरसक यत्न करते हैं। हम अपने उद्देश्यों में बहुत सीमा तक सफल भी होते हैं।
         अपनी सारी जिम्मेदारियों को निभाते हुए हम भारतीय यह कदापि नहीं भूलते कि धूप-छाँव या अपने अच्छे-बुरे समय के लिए थोड़ा धन बचाकर रखना आवश्यक होता है। इससे भी बढ़कर हम यह चाहते हैं कि सुखमय वृद्धावस्था के लिए भी हमारे पास कुछ धन सुरक्षित रहे जिससे कभी पराश्रित न होना पड़े। अपनी दैनन्दिन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी का मुँह न ताकना पड़े या फिर बच्चों के समक्ष भी हाथ न फैलाना पड़े। ईश्वर की कृपा से अपने सिर पर छत भी बनी रहनी चाहिए।
        हमारी भारतीय विचारधारा बहुत गहराई से जीवन के हर मोड़ पर हमारा मार्ग प्रशस्त करती है। यही कारण है कि क्रोना काल में जिस समय पूरा विश्व मन्दी के दौर से गुजर रहा था, उस समय अमेरिका जैसे वैभवशाली देश के कई बैंक डूब गए थे। हमारे देश में चाहे गरीबी का प्रतिशत अधिक है फिर भी हमारी अर्थ व्यवस्था चरमराई नहीं। थोड़ी परेशानी तो अवश्य हुई पर देश मन्दी में भी उभर गया था। उसका एक ही कारण था देशवासियों की छोटी-बड़ी बचतें जो लोग अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार करते रहते हैं।
        इस बचत अभियान की बदौतल ही हम अपने आपको सुरक्षित महसूस करते हैं। यद्यपि कुछ लोग चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए वाली सोच वाले भी होते हैं। वे खाने-पहनने यानी हर जगह कंजूसी करते हुए बस जोड़ने में ही लगे रहते हैं। यह प्रवृत्ति घर-परिवार के लिए घातक होती है। आयुपर्यन्त परिवारी जन अभावों में जीने के लिए विवश होते हैं। परन्तु जब ऐसे व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त बच्चों को अनायास ही इतना अधिक धन मिल जाता है। तब प्रायः वे उस धन को सम्हाल नहीं पाते। उसको दुरुपयोग करने लगते हैं।
         कुछ लोग चोरी-डकैती, भ्रष्टाचार, दुराचार, नीति-अनीति का मार्ग अपनाकर दूसरों का गला काटकर भी धन बटोरने की जुगत करते रहते हैं। हर प्रकार के टैक्स की चोरी से भी बाज नहीं आते। वे बड़े अहंकार से कहते हैं कि हमने अपनी आने वाली पॉंच पीढ़ियों की सुरक्षा का प्रबन्ध कर लिया है। परन्तु वे भूल जाते हैं-
        पूत कपूत तो का धन संचै
       पूत सपूत तो का धन संचै।
अर्थात् यदि सन्तान योग्य होगी तो हमसे भी अधिक कमा लेगी और यदि नालायक निकली तो सब बर्बाद कर देगी। इसलिए जो सच्चाई व ईमानदारी से कमाया जाए अर्थात् जो सात्विक कमाई होती है बरकत उसी में होती है।
      धन कमाकर हम धन-सम्पत्ति बढ़ाते जाते हैं। भौतिक पदार्थों यानी घर, गाड़ी, वस्त्र, जूते-चप्पल, पर्स और ऐशोआराम के सभी साधन हम जुटाने में लगे रहते हैं जिन सबका उपभोग भी हम अपने जीवन काल में नहीं कर पाते। हमारी मृत्यु के पश्चात सब कुछ यहीं रह जाता है। हमारा वह जमा धन जिसकी जानकारी पत्नी-बच्चों को हो तो ठीक रहता है, नहीं तो बैंक में ही पड़ा रहता है। जब तक जीवित रहते हैं तब तक हमें लगता है कि हमारे पास जो पैसा है वह कम है और उसे बढ़ाने के चक्कर में कोल्हू का बैल बन जाते हैं।
            धन से हम भौतिक पदार्थ- कपडे़, जेवर, जूते, धन-सम्पत्ति, ठाठबाट, गाड़ी, नौकर-चाकर आदि जुटा सकते हैं परन्तु अपने लिए हम अच्छा स्वास्थ्य, प्रसन्नता, रिश्ते-नाते आदि नहीं खरीद सकते। जीते जी इन सबकी ओर भी ध्यान देना आवश्यक होता है अन्यथा अन्त समय में मन में बस मलाल रह जाता है। धन जीवन जीने के लिए बहुत आवश्यक है पर वह सब कुछ नहीं है। उससे से हम बहुत कुछ खरीद कर सकते हैं पर उसे अपने सिर पर सवार नहीं होने देना चाहिए। रावण की तरह अहंकार को अपने पास भी नहीं फटकने देना चाहिए। तभी सही मायने में हम अपने जीवन का आनन्द ले सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

शुक्रवार, 23 मई 2025

अतिथि ईश्वर का रूप

अतिथि ईश्वर का रूप 

भारतीय संस्कृति में हमें समझाया जाता है, 'अतिथि देवो भव' अर्थात् अतिथि यानी घर आए मेहमान को भगवान मानो। ऐसा हमें समझाकर अतिथि का सम्मान करना सीखाने वाली भारतीय सांकृतिक परम्परा ही हो सकती है। इसके अतिरिक्त कोई अन्य नहीं। हमारी संस्कृति हमें प्रतिदिन पॉंच महायज्ञों को करने के लिए आदेशित करती है। वे यज्ञ इस प्रकार हैं -  ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ, और अतिथियज्ञ। इन पाँच महायज्ञों का पालन करके कोई भी गृहस्थ अपने जीवन को धार्मिक और सामाजिक रूप से समृद्ध बनाने में  सफल हो सकता है।
          इन पॉंच महायज्ञों में अतिथियज्ञ का विधान किया गया है। हमारे ग्रन्थों के अनुसार अतिथि साधु, सन्तों या विद्वानों को कहते थे। ये वे लोग होते थे जो दुनियादारी से दूर रहकार समाज को दिशा-निर्देश दिया करते थे। ऐसे ज्ञानी जन कभी भी किसी भी गाँव या प्रदेश में चले जाते थे। जहाँ शाम या रात हो गयी वहीं डेरा डाल लेते थे। वहीं पर जन-साधारण को ज्ञानोपदेश देकर एक-दो दिन रुककर फिर आगे निकल जाते थे।
          ये विद्वत जन मोह-माया के बन्धनों से परे रहते थे। किसी भी एक स्थान पर अधिक समय तक नहीं ठहरते थे। इन लोगों के आने का कोई निश्चित समय नहीं होता था। इसलिए इन्हें 'अ + तिथि' यानी बिना तिथि के आने वाला कहते थे। सद् गृहस्थ जो भी भोजन उन्हें प्रेमपूर्वक परोसते थे, उसे वे बिना नखरा किए खा लिया करते थे। वास्तव में ये अतिथि समाज की धरोहर होते थे जिनके भरण-पोषण करने का दायित्व समाज पर होता था। ये समाज पर बोझ नहीं होते थे बल्कि समाज का उचित मार्ग दर्शन करके उनकी आत्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते थे।
        आजकल अतिथि के मायने भी बदल गए हैं। अतिथि तो अब भी हमारे घरों में आते हैं पर बिना बताए नहीं आते। आज के इस भौतिक युग में चारों ओर मारामारी हो रही है, आपाधापी मची हुई है। किसी को किसी से मिलने का समय ही नहीं होता है। सच्ची बात तो यह है कि कोई किसी से मिलना ही नहीं चाहता। सभी अपने को तीसमारखाँ समझते हैं। अगर मजबूरी में मिलना भी पड़े तो सभी को भारी पड़ता है। इसलिए सब लोग समय न होने का रोना रोते रहते हैं।
        वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है केवल हममें इच्छा शक्ति की कमी है। वैसे अपनी मर्जी से व्यर्थ में हम घण्टों बर्बाद कर देते हैं। खैर, फिर भी मेहमानों का आना जाना तो लगा ही रहता है। मेहमान भी अब बहुत समझदार हो गए हैं। वे भी दूसरे की मजबूरी जानते हैं। इसलिए बिना पूर्व सूचना के नहीं आते। जो लोग हमें पसन्द होते हैं उनका स्वागत हम गर्मजोशी से करते हैं। जिन्हें हम नापसन्द करते हैं उनके घर आने पर हम अनमने हो जाते हैं। उनका सत्कार हम करते तो हैं पर भार समझ कर।
      आज के युग में किसी के घर में कुछ दिन रहने की बात बड़ी विचित्र-सी प्रतीत होती है। परन्तु कुछेक स्थितियों में रहने के लिए भी जाना होता है। जब किसी के घर रहने की आवश्यकता हो तो मनुष्य को अपने अतिथि धर्म का निर्वहण करना चाहिए। कहना यही है कि मेहमान को दूसरे के घर में मेहमान न बनकर घर के सदस्य की भाँति व्यवहार करना चाहिए। ऐसा करने पर वह बोझ नहीं बनता बल्कि सबका प्रिय बन जाता है। जब वह पुनः कभी वहाँ जाता है तो खुले दिल से उसका स्वागत किया जाता है।
        इसके विपरीत जो व्यक्ति अपनी अकड़ में रहकर दूसरे के घर की व्यवस्था के अनुरूप ढलना नहीं चाहता, वह अतिथि अपने मेजबान की आँखों में खटकने लगता है। उससे कोई प्रसन्न नहीं होता और सभी यही मनाते हैं कि वह शीघ्र ही चलता बने। मित्रों अथवा सम्बन्धियों के घर पर जाते समय अपनेआप को सन्तुलित रखना चाहिए। बच्चों को भी अनुशासन में रहने के लिए समझाना चाहिए। तभी किसी के घर जाने पर सम्मान मिलता है। बच्चों की उद्दण्डता के कारण भी कई बार अतिथि व आतिथेय में मनमुटाव हो जाता है। इस अप्रिय स्थिति से हमेशा बचने का प्रयास करें।
          अतिथि को भगवान की तरह मानने की परम्परा वाले अपने भारत देश में आज समय व परिस्थितियों के चलते कुछ स्वाभाविक बदलाव आ गए हैं परन्तु आज भी अतिथि का स्वागत-सत्कार अपनी सामर्थ्य के अनुसार किया जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 22 मई 2025

रिश्ते ईश्वर की ओर से उपहार

रिश्ते ईश्वर की ओर से उपहार 

अपने रिश्तों का चुनाव हम नहीं करते बल्कि वे हमारे कर्मों के अनुसार ईश्वर की ओर से बनाकर भेजे जाते हैं जबकि अपने मित्रों का चुनाव हम स्वयं करते हैं। ये रिश्ते जितना हमारा सम्बल बनते हैं उतने ही नाजुक भी होते हैं। बड़ी सूझबूझ से इन रिश्तों को निभाना होता है। जरा-सी लापरवाही होने पर इनमें दरार आने लगती है। रिश्तों के विषय में कहा जाता है कि वे कच्चे धागों से बॅंधे होते हैं। कितने सुन्दर शब्दों में इसी भाव को निम्नलिखित दोहे में समझाया है-
         रूठे सुजन मनाइए जो रूठें सौ बार।
        रहीमन फिर फिर पोहिए टूटे मुक्ताहार॥
अर्थात् रहीम जी कहते हैं कि यदि अपने प्रियजन किसी कारण से रूठ जाऍं तो उन्हें बार-बार मनाना चाहिए। जैसे मोतियों की माला टूट जाती है तो उसे हम बार-बार पिरोते हैं।
        इन रिश्तों में पारदर्शिता होनी बहुत आवश्यक है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि सभी रिश्ते अपने-आप में बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। सबके साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। तभी सभी नाजुक रिश्ते बने रहते हैं। किसी रिश्ते को को अधिक महत्त्व देना और किसी रिश्ते का त्याग करना उचित नहीं होता क्योंकि मनुष्य अपने भाई-बन्धुओं से ही समाज में सुशोभित होता है। सभी सुख-दुख भी अपने बन्धु-बान्धवों के साथ ही मिलजुल कर ही काटे जाते हैं।
        आज भौतिक युग में धन को बहुत अधिक अधिक महत्त्व दिया जाने लगा है। अपने नजदीकी रिश्तों को भी स्वार्थ के तराजू में तोला जाने का रिवाज बनता जा रहा है। जब तक स्वार्थों की पूर्ति होती रहती है तब तक सम्बन्ध बने रहते हैं। ऐसे सम्बन्ध लम्बे समय तक नहीं चला करते। स्वार्थ के पूर्ण होते ही रिश्तों आपसी सौहार्द प्रायः समाप्त हो जाता है। ऐसे सम्बन्ध स्वस्थ रिश्तों के लिए घातक होते हैं। 
            धन-सम्पत्ति आजकल बहुधा झगड़े का कारण बनती जा रही है। परिवारों में उसके बटवारे को लेकर कोर्ट-कचहरी तक में जाने में भी लोग हिचकिचाते नहीं हैं। इस कारण परिवारी जन एक-दूसरे का चेहरा तक नहीं देखना चाहते। वहाँ सम्बन्धों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। 
         बड़ा आश्चर्य होता है कि यह देखकर कि लोग दूसरों से दोस्ती गाँठते हैं, उनके साथ सम्बन्ध बनाते हैं पर अपने भाई-बहनों से बात करके राजी नहीं होते। उनका चेहरा तक नहीं देखना चाहते। बाद में चाहे वे तथाकथित मित्र उन्हें धोखा दे जाएँ। उस समय वे उन्हें कोसते हैं पर कुछ कर नहीं पाते। उस समय वही कहावत सिद्ध होती है-
           अब पछताए होत क्या 
         जब चिड़िया चुग गई खेत।
        होना तो यह चाहिए कि अपने घर-परिवार में यदि कोई भाई-बहन पैसे से कमजोर है तो उसकी सहायता करनी चाहिए। परन्तु लोग उससे किनारा करना चाहते हैं। वे उससे बातचीत तक रखना नहीं चाहते। उससे यथासम्भव दूरी बनाए रखने में अपनी महानता समझते हैं। मनुष्य भूल जाते हैं कि लक्ष्मी किसी की सगी नहीं है। वह कहीं पर स्थायी होकर नहीं रहती। पता नहीं जीवन के किस मोड़ पर किसी सम्बन्धी की उन्हें आवश्यकता पड़ जाए, कोई नहीं कह सकता।
        वे सोचते हैं कि पैसे के बल पर दुनिया खरीद लेंगे पर भूल जाते हैं कि रिश्ते-नाते पैसे से नहीं खरीदे जाते। यह पूँजी ईश्वर ने हमें दी है इसे सहेज कर रखना हमारा दायित्व है। जीवन ऐसा समय अवश्य आता है जब अपनों के साथ की बहुत आवश्यकता होती है। जो लोग रिश्तों का मूल्य समझते हैं वे प्रसन्नता पूर्वक उस समय अपनों के साथ का आनन्द उठाते हैं और दूसरे पछताते हैं कि काश कोई अपना होता। जब अपनों को पराया करते हैं उस समय नहीं सोचते कि कभी उनके बिना जीवन व्यतीत करना कठिन हो जाएगा। रहीम जी ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है-
       रहीमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाए।
       जोड़े से फिर न जुड़े जुड़े गांठ पड़ी जाए॥
अर्थात् रहीम जी कहते हैं कि प्रेम के धागे को मत छोड़ो। उसे यदि जोड़ने का प्रयास करेंगे तो वह पहले की भॉंति नहीं जुड़ सकते, उनमें एक गॉंठ बन जाती है।
        अपने प्रिय जनों से बिछुड़ने का दंश झेलना बहुत कठिन होता है। यह तो कोई भुक्तभोगी ही समझा सकता है। हमारे बड़े-बजुर्ग बहुत अच्छी बात कहा करते थे- 
       अपना मारेगा तो भी छाया में फैंकेगा
अर्थात् जो दर्द अपनों को होता है वह दूसरों को नहीं होता। अपना कोई यदि मारेगा भी तो छाया में ही फेंकेगा।
        यथासम्भव रिश्तों की मिठास बनाए रखने का यत्न करें। अपने तो अपने ही होते हैं। पराए मुखौटा लगाकर अपने हो सकते हैं पर वे अपने बन नहीं सकते। इसलिए उन्हें स्वयं से दूर न करिए। थोड़ा झुककर भी साथ निभाना पड़े तो उसे अन्यथा न सोचें। ईश्वर भी उन्हीं लोगों से प्रसन्न होता है जो उसके द्वारा बनाए गए सम्बन्धों को सद् भावना से निभाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 21 मई 2025

पराई स्त्री माता के समान

पराई स्त्री माता के समान

पराई स्त्री को माता के समान मानने वाला और दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले की तरह जानने वाला और अपनी ही तरह सभी जीवों को जो देखता है या समझता वही वास्तव में विद्वान कहलाता है। ये सुन्दर भाव निम्नलिखित श्लोक में कहे गए हैं-
       मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत्।
     आत्मवत्सर्वभूतेषु य: पश्यति स पण्डित:॥
इस श्लोक में सबसे पहले यह समझाया है कि पराई स्त्री को माता की तरह मानो। यदि हर व्यक्ति इस उक्ति का मनन कर जीवन में ढाल ले तो तथाकथित सभ्य समाज की बहुत-सी बुराइयों का अन्त हो जाएगा। बलात्कार जैसी घिनौनी हरकत कोई नहीं करेगा। घर, बाहर, आफिस आदि किसी स्थान पर यौनशोषण की समस्या नहीं रहेगी। स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों से भी मुक्ति मिल जाएगी। 
            तब समाज में चारों ओर स्वच्छ तथा स्वस्थ वातावरण का निर्माण होगा। महिलाएँ खुली हवा में साँस ले सकेंगीं। अपनी इच्छा से स्वतन्त्रतापूवर्क कहीं भी आ जा सकेंगी। कन्या भ्रूणहत्या की नृशंस समस्या से समाज इस समय त्रस्त हो रहा है, उससे भी मुक्ति मिलेगी। इस श्लोक के माध्यम से कवि ने बहुत बड़ी बात कह दी है। इस पंक्ति में भारतीय संस्कृति का सार बसा है।
           इसके पश्चात श्लोक में कहा है कि दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझो। यदि हम किसी दूसरे के धन को मिट्टी मान लेंगे तो कोई किसी की धन-सम्पत्ति पर कुदृष्टि नहीं डालेगा। चौरी-डकैती, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, लूटपाट जैसे दुष्कर्म करने से मनुष्य तौबा कर लेगा। घरों में मोटे-मोटे ताले लगाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। घर खुला रहने पर भी चिन्ता नहीं होगी। क्योंकि चोरी तो कोई करेगा नहीं। बड़ी-बड़ी तिजोरियों में धन को सुरक्षित रखने की आवश्यकता ही नहीं होगी। मनुष्य दूसरों के धन पर अपनी नजर नहीं डालेगा तो उसके मन में परिश्रम व ईमानदारी से कमाए अपने धन से सन्तोष उपजेगा। कहते हैं- 
       गोधन गजधन बाजिधन और रतनधन खान।
       जब आए संतोष धन सब धन धूरी समान॥
अर्थात् सन्तोष रूपी धन परिवार की बुराइयों से रक्षा करता है। सन्तान को सुयोग्य बनाता है जिस पर माता-पिता, देश व समाज गर्व करता है।
      ऐसे कमाए अपने धन में बहुत बरकत होती है। गलत रास्ते से कमाये हुए धन का दुरूपयोग अधिक होता है। माना यही जाता है- 
               चोरी का धन मोरी में 
                       और भी 
            चोरी का माल लट्ठों के गज। 
कहने का तात्पर्य है कि ऐसे धन को व्यर्थ बर्बाद करने या लुटाने में कष्ट नहीं होता।
         श्लोक की अगली पंक्ति बहुत व्यवहारिक ज्ञान देती है। अपने समान दूसरे को समझो। इसका अर्थ है कि जैसा व्यवहार हम अपने लिए दूसरों से चाहते हैं वैसा ही व्यवहार हमें दूसरों के साथ करना चाहिए। हम चाहते ही कि सभी लोग हमारे साथ सहृदयता, आत्मीयता का व्यवहार करें तो हमें भी दूसरों के प्रति सहृदय व आत्मीय होना होगा। यदि सम्मान चाहिए तो दूसरों को सम्मान दो और प्यार चाहिए तो सभी जीवों से प्यार करो।
        दूसरे शब्दों में कहें तो दूसरों से यदि हम दूसरों से दुर्व्यवहार या नफरत करेंगे तो वही मिलेगा। इसीलिए विद्वान कहते हैं-
               जैसा बोओगे वैसा काटोगे
                          और 
       बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाय
           हम अपने जीवन में वही प्राप्त करते हैं जो हम दूसरों में बाँटते हैं, चाहे वह अच्छाई हो या बुराई, सम्मान हो अथवा अपमान। इसलिए अपने समान सभी को समझने वाला मनुष्य ही सही अर्थों में विद्वान होता है। ऐसे महापुरुषों का संसर्ग किसी भी व्यक्ति के लिए हमेशा ही उन्नतिकारक होता है। वास्तव में ये लोग सच्चे अर्थों में मानवजाति के शुभचिन्तक होते हैं।
         इन भावों को आत्मसात करके यदि मनुष्य अपने जीवन में अपना ले तो वह महान बन जाता है। ऐसा करने पर संसार की बहुत-सी बुराइयाँ स्वतः समाप्त हो जाएँगी।
चन्द्र प्रभा सूद 

मंगलवार, 20 मई 2025

जीवन वर्ग पहेली की तरह चोकोर

जीवन वर्ग पहेली की तरह चोकोर

जीवन एक वर्ग पहेली की तरह चोकोर है जिसे हम लोगों के लिए सुलझाना टेढ़ी खीर जैसा है। हमा में से कोई भी चोकोर होना नहीं चाहता। समस्या यह है कि हमारे चाहने से कुछ नहीं होता। हम अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीना चाहते हैं पर हमारी नजरों से ओझल वह मालिक हम सबकी डोर थामे रहता है। हमें ईश्वर कठपुतलियों की तरह जैसा चाहे वैसा नाच नचाता रहता है। यद्यपि वह हमें हमारे कर्मों के अनुसार ही सब कुछ देता है परन्तु उसके न्याय को समझ पाना हम जैसे साधारण  लोगों के लिए सम्भव नहीं है।
         पहेली सुलझाते समय हम शब्द बनाते हैं व लिखते हैं पर फिट न बैठने पर उन्हें मिटाते हैं और सही शब्दों के बनने तक फिर-फिर यही क्रिया दोहराते हैं। उसी तरह हम सारा जीवन हम बार-बार गलतियाँ करते हैं और क्षमा याचना करके अपनी भूल सुधारना चाहते हैं। यह बात अलग है कि हम उसमें सदा सफल नहीं हो पाते।
          आयुपर्यन्त हम शुभ की कामना करते हैं। अपनी जिम्मेवारियों को निपटाने में जुटे रहते हैं। दिन-रात चौबीसों घण्टे जी तोड़ परिश्रम करते हैं और घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों व समाज के प्रति अपने दायित्व निभाते हैं। जब हमें यह लगता है कि सारे दायित्वों से मुक्त होकर अब हम चैन की सांस लेंगे तब वह मालिक घण्टी बजा देता है और हमें अपने पास बुला लेता है।
          कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी होश सम्हालने से लेकर मृत्यु पर्यन्त कोई ऐसा क्षण मानव जीवन में नहीं आता जब वह यह कह सके कि ये पल मैंने बड़े सुकून से गुजारे हैं। सारा समय जो मैंने गुजारा यह मेरा अपना है।
          चोकोर होने का अर्थ है कि एक ही ढर्रे पर जीवन जीना। दूसरे शब्दों में कहें तो नीरस जीवन व्यतीत होना। केवल एक ही प्रकार से जीवन यापन करना तो बहुत ही कठिन होता है। मानव मन हमेशा कुछ-न-कुछ नया चाहता है क्योंकि उसे नवीनता ही भाती है।
           हम एक ही आकृति को यदि बार-बार देखते रहें तो हम अपना आपा खोने लगते हैं। उसे उठाकर बाहर फैंक देना चाहते हैं अथवा बदल देना चाहते हैं। जीवन में यदि एकरूपता रहे तो भी मनुष्य परेशान हो जाता है। कभी-कभी डिप्रेशन का शिकार हो जाता है। फिर बस डाक्टरों के चक्कर और पैसे की बरबादी होने लगती है।
          चोकोर या वर्ग के अतिरिक्त और भी कई आकृतियाँ होती हैं। उसी प्रकार हमारे जीवन में भी बहुविध रंग एवं परिस्थितियाँ होती हैं। ये स्थितियाँ सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि के रूप में हमारे समक्ष आती हैं। इन अलग-अलग रंगों में रंगे हम कभी प्रसन्न होते हैं और कभी चीख-पुकार करते हैं। 
        कल्पना कीजिए कि यदि ईश्वर सबको एक ही जैसा रंग-रूप देता तो चारों ओर एक ही शक्ल व एक ही रंग के लोग दिखते तब कितना बोरिंग लगता। इसी तरह सभी लाल, काले, सफेद या नीले किसी एक ही रंग के कपड़े पहनते तो वातावरण कैसा दिखाई देता? तब सब कितना नीरस प्रतीत हो जाता। और यदि एक ही स्टाइल के या एक ही रंग के कपड़े सभी लोग पहनते तो यह सब भी अच्छा नहीं लगता।
           ऐसे ही यदि सभी लोग एक ही तरह के अन्न-फल खाते तब भी मनभावन न हो पाता। अगर सभी फल-फूल, पेड़-पौधे आदि एक ही रंग व लम्बाई-चौड़ाई यानी माप के होते तो प्रकृति कितनी बदरंग दिखाई देती। उसकी सुन्दरता उसकी विविधता में है।
          ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि में हर प्रकार की जो विविधता दिखाई देती है, वह आकर्षक होती है। वह हमेशा हमें मोहित करती है। संसार में रहते हुए हम ईश्वरीय चमत्कारों से चमत्कृत होते रहते हैं। हम ईश्वर के इस विधान में कोई कमी नहीं निकाल सकते। अपने जीवन में होने वाले ऊबाऊपन का त्याग करके हमें उसका अनुग्रहीत होना चाहिए जिसने इस जीवन में हमें सब कुछ दिया है।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 19 मई 2025

प्राणों का महत्त्व

प्राणों का महत्त्व 

'छान्दोग्योपनिषद्' में  एक कथा के माध्यम से प्राणों का महत्त्व समझाया गया है। कथा इस प्रकार है - प्राचीन काल में सभी इन्द्रियॉं अपनी-अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने लगीं। यानी आँख, नासिका, कान (श्रवण शक्ति), जिह्वा(बोलने की शक्ति), मन और प्राण सभी अपने आप को श्रेष्ठ बता रहे थे। इसलिए उनमें विवाद होने लगा और फिर उनका झगड़ा बढ़ने लगा। सभी इन्द्रियॉं किसी नतीजे पर नहीं पहुॅंच पा रही थीं।
          अन्त में वे सभी अपने विवाद को सुलझाने के लिए प्रजापति ब्रह्मा जी के पास गए और उन्हें अपने विवाद का कारण बताया। उन्होंने उन सबको कहा, "जिसके शरीर से चले जाने के बाद सब समाप्त हो जाए वही श्रेष्ठ है।" सबने इस सुझाव पर अमल किया।
          सबसे पहले आँखें शरीर से एक वर्ष के लिए बाहर चली गई। लौटकर उसने उन सबसे पूछा, "तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे।" 
          उन सबने उत्तर दिया, "जिस प्रकार एक अन्धा व्यक्ति अपने कानों से सुनता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, जिह्वा से बोलता हुआ और मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम सब भी जीवित रहे।"
        फिर नासिका (सूँघने की शक्ति) एक साल बाहर गई। उसने  वापिस लौटकर सबसे पूछा, "तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे?" 
        उन्होंने ने उत्तर दिया, "जैसे न सूँघते हुए व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, वाणी से बोलता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता वैसे ही हम सब भी जीवित रहे।"
         उसके पश्चात कान (श्रवण शक्ति) एक साल बाहर गई। उसने लौटकर उनसे पूछा, "तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे?"  
         उन सब ने उत्तर दिया, "जैसे एक बहरा व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता वैसे ही हम सब जीवित रहे।"
            फिर वाक्(बोलने की शक्ति) बाहर चली गई। उसने भी लौटकर पूछा, "तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे?"
          उन्होंने ने उत्तर दिया, "जैसे एक गूॅंगा व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम सब जीवित रहे।"
           फिर उसी तरह से मन ने भी एक साल के पश्चात लौटकर उनसे पूछा, "तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे? 
          उन्होंने ने उत्तर दिया, "जैसे बिना मन के बच्चा आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, जिह्वा से बोलता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम सब जीवित रहे।"
         अन्त में जब प्राण शरीर को छोड़कर बाहर निकलने लगे तो पल भर में ऐसा लगने लगा मानो सब कुछ समाप्त हो रहा है। उस समय सभी इन्द्रियाँ एकसाथ चिल्लाने लगीं, "मत जाओ, मत जाओ। तुम्हारे बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। तुम चले जाओगे तो सब समाप्त हो जाएगा। तुम्हीं हम सब में श्रेष्ठ हो।"
          यह उपनिषद् कथा हमें प्राणों का महत्त्व समझा रही है कि उनके बिना इस शरीर का कोई मूल्य नहीं। नश्वर शरीर में रहने वाली अनश्वर आत्मा को हम भूल जाते हैं। शरीर के इर्दगिर्द घूमते रहते हैं और इसी को सजाते-संवारते रहते हैं। इस बात को भी नजरअंदाज कर देते हैं कि रूप-यौवन जल्दी ही ढल जाएगा। यह आत्मा युगों-युगों तक रूप बदलती रहती है। अत: आत्मज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सार्थक करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 18 मई 2025

धन की गतियॉं

धन की गतियॉं

जीवन यापन करने हेतु मनुष्य के लिए धन की महती आवश्यकता होती है। इसके बिना जीवन की कल्पना करना कठिन है। मनुष्य अपने परिवार की सुख-समृद्धि के लिए दुनिया भर के साधनों को जुटा लेना चाहता है। उसके लिए कठोर परिश्रम करता है। वह न दिन देखता है न रात, बस कोल्हू के बैल की तरह बन जाता है। निस्सन्देह वह अपने इस प्रयास में सफल भी हो जाता है। अब प्रश्न उठता है कि इस धन का संरक्षण किस प्रकार किया जाए? मनीषियों ने इसका बहुत सरल-सा उपाय हमें बताया है।
          धन की तीन तरह की गतियॉं होती हैं- दान देना, उसका उपभोग करना और नाश हो जाना। इसी बात को हमें समझाते हुए भर्तृहरि जी ने अपने ग्रन्थ 'नीतिशतकम्' में बहुत ही सुन्दर शब्दों में समझाते हुए कहा है- 
     दानं भोगो नाशः तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य। 
   यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।।
अर्थात् धन की तीन गतियॉं होती हैं। अपनी ईमानदारी व परिश्रम से कमाए गए धन का कुछ अंश दान देना चाहिए। उसका कारण है कि हम सामाजिक प्राणी हैं और समाज से जाने-अनजाने बहुत कुछ लेते हैं। अत: समाज की भलाई के लिए परोपकारार्थ हमें अपनी आत्मिक संतुष्टि के लिए दान करना चाहिए। यह धन की पहली स्थिति है और धन का सदुपयोग कहलाता है।
           धन की दूसरी गति है उसका उपभोग करना, सदुपयोग करना। यदि हम अपने खून-पसीने से कमाए पैसे को बच्चों की शिक्षा, उन्हें जीवन में व्यवस्थित करने, घर-परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने में धन व्यय करते हैं तो हम धन का सदुपयोग कर रहे हैं। यहाँ मैं एक बात और जोड़ना चाहती हूँ कि धन यदि ईमानदारी, सच्चाई से कमाया जाए तो उसमें बहुत बरकत होती है। इसके विपरीत यदि धन भ्रष्टाचार, बेइमानी, दूसरों को धोखा देकर अर्थात् नाजायज तरीके से कमाया जाए तो वह धन उसी तरह व्यय भी होता है। ऐसा धन व्यसनों में, बिमारी आदि में खर्च होता है, चोर-डाकुओं को लूट का रास्ता दिखाता है अथवा दामाद के काम आता है। ये सब मैं नहीं कह रही हमारे ग्रन्थ कहते हैं। कभी-कभी ऐसा धन बच्चों की बर्बादी का कारण भी बनता है।
          सच्चाई व ईमानदारी से धन कमाने वाले जीवन में बहुत अधिक उदारता से शायद उसे खर्च न कर सकें पर बड़ी शान्ति से अपना जीवन जीते हैं। परन्तु गलत तरीकों से धन कमाने वाले भौतिक रूप ऐश अवश्य करते हुए दिखाई हैं। वे पानी की तरह पैसा बहा सकते हैं पर हमेशा एक के बाद एक परेशानी से घिरे रहते हैं। वे सदा मन से डरे हुए रहते हैं। उनके समक्ष उस धन को सुरक्षित रखने की समस्या रहती है।
           धन की तीसरी गति है नाश। धन का दान न करके, उपयोग न करके सिर्फ जोड़ने की प्रवृत्ति यदि मनुष्य की रहेगी या कहें कि 'चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए' वाली आदत धन के विनाश का कारण बनती है। ऐसा धन बुराइयों का कारण बनता है। जीते जी जब मनुष्य धन पर कुण्डली मारकर बैठता है तो उसकी मृत्यु के पश्चात अनायास मिले धन का प्रायः बच्चे दुरूपयोग करते हैं। वे अपनी जायज-नाजायज इच्छाओं पर उस धन को बर्बाद कर देते हैं।
          पहले जमाने में लोग जमीन में धन को  गाढ़कर सुरक्षित रखते थे। ऐसा धन जो परिवार की जानकारी में नहीं होता था, वह पता नहीं कब और किसके उपयोग में आता था। सालों-साल जमीन में दबा रह जाता था। आज भी ऐसे धन की कमी नहीं। पति-पत्नी दोनों ही एक-दूसरे से और यहाँ तक कि बच्चों से छुपाकर धन संग्रह करते हैं। उसे हवा भी नहीं लगने देते। उन में से यदि किसी एक की भी मृत्यु हो जाए तो दूसरा साथी या उनके बच्चे इस धन से अनभिज्ञ रहते हैं। इसी तरह बेनामी सम्पत्ति की भी यही स्थिति होती है।
           प्राकृतिक आपदाओं यानी भूकम्प, बाढ़, भूस्खलन आदि के कारण भी धन-सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। इस तरह धन का विनाश हो जाता है। कवि का मत है कि यदि धन को दान में न दिया जाए, अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने में न लगाया तब धन की तीसरी गति होती है यानी उसका नाश हो जाता है।
           धन जीवन में बहुत कुछ है पर सब कुछ नहीं है। धन से सुख-सुविधा के साधन जुटाए जा सकते हैं परन्तु सुख, स्वास्थ्य, प्रसन्नता, रक्त सम्बन्ध आदि खरीदे नहीं जा सकते। इसलिए धन-सम्पत्ति पर व्यर्थ ही अभिमान नहीं करना चाहिए। जहाँ यह जीवन में खुशियाँ देता है, वहीं अनेक मुसीबतों का कारण भी बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

शनिवार, 17 मई 2025

भाग्य और पुरुषार्थ अन्योन्याश्रित

भाग्य और पुरुषार्थ अन्योन्याश्रित

भाग्य और पुरुषार्थ दोनों अलग-अलग हैं। मनुष्य का भाग्य पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार बनता है। इसे हम इस प्रकार समझते हैं। हम नित्य प्रति कर्म करते रहते हैं। बिना कार्य किए हम पल भर भी नहीं रह सकते। इनमें कुछ अच्छे कर्म होते हैं और कुछ विपरीत कर्म। इन कर्मों का शुभाशुभ फल हमें प्राप्त होता रहता है। हमारे कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका फल हमें तुरन्त प्राप्त नहीं होता। यही कर्म पूर्वजन्मों के शेष बचे हुए कर्मों के साथ जुड़ जाते हैं। यही कर्म प्रारब्ध कहलाते हैं। इन्हीं कर्मों के द्वारा हमारा भाग्य निर्मित होता है। इसी बात को तुलसीदास जी 'रामचरितमानस' में कहते हैं -
         प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर।
        तुलसी चिन्ता क्यों करें भज ले श्री रघुवीर।।
अर्थात् मनुष्य के इस संसार में जन्म लेने से पूर्व ही उसके प्रारब्ध या भाग्य का निर्धारण हो जाता है। उन्हीं कर्मों के अनुसार मनुष्य को इस जीवन में सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि मिलते हैं। इसलिए चिन्ता छोड़कर ईश्वर का स्मरण करना चाहिए।
          पुरुषार्थ का अर्थ है प्रयास, परिश्रम और संकल्प से प्राप्त होने वाली चीजें। इसे मनुष्य का उद्देश्य या लक्ष्य भी कह सकते हैं। व्यक्ति अपनी लगन, परिश्रम और बुद्धिमानी से सफलतापूर्वक अर्जित कर सकता है। जब तक मनुष्य पुरुषार्थ नहीं करेगा तब तक वह अपने इच्छित लक्ष्य का संधान नहीं कर सकता। केवल भाग्य के भरोसे नहीं बैठना चाहिए। इसलिए मनुष्य को यत्नपूर्वक पुरुषार्थ करते रहना चाहिए ताकि भाग्य से मिलने वाले अवसर को खोने का दुख न होने पाए।
           भाग्य और पुरुषार्थ अन्योन्याश्रित हैं यानी ये दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। इन दोनों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। कर्म के बिना भाग्य फलदायी नहीं होता और भाग्य के बिना कर्म सफल नहीं होता। इस बात को हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि वे दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और एक ही सिक्के के पहलू हैं। सिक्के के दोनों ओर को हम अलग-अलग नहीं कर सकते या दोनों को अलग करना असम्भव कार्य है।
          जब मनुष्य का भाग्य प्रबल होता है तब उसे थोड़ी मेहनत करने पर भी अधिक फल प्राप्त होता है। यदि वह सोचे कि मैं बड़ा बलवान हूँ मुझे मेहनत करने की क्या आवश्यकता है? मेरे पास सब थाली में परोस कर आ जाएगा तो यह उसका भ्रम है। श्रम न करके वह अपना स्वर्णिम अवसर खो देता है। उस समय अहंकार के वशीभूत वह भूल जाता है कि ईश्वर बार-बार अवसर नहीं देता। अवसर खो देने के पश्चात पुनः वह अपना मनचाहा कब प्राप्त करेगा, ऐसा कुछ नहीं कहा जा सकता।
      इसके विपरीत कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य कठोर परिश्रम करता है परन्तु आशा के अनुरूप उसे फल नहीं मिलता। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि वह परिश्रम करना छोड़कर बस निठल्ला बैठ जाए। उस समय वह भाग्य को कोसे या ईश्वर को। मनुष्य को अपने भाग्य और कर्म दोनों को एक समान मानते हुए बार-बार सफलता प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। हमेशा चींटी का श्रम याद रखिए जो पुनः पुनः प्रयास करके अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो जाती है।
         किसी के किसी कवि ने यह बताया है कि कौन-सा मनुष्य लक्ष्मी को प्राप्त करता है -
          उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः,
           दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति।
          दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या, 
          यत्ने कृते यदि न सिद्ध्यति कोऽत्र दोषः।।
अर्थात् लक्ष्मी पुरुषार्थ करने वाले सिंह रूपी मनुष्य के पास आती है। देवता या भाग्य देगा, ऐसा कायर पुरुष कहते हैं। अतः भाग्य का सहारा छोड़कर अपनी शक्ति से कर्म करो। प्रयत्न करने पर भी यदि कार्य में सफलता नहीं प्राप्त होती तो कोई दोष नहीं है। पुनः प्रयास करना चाहिए।
           हम कह सकते हैं कि जब भाग्य का आश्रय छोड़कर मनुष्य पुरुषार्थ का मार्ग अपनाता है तो वह निश्चित ही सफल बनता है। भाग्य तो अपने समय पर फल देता है पर पुरुषार्थ करने वाले अपने रास्ते में आने वाली कठिनाइयों को दूर करके, अपना हाथ बढ़ाकर अपने लक्ष्य को छू लेता है। असफल होने की स्थिति में पुनः प्रयास करना महत्त्वपूर्ण कदम कहलाता है। इसलिए मनीषी कहते हैं -
    मेहनत करने वालों की कभी हार नहीं होती।
           यहाँ मैं चर्चा करना चाहती हूँ कि हर प्रकार की सुख-समृद्धि हमें अपने पूर्वजन्म के किए कर्मों के अनुसार मिलती है। फिर भी हमारे लिए यही उचित है कि हम अपने कठोर परिश्रम की बदौलत ही अपनी सफलताओं को पाने से न चूकें। जब-जब हम अपने बाहुबल पर विश्वास करके कठोर परिश्रम करेंगे तो हमारा भाग्य देर-सवेर हमें अवश्यमेव फल देगा। शर्त यह है कि अवसर की प्रतीक्षा करते हुए हमें हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठना है अन्यथा हम अच्छा अवसर खो देंगे। 
चन्द्र प्रभा सूद 

शुक्रवार, 16 मई 2025

मृत्यु के चिह्न

मृत्यु के चिह्न

हर मनुष्य को अपने विषय में जानने की उत्सुकता होती है। वह अपने जीवन के सभी उतार-चढ़ाव को जानना, समझना चाहता है। इसी प्रकार वह अपनी मृत्यु के विषय में भी सब कुछ जान लेना चाहता है। इसलिए जब भी मौका मिलता है, वह अपना हाथ आगे बढ़ाकर सारी जानकारी जुटाना चाहता है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। हम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि यह मानवीय स्वभाव है। इसके लिए वह ज्योतिषियों के पास भी जाता है। अपनी जन्म पत्रिका बनवाता है।
          आज हम यह चर्चा करेंगे कि मृत्यु का समय किस प्रकार जाना जा सकता है। यानी अब हमारा इस संसार में कितना समय बचा है। हमारे महान ग्रन्थों में इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। शरीर के विभिन्न अंगों के कार्य करने में असमर्थ हो जाने पर ज्ञात किया जा सकता है कि हमारी कितनी आयु शेष बची है।
          'त्रिशिखब्रह्मनोपनिषद्' के मन्त्र 120 से 126 में बताया गया है कि मनुष्य के किन-किन अंगों के कार्य न करने पर उसकी आयु कितनी शेष बच जाती है? उसके लिए उन्होंने कुछ चिह्न बताए हैं जो निम्नलिखित हैं -
       अंगुष्ठादिसवावयवस्फुरनदशनेरपि।
     अरिष्टैरजीवितस्यापि जानियात्क्षयमात्मन:।।
अर्थात् अँगूठे आदि अवयवों में स्फुरण न हो, तो जीवन का अन्त समझना चाहिए। यह जानकर मनुष्य को मोक्ष के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
      ज्ञात्वा यतेत कैवलयप्राप्तये योगवित्तय:।
       पादांगुष्ठे करंगुष्ठे स्फुरणं यस्य न श्रुति:।।
        तस्य संवत्सरादूर्ध्वं जीवितव्यक्षयो भवेत्।।
       मणिबन्धे तथा गुल्फे स्फुरणं यस्य नास्ति।।    
अर्थात् जिसके हाथों और पैरों के अंगूठों में स्फुरण न हो तो मनुष्य के जीवन एक वर्ष में समाप्त हो जाता है। जब मनुष्य के (मणिबन्ध) कलाई और (गुल्फ) टखने का स्फुरण समाप्त हो जाए तब मनुष्य छह मास तक जीवित रहता है।
    षष्णमासवधिरेतस्य जीवितस्य स्थितिर्भवेत्।
     कर्णस्फुरणं यस्य तस्य त्रैमासिकी स्थिति:।।
अर्थात् जब मनुष्य के कर्ण(कान) में स्फुरण न हो तो तीन मास पश्चात मृत्यु हो जाती है।
      कुक्षि मेहनपार्श्वे च स्फुरणानुपलम्भने।
      मासावधिजीवित्सातु दर्शनेतदर्धस्य।।
अर्थात् कुक्षि और उपस्थेन्द्रिय में स्फुरण न हो तो मनुष्य जीवन की अवधि केवल एक मास की शेष बचती है। यदि नेत्रों में स्फुरण न हो तो पन्द्रह दिन का जीवन शेष बचता है।
      आश्रिते जठरे द्वारे दिनानि दश जीवितम्।
     ज्योति: खधोतवद्यस्य तदर्ध तस्य जीवितम्।।
अर्थात् यदि जठर द्वार पर स्फुरण न हो तो दस दिन ही मनुष्य का शेष रह जाता है। और यदि ज्योति जुगनू के समान हो जाए तो पाँच दिनों में मनुष्य की मृत्यु हो जाती है।
     जिह्वाप्रादर्शने त्रीणि दिनानि स्थितिरात्मन:।
    जवालायादर्शनान्ते मृत्युद्विदिने भवति ध्रुवम्।।
अर्थात् जिह्वा(जीभ) के न दिखाई देने पर तीन दिन में मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। यदि ज्वाला न दिखाई दे तो निश्चित ही दो दिनों में मनुष्य की मृत्यु हो जाती है।
         इस सम्पूर्ण समीक्षा का अर्थ यही है कि जब मनुष्य को अपने समक्ष ऐसे लक्षण प्रकट होने लगें, उस समय उसे लापरवाह नहीं होना चाहिए। उसे शीघ्रता से अपने सोचे हुए कार्यों को निपटा लेना चाहिए। ताकि अन्त समय में उसे पश्चाताप न करना पड़े। उसे सच्चे मन से विचार करना चाहिए और उसे अपना मन भगवद् भजन में लगाना चाहिए। अन्तिम समय में भी यदि वह संसार से विमुख होकर ईश्वर की ओर उन्मुख होता है तो भी उसका कुछ हद तक कल्याण सम्भव है।
         इस मरणधर्मा संसार में मृत्यु अटल सत्य है। जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। मृत्यु से कोई भी संसारी जीव बच नहीं सकता। उसे बस अपने कर्मों की शुचिता की ओर ध्यान देना चाहिए।
यह भी सत्य है कि मृत्यु आने पर पल भर की भी मोहलत नहीं मिलती। उस समय मनुष्य चाहे कितनी प्रार्थना कर लें, अथवा मालिक के सामने गिड़गिड़ाए पर अपनी कमाई धन-दौलत के बदले भी वह जीवन का एक पल नहीं खरीद सकता। इसलिए अपना इहलोक और परलोक सुधारने के लिए उस मालिक का स्मरण अनवरत करते रहना चाहिए।  इसके अतिरिक्त और कोई चारा नहीं।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 15 मई 2025

सृष्टि नियम से चलती

सृष्टि नियम से चलती

ईश्वर निर्मित यह सृष्टि आदिकाल से ही अपने नियमानुसार चलती है। उसके इस क्रम में कहीं कोई चूक की कोई सम्भावना नहीं है। न वहॉं किसी प्रकार का कोई आलस्य दिखाई देता है और न ही हम इन्सानों की तरह इन नियमों की अवहेलना की जाती है। सम्पूर्ण प्रकृति अपने नियम से चलती है। कोई उसे न जगाता है और न ही उसे कोई चेतावनी देता है। सूर्य, चन्द्र आदि समस्त ग्रह-नक्षत्र, वायु,  नदियाँ-सागर, पेड़-पौधे आदि सभी अपने नियत नियमों का पालन अबाध गति से करते हैं।    
            एक मनुष्य ही ऐसी रचना है जो सभी नियमों को ताक पर रखने की आदी है। उसे कोई चिन्ता नहीं। उसकी बला से दुनिया भाड़ में जाए। वह तो लापरवाह है, मस्त है। जो होगा देखा जाएगा वाला उसका रवैया सचमुच कष्टदायक है। वह देश, धर्म, समाज और घर-परिवार के नियमों को अपनी सुविधानुसार मानता है। उसे यह चिन्ता नहीं कि उसके ऐसे आचरण का परिणाम क्या होगा? वह तो बहुत प्रसन्न होकर कहता है कि मैं किसी नियम को मानने को लिए बाध्य नहीं हूॅं।
        इसे हम इस प्रकार समझते हैं कि यदि सूर्य हम मनुष्यों की भॉंति यह सोचने लग जाए कि अरबों-खरबों वर्षों से मेरा वही एक बोरिंग नियम है। प्रात:काल पूर्व दिशा से उदय होना और सायंकाल को पश्चिम दिशा में अस्त हो जाना। सम्पूर्ण संसार को सारा दिन गरमी और प्रकाश देते रहो। अब मैं बहुत थक गया हूँ। चलो थोड़े दिन का अवकाश लेकर छुट्टियॉं मनाने किसी हिल स्टेशन पर अथवा विदेश चला जाता हूॅं। कल्पना कीजिए यदि ऐसा हो जाए तो क्या होगा? ब्रह्माण्ड में सब अंधकारमय हो जाएगा और सारी व्यवस्था चरमरा जाएगी। 
           इसी प्रकार यदि जल अपने को समेट ले, इसकी कल्पना करना ही कठिन है। जल के बिना चारों ओर त्राहि-त्राहि मच जाएगी। एक मिनट के लिए भी जल बिना जीवन नहीं चल सकेगा। संसार में जल के न रहने की स्थिति में सभी जीव-जन्तु तड़प-तड़प मर जाऍंगे। इसका कारण यही है कि न तो खाने के लिए अन्न, सब्जियॉं, फल मिलेंगे और न पीने के लिए जल उपलब्ध हो सकेगा। इस तरह दुनिया का अस्तित्व ही समाप्त होने के कगार पर आ जाएगा। 
            एवंविध वायु भी हड़ताल पर चली जाए कि कितने ही समय से प्रतिदिन चौबिसों घण्टे बिना आराम किए बहते-बहते बस मैं थक गई हूॅं। मुझे भी कभी तो विश्राम चाहिए। क्या वायु को बिना जीवन की कल्पना हम कर सकते हैं? नहीं न, अगर कुछ पल के लिए ही वायु अवकाश पर चली जाए तो सम्पूर्ण संसार का वायु के बिना अस्तित्व निस्सन्देह समाप्त हो जाएगा। इसी तरह अन्य प्राकृतिक पदार्थों का भी हम विशलेषण कर सकते हैं।
         हम देखते हैं कि प्रकृति का हर कण, हर जर्रा हमारे लिए सुख-सुविधा जुटाता रहता है। परन्तु बड़े दुख की बात है कि मनुष्य हरपल अपनी मित्र प्रकृति से छेड़छाड़ करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की योजनाऍं बनाता रहता है। इसीलिए थोड़े-थोड़े समय के पश्चात हमें प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है। कभी अकाल के रूप में, कभी भूकम्प के रूप में, कभी बाढ़ के रूप में, कभी अतिवृष्टि के रूप में और कभी अनावृष्टि के रूप में हम अपनी मूर्खतापूर्ण व्यवहार के कारण कष्ट भोगते रहते हैं। 
          इसी कड़ी में मैं यह जोड़ना चाहती हूँ कि तभी हमें पर्यावरण जैसी समस्याओं पर विवाद करना पड़ता है। हम बड़ी-बड़ी डींगे हॉंकते है और विस्तृत योजनाऍं बनाते रहते हैं। परन्तु वास्तविकता के धरातल पर उन पर अमल करने का प्रयास ही नहीं करते। यही कारण है कि हम लोग प्रकृति से छेड़छाड़ करने में बहुत गर्व का अनुभव करते हैं। तभी हम विभिन्न प्रकार के रोगों को निमन्त्रण देकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य करते हैं। फिर पश्चाताप करते हैं।
          इस चर्चा का उद्देश्य यही है कि शायद हम मानवों को समय रहते सद् बुद्धि आ जाए। हम प्रकृति के समान अपने लिए बनाए गए नियमों का पालन बिना हठधर्मिता के प्रसन्नतापूर्वक कर सकें। अब हम सबको मिलकर यह तय करना है कि हम प्रकृति से मित्रता करेंगे या शत्रुता निभाऍंगे। इसी प्रकार यह भी विचारणीय है कि हम भी अपने जीवन को नियमानुसार चलाऍंगे और भविष्य में आने वाली दुखों-परेशानियों से दूर रहने का यथासम्भव प्रयत्न करेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 14 मई 2025

सम्बन्धों में पारदर्शिता होना आवश्यक

सम्बन्धों में पारदर्शिता होना आवश्यक 

पति-पत्नी के सम्बन्धों में पारदर्शिता का होना बहुत आवश्यक होता है। तभी घर-गृहस्थी सुचारु रूप से चल पाती है। पत्नी को हमारा भारतीय समाज गृहलक्ष्मी मानता है। उसका मान-सम्मान बनाए रखना घर के सदस्यों का , खासकर पति का कर्तव्य होता है। हमारे यहॉं सामाजिक ढॉंचा इस प्रकार से बना हुआ है कि पति धनार्जन करें और पत्नी घर की व्यवस्था कुशलतापूर्वक करे। आज स्थितियों में बहुत परिवर्तन हो गया है। स्त्रियॉं भी पढ़-लिखकर, घर से बाहर निकलकर कमाने लगी हैं। घर और नौकरी दोनों मोर्चों को अपनी सूझबूझ से सफलतापूर्वक निभा रही है।
          यह सत्य है कि स्त्री ने जब बेटी बनकर पिता से प्यार किया तो दुनिया ने उसे 'आदर्श बेटी' कहकर सम्बोधित किया। जब उसने अपने भाई से प्यार किया तो उसे 'प्यारी बहना' कहकर पुकारा गया। सबसे बढ़कर जब उसने अपने पति से प्यार किया तो उसे 'संस्कारी बहू' या 'पतिव्रता स्त्री' का दर्जा दिया गया। अपने बेटे से जब स्त्री ने प्यार किया तो उसे 'ममता की मूरत' कहा गया। इस सत्य से इन्कार नहीं कर सकते है कि घर-परिवार या समाज में स्त्री के लिए एक पुरुष सिर्फ पति, पिता, भाई या बेटा ही हो सकता है।
           इसके विपरीत इन रिश्तों को त्यागकर स्त्री ने जब-जब सिर्फ एक पुरुष से विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाए तो इस संसार ने उसे 'चरित्रहीन' कहकर तिरस्कृत किया। इसी प्रकार जब पुरुष ने एक स्त्री के साथ विवाहेतर सम्बन्ध बनाए तो उसे भी समाज ने अपमानित किया। पुरुष है ऐसा कहकर समाज ने उसका बचाव नहीं किया। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या एक स्त्री व एक पुरुष अच्छे दोस्त नहीं हो सकते?
          यह प्रश्न यदि लोगों से पूछा जाए तो इसके उत्तर में कुछ लोग नकारात्मक बातें कह सकते हैं और कुछ लोग सकारात्मक उत्तर दे सकते हैं। जब भगवान श्री राम, लक्ष्मण और माता सीता के साथ वनवास काटने के लिए जा रहे थे तब वे सब रास्ते में आने वाले ऋषि अत्रि के आश्रम में उनसे मिलने के लिए जाते हैं। वहाँ पर  सीता जी गुरु माँ अनुसुया से मिलती हैं। ऋषि पत्नी अनसुया ने भगवती सीता को पतिव्रत धर्म का ज्ञान देती हैं। रामायण में माता अनुसूइया जी के द्वारा भगवती सीता को दिए गए उपदेश आज भी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर आज भी सटीक है।
          आशा है मेरे विचारों से आप सब भी सहमत होंगे। हमारे भारतीय परिवेश में स्त्री-पुरुष की मित्रता वाले सम्बन्ध कतई मान्य नहीं हैं। वैसे यह बताएँ कि विवाहोपरान्त क्या कोई स्त्री अपने पति के किसी अन्य महिला के साथ मित्रता स्वीकार कर सकती है? अथवा पुरुष अपनी पत्नी के किसी अन्य पुरुष से मित्रता स्वीकार कर सकते हैं? आप स्वयं ही इस प्रश्न का उत्तर बिना किसी पूर्वाग्रह के ढूॅंढे। इसी प्रकार विवाह पूर्व किसी पक्ष के ऐसे सम्बन्ध भी दोनों में से किसी को मान्य नहीं होते। बल्कि ऐसे विवाहेतर सम्बन्ध परिवारों के टूटने का कारण बनते हैं। 
          यह एक बहुत गम्भीर प्रश्न है। इस पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध घी और आग के संयोग की तरह माना जाता है। आज समाज में कुछ युवाओं के द्वारा लिव इन में रहने का प्रचलन बढ़ने लगा है। इसे हम युवाओं में पनपने वाली पलायन की प्रवृत्ति कह सकते हैं। इसका उद्देश्य केवल मौज-मस्ती करना होता है। अपनी जिम्मेदारियों से भागना होता है। यदि एक साथी से मन भर जाए तो किसी दूसरे से सम्बन्ध बना लो। यह सब कब तक चलेगा?
          केवल मात्र पति-पत्नी का ही एक ऐसा सम्बन्ध है जहाँ एक-दूसरे की बेवफाई सहन नहीं की जा सकती। किसी एक के भी विपरीत आचरण पर खून तक कर दिया जाता है। इसके अतिरिक्त परेशान होकर दोनों में से किसी एक पक्ष के द्वारा आत्महत्या तक कर ली जाती है। पारिवारिक विघटन के फलस्वरूप तलाक लेने वालों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी होने लगी है। इसका परिणाम उन मासूम बच्चों को भुगतना पड़ता है जिनका कोई दोष नहीं होता है।
           यह सार्वभौमिक सत्य है कि विवाह विच्छेद होने अथवा तलाक का प्रमुख कारण एक साथी का दूसरे के प्रति विश्वास तोड़ना होता है। साथी कहिए या मित्र एक-दूसरे के प्रति जहाँ भी वफादार नहीं होते वहाँ अलगाव की स्थिति बन ही जाती है। हमारे भारत में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की कमोबेश यही स्थिति है। पति-पत्नी का यह रिश्ता नाजुक डोर से बॅंधा होता है। इसका यही कारण है कि इन दोनों में रक्त सम्बन्ध नहीं होता। इन दोनों में प्यार और विश्वास का सम्बन्ध होता है। इसलिए इस सम्बन्ध में पारदर्शिता का होना बहुत आवश्यक है।
चन्द्र प्रभा सूद 

मंगलवार, 13 मई 2025

रुढ़ियों से मुक्ति

रूढ़ियों से मुक्ति 

आज के वैज्ञानिक युग में हम चाँद-सितारों तक पहुँच गए हैं। भौतिक रूप से भी बहुत उन्नति कर चुके हैं। परन्तु हम अपनी कष्टदायक कुप्रथाओं से मुक्त नहीं हो रहे हैं। हमारे महापुरुषों ने सैकड़ों वर्षों पूर्व बाल विवाह, पर्दा प्रथा, स्त्री शिक्षा, सती प्रथा जैसी सामाजिक और अनेक धार्मिक रूढ़ियों का विरोध किया। आज भी यदा कदा इनकी जानकारी हमें मीडिया से मिलती रहती है। हम हैं कि आज भी हम अपनी कुरीतियों को हृदय से लगाकर रखे हुए हैं। इनका परित्याग हम नहीं कर पा रहे हैं।
            निस्सन्देह इन कुरीतियों को छोड़ा जा सकता है, यदि हम इन्हें त्यागने के लिए कटिबद्ध हो जाएँ। हमारे समाज सुधारक राजाराम मोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि ने अनेकानेक महापुरुषों ने इन कुरीतियों का कठोरता से विरोध किया था। इसी श्रेणी में भगवान महावीर तथा महात्मा बुद्ध का नाम लेना भी मैं आवश्यक समझती हूँ। हमारा ज्ञान इन महापुरुषों के समक्ष कुछ भी नहीं है। बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि इन महापुरुषों के प्रयासों के प्रति हम संवेदनशील नहीं हो रहे हैं।
          धार्मिक रुढियों के विषय में मैं केवल इतना ही कहना चाहती हूँ कि हर पक्ष के दो पहलू होते हैं- नकारात्मक और सकारात्मक। यह हम पर निर्भर करता है कि हम क्या चाहते हैं? इनके नकारात्मक नहीं सकारात्मक पक्ष पर हमारा विचार करना बहुत आवश्यक है। यदि हम सकारात्मक रुख अपनाते हैं तो हमारा उत्थान निश्चित होता है। धर्म कभी भी मनुष्य की उन्नति या सफलता में बाधक‌ नहीं बनता। वह तो हमें सत्य का मार्ग दिखाता है।
          धर्म को हमें विवाद का विषय नहीं बनाना चाहिए। धर्म मनुष्य का निजी मामला है। प्रत्येक मनुष्य को अपनी ही इच्छानुसार अपने धर्म की अनुपालना का अधिकार है। किसी व्यक्ति को दूसरे के धर्म अथवा पूजा पद्धति पर आलोचना करने का हक समाज व न्याय नहीं देता। यहॉं मैं यह भी कहना चाहती हूॅं कि धर्म स्थलों में किसी व्यक्ति विशेष को प्रवेश न करने देना अथवा पूजा न करने देना, बहुत ही अनुचित कार्य है। इस कुरीति से सभी लोगों को बचना चाहिए।
          आज भी यदा-कदा बाल विवाह की घटनाऍं होती रहती हैं। यह कुप्रथा बच्चों के साथ खिलवाड़ करती है। जिस आयु में उन्हें पढ़-लिखकर, योग्य बनना चाहिए, उस आयु में उनका विवाह कर देना बहुत निन्दनीय है। जब तक लड़का धनार्जन करने योग्य न हो जाए, उसे विवाह के बन्धन में बॉंधना किसी भी तरह से उपयुक्त नहीं। ऐसे बच्चे असमय बिमारियों के शिकार बन जाते हैं। बच्चों के भविष्य को देखते हुए माता-पिता को इस कुप्रथा से बच्चों को बचाना चाहिए।
          समाज में दहेज प्रथा एक कोढ़ की तरह है। सुरसा के मुॅंह की तरह यह दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। धनाढ्यों के लिए अपनी को कुछ भी देना सम्भव है। परन्तु निर्धनों के लिए यह अभिशाप है। देखा-देखी दहेज के लिए मनमानी करने वालों की संख्या में बढ़ोतरी होती जा रही है। भारतीय समाज में इस कुरीति के कारण घरेलू हिंसा के केस बढ़ते जा रहे हैं। इसके कारण कई महिलाओं को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ जाता है। इस कुरीति पर भी लगाम लगानी चाहिए। माता-पिता पर दहेज के लिए अनावश्यक दबाव नहीं बनाना चाहिए। वे अपनी बेटी को स्वेच्छा से चाहे जो भी दें।
          मनुष्य अच्छाई और बुराई दोनों ही अपने भीतर समेटे हुए है। हमें अपनी बुराइयों को दूर करके अच्छाइयों को अपनाने की कोशिश करनी चाहिए। इसी प्रकार सामाजिक, धार्मिक आदि संस्थाओं में भी स्वार्थी तत्वों के कारण बुराइयाँ अथवा कुरीतियाँ घर करने लगती हैं। हमारा दायित्व बनता है कि उन्हें त्यागकर आने वाली नयी पीढ़ी को साफ-सुधरा आइना दिखाएँ। केवल कानून बना देने से कुरीतियों को मिटाया नहीं जा सकता है। इसके  लिए सामाजिक संस्थाओं को भी अपनी भूमिका को निभाने के लिए आगे आना चाहिए।
        आप सब कृपया इस बात पर ध्यान दें कि ये सभी नियम भगवान ने नहीं बनाए। हमीं लोगों ने अपनी सुविधा को देखते हुए बनाए हैं। इसलिए हम सबका यह दायित्व बनता है कि हम समाज में फैली हुई दकियानूसी परम्पराओं का परित्याग करते हुए समाज को सही दिशा की ओर आगे ले जाएँ।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 12 मई 2025

जन्म-मरण का चक्रव्यूह

जन्म-मरण का चक्रव्यूह 

यह दुनिया चला चली का मेला है। निश्चित समय के लिए हम इस संसार में आते हैं। अपना-अपना समय पूर्ण करके हम यहाँ से विदा ले लेते हैं और नयी यात्रा की शुरूआत करते हैं। पुनः पुनः वही क्रम जब तक संसार में अपने आने के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते। वह लक्ष्य है मोक्ष की प्राप्ति। जब तक अपना लक्ष्य हम पा नहीं जाते तब तक जन्म-मरण के चक्र में फंसे रहते हैं। चौरासी लाख योनियों में भटकते रहते हैं।
        इसे एक कथा से समझते हैं। एक बड़ा सा कक्ष है जहाँ बहुत से द्वार हैं। उन सभी द्वारों में केवल एक ही द्वार खुला हुआ है। एक अंधा मनुष्य उस कमरे में बंद है। वह बाहर निकलने के लिए छटपटा रहा है। कमरे की दीवारों को टटोल कर खुले हुए द्वार को ढूँढकर बाहर निकालने का यत्न कर रहा है। बार-बार वह दीवारें टटोलता हुआ ज्योंहि वह खुले हुए दरवाजे तक पहुँचता है उसे खुजली हो जाती है। वह खुजाने लगता है और उसका हाथ दीवार से छूट जाता है। इस तरह वह दरवाजे से आगे निकल जाता है। फिर से वही भटकाव और नयी यात्रा। इस तरह बारंबार उसके साथ घटता है। वह परेशान है, रोता है, चिल्लाता है पर उसकी पुकार सुनने वाला वहाँ कोई नहीं है जो उसे कक्ष से बाहर निकाल सके।
       इस कथा को पढ़कर आपको उस अन्धे व्यक्ति पर गुस्सा आ रहा है न। आप यही विचार कर रहे हैं कि उस अन्धे व्यक्ति को उस सुनसान स्थान पर अकेले जाने की आवश्यकता क्या थी? वह किसी के साथ भी तो जा सकता था। मान लीजिए कि यदि वह अकेला चला भी गया तो उसे उस कक्ष में नहीं जाना चाहिए था। अब उसके रोने और चिल्लाने से तो कुछ नहीं होने वाला। आप उस व्यक्ति को मूर्ख समझकर कोस रहे होंगे कि वह स्वयं ही इस मुसीबत में फॅंस गया है।
            यदि एकान्त में बैठकर मनन करें और इस कथा को पूर्णरूपेण समझने का प्रयास करें तो हमें समझ आ जाएगी कि वह अन्धा व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि हम स्वयं ही हैं। यह संसार एक विशाल कक्ष की तरह है। वह चौरासी लाख योनियों वाला विशाल है। इस दुनिया में आने के पश्चात हम भूल जाते हैं कि यहॉं आने का हमारा उद्देश्य क्या था? जन्म लेने के अनन्तर हम संसार की चकाचौंध में खो जाते हैं। फिर हम अपने लक्ष्य से भटककर ईश्वर से भी दूर होने लगते हैं।
          संसार रूपी इस कक्ष में हम काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, मोह-माया आदि की पट्टी बॉंधकर बार-बार चक्कर लगाते रहते हैं। यहॉं एक ही द्वार खुला है जो मोक्ष का है। जब एक खुला हुआ मोक्ष का द्वार हमारे पास आता है अर्थात् हमें मानव का जन्म मिलता है तो विषय-वासनाओं की खुजली के कारण उस द्वार को पारकर हम आगे निकल जाते हैं। फिर जन्मजन्मान्तर तक इस संसार में भटकते रहते हैं। तब फिर उसी गर्भजून का कष्ट सहते हुए ईश्वर से निरन्तर उस दुख से मुक्त करने की प्रार्थना करते रहते हैं।
         समय रहते यदि हम न जागे तो पता नहीं कब तक इस संसार में भटकते रहेंगे। यह भी पता नहीं कब कि हम उस स्वर्णिम अवसर को प्राप्त कर भी सकेंगे? यह भी ज्ञात नहीं है कि हम हाथ बढ़ाकर अपना लक्ष्य छू भी सकेंगे अथवा नहीं। ईश्वर की सच्चे मन से की गई प्रार्थना से ही हम जन्म-मरण के इस चक्र से मुक्त हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त हमारे पास और कोई चारा नहीं है। अन्ततोगत्वा वही हमारी शरणस्थली है। उसकी गोद में जाकर ही हम सच्चा सुख और शान्ति पा सकते हैं। अपने लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करके जन्म-मरण के चक्र से मुक्त है सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 11 मई 2025

अपने मन को बांस मानना छोड़िए

अपने मन को बास मानना छोड़िए 

मनुष्य को कभी-कभी यह घमण्ड हो जाता है कि वह जो भी कहता है अथवा करता है, उसका कोई मुकाबला नहीं हो सकता। वह अपने मन को अपना बास मानने लगता हैं। अपने बन्धु-बान्धवों के समक्ष वह बड़ी शान बघारते हुए कहता है कि वह तो बहुत मनमौजी है। वह वही काम करता है जो उसका मन कहता है। वह अपने मन के विपरीत जाकर कोई काम नहीं करता। यहीं पर मनुष्य सबसे बड़ी भूल कर देता है। उसे यह नहीं समझ आता कि अपनी हेकड़ी दिखाते हुए जो वह कर रहा है, उसके सामने जब समस्या आ जाएगी तब वह उससे निपटने में समर्थ हो भी पाएगा या नहीं। 
         अब विचारणीय प्रश्न यह उठता है कि क्या मन सदा मनुष्य को सही सलाह देता है? क्या मन का परामर्श मानना मनुष्य के लिए आवश्यक होता है? मन की कही बात मानने से क्या मनुष्य को सदा सफलता मिलती है?
            मनुष्य इस सत्य को भूल जाता है कि यह मानव मन बहुत चंचल होता है। मनुष्य को ज्ञात ही नहीं हो पाता कि यह क्या क्या कारनामे कर जाता है। इसकी गति और चंचलता का पार मनुष्य नहीं पा सकता। इसलिए इसे अपने वश में करना बहुत आवश्यक है। मनुष्य का मन यदि उसके वश में हो जाए तो समझिए उसका बेड़ा पार हो गया। परन्तु यदि मन मनुष्य के वश में हो गया तो उसका पतन निश्चित हो गया। इसलिए इस पर लगाम कसना हमारे हित में है। 'श्रीमद्भागवद्गीता' में भगवान कृष्ण ने कहा है कि मन बहुत चंचल है इसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है।
           मनीषी कहते हैं- 
   मन साडे आखे नहीं लगदा 
  अस्सी मन दे आखे क्यों लगिए 
अर्थात् जब मन हमारे कहने पर नहीं चलता तो हम उसके कहने पर क्यों चलें? यदि इसके कहने पर चलेंगे तो हम अपनी अन्तरात्मा की आवाज को सुनने से कतराने लगेंगे। इसका कारण स्पष्ट है कि मन पंख लगाकर उड़ना चाहता है। इसलिए जब बिना मेहनत के सब कुछ पाना चाहेगा है तो प्रायः शार्टकट का सहारा लेगा। उस समय वह हमें कुमार्ग पर चलने के लिए विवश करेगा और हम भी बड़ी खुशी-खुशी उसके सुझाए हुए लुभावने मार्ग पर चल पड़ेंगे। फिर वहाँ से लौटकर आना हमारे लिए बहुत ही कठिन हो जाएगा।
            यह वास्तव में सत्य भी है क्योंकि मन दिनभर खुद तो भटकता ही रहता है और हम सबको भी भटकाता रहता है। मनुष्य को पता ही नहीं चल पाता और यह उसे न जाने कौन-सी गलियों में घुमाकर, सैर करवाकर वापिस ले आता है। पलभर के लिए भी न यह स्वयं चैन से बैठता है और न किसी को चैन नहीं लेने देता। एक स्थान पर बैठे-बैठे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को क्षणभर में नापकर लौट आता है। हजारों-हजार मीलों की यात्रा पलक झपकते ही करके यह ऐसे नादान बन जाता है जैसे उसे कुछ भी पता नहीं। यह सभी इस मन की खूबियॉं हैं। 
         यह मन ही मनुष्य के अन्दर पनपने वाले अवसाद, घृणा,  ईर्ष्या-द्वेष, आशा-निराशा, उपकार-अपकार आदि भावनाओं के साथ-साथ काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि शत्रुओं को भी न्योता देता है। यदि इन भावनाओं और शत्रुओं से मन के कहने पर हम मित्रता कर लेंगे तो समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने में समय नहीं लगेगा। तब घर-परिवार, देश व समाज के शत्रु कहलाकर सबसे अलग-थलग रहकर जीना ही मनुष्य की विवशता बन जाएगी।
    मन में उठने वाली इच्छाओं को पूरा करते हुए मनुष्य जीवन पर्यन्त कोल्हू के बैल की तरह खटता रहता है। परन्तु वे इच्छाऍं हैं कि समाप्त होने का नाम नहीं लेतीं। एक-के-बाद एक करके उठने वाली मनोकामनाएँ मनुष्य को चैन से नहीं जीने देतीं। वह हमेशा अशान्त रहता है। तब शान्ति की खोज में इधर-उधर भटकता रहता है। कभी जंगलों में, कभी तीर्थ स्थानों में, कभी धार्मिक स्थलों में और फिर कभी तथाकथित धर्म गुरुओं की शरण में परन्तु शान्ति ऐसी चिड़िया है जो उसे कहीं पर भी नहीं मिलती। भटकना छोड़कर शान्ति उसे अपने मन में ही मिलती है यदि वह उसे साध लेता है।
        इसीलिए सयाने कहते हैं- 
      मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
हम कह सकते हैं कि मन ही हम मनुष्यों को विनाश के गर्त में ढकेल सकता है और यही है जो हमें आकाश की बुलन्दियों को छूने की सामर्थ्य देता है। जिसने इसे अपने वश में कर लिया वह सिद्ध बनकर ईश्वर तुल्य हो जाता है। समाज को दिशा और दिशा देने का कार्य करता है। और जो इसके बहकावे में आकर भटक जाते हैं वे अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष से बहुत दूर होकर पुनः जन्म-मरण के चक्र में फँस जाते हैं। फिर इस ब्रह्माण्ड की कहें जाने वाली चौरासी लाख योनियों में भटकते रहते हैं।
          यथासम्भव मन के कथनानुसार चलकर परेशान होने के स्थान पर यदि मनुष्य अपनी इच्छा से मन को चलाएगा तो सफलता व प्रसन्नता उसके कदम चूमेंगी। मनुष्य को जीवन में कभी निराशा एवं असफलता का मुँह नहीं देखना पड़ेगा। अब मनुष्य को स्वयं ही विचार करके अपने रास्ते का चुनाव करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

शनिवार, 10 मई 2025

माता बच्चे की पहली गुरु

माता बच्चे की पहली गुरु

माता बच्चे की पहली गुरु होती है। वह उसे बोलना सिखाती है और अक्षर ज्ञान कराती है। इसी प्रकार पिता उसका भरण-पोषण करता है तथा उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। एवंविध माता और पिता अपने बच्चे के जीवन में अहम् भूमिका निभाते हैं। वे दोनों मिलकर अपनी सन्तान को इस योग्य बनाते हैं कि वह संसार में सिर उठा कर चल सके और भविष्य में अपना जीवन यापन बाधा रहित होकर कर सके।
           बच्चे को जो संस्कार माता-पिता या घर के बड़े-बजुर्ग दे सकते हैं, वे कोई अन्य नहीं दे सकता। ये संस्कार आजन्म मनुष्य के साथ रहते हैं। इसमें मैं एक बात और जोड़ना चाहूँगी कि न ही क्रच वाले, न आया-नौकर और न ही पड़ौसी व रिश्तेदार बच्चे को संस्कार दे सकते हैं। वे बच्चे के मधुर व्यवहार की प्रशंसा हो सकता है न करें। पर वे तो बच्चे के दुर्व्यवहार से उसके संस्कारों को देखकर आलोचना करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। दूसरों को नीचा दिखाने में आनन्द का अनुभव करते हैं।
           मिलने वाले सभी लोग बच्चे के शालीन व मधुर व्यवहार की प्रशंसा कर सकते हैं तथा साथ ही उसके माता-पिता की भी सराहना कर सकते हैं कि उन्होंने अपने बच्चे को इतना संस्कारी बनाया है। यह क्षण बच्चे के माता-पिता के लिए बहुत गौरव का पल होता है। संस्कारी बच्चे सभी लोगों को अच्छे लगते हैं। उनसे बात करने के लिए सभी लोग लालायित रहते हैं। वे लोग अपने बच्चों को उनके उदाहरण देकर उन्हें भी‌ वैसा ही बनने के लिए प्रेरित करते हैं।
           इसके विपरीत अभद्र व कठोर व्यवहार करने वाले बच्चे की उसके माता-पिता सहित सभी आलोचना करते हैं। हो सकता है उनका लिहाज करते हुए प्रत्यक्षत:(सामने) केवल संकेत मात्र करें परन्तु परोक्षतः(पीठ पीछे) उन्हें कोसने से नहीं चूकेंगे कि उनका बच्चा कितना बिगड़ा हुआ है। ऐसे तथाकथित बिगड़े हुए बच्चों को कोई अपने घर पर आने देना पसंद नहीं करता। बन्धु-बान्धव और पड़ोसी‌ ऐसे उन बच्चों के साथ अपने बच्चों को खेलने से भी मना करते‌ हैं। 
      इसीलिए हमारे महान ग्रन्थ हमें समझाते हैं-
    माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पाठित:।
    न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।
अर्थात् वह माता और पिता शत्रु हैं जिन्होंने अपने बच्चे को नहीं पढ़ाया। वह बच्चा सभा में उसी तरह सुशोभित नहीं होता जैसे हंसों के बीच बगुला।
         ‌ इस श्लोक में विद्या अध्ययन की चर्चा है। इसके अनुसार बच्चों के अशिक्षित रह जाने का दोषी कवि माता-पिता को मानते हैं। बच्चों को संस्कारित करने के साथ-साथ उन्हें शिक्षित करना भी आवश्यक होता‌ है। अन्यथा बच्चे समय की दौड़ में पिछड़ जाते हैं। वे धनार्जन करने में भी असहाय से रह जाते हैं। वे लोग अपना व अपने परिवार की आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर सकते। आज इक्कीसवीं सदी में भी बहुत से बच्चे विद्यालय जाने में अपनी मजबूरियों के कारण असमर्थ हैं। 
            यहाँ हम उन बच्चों की बात कर लेते हैं जो विद्यालयीन शिक्षा तो ग्राहण करते हैं पर उच्छृंखल होते हैं। ऐसे बच्चों के माता-पिता भी अपने बच्चों व समाज के शत्रु हैं जो संतान को सुसंस्कृत नहीं कर सकते। अपितु यह कहकर वे अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते हैं कि क्या करें बच्चा हमारी सुनता नहीं? ऐसे ही बच्चे आगे जाकर समाज, देश, धर्म व जाति को हानि पहुँचाते हैं। ऐसे बच्चों को कोई भी पसन्द नहीं करता है। सब लोग उन्हें हिकारत से देखते हैं।
           हमें गम्भीरता से इस विषय पर विचार करना चाहिए कि हम अपने दायित्वों के प्रति कितने सजग हैं? अपने बच्चों को संस्कारित करके भावी पीढ़ियों के प्रति हम उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं। अथवा उनके प्रति लापरवाही बरत कर उन्हें देश, धर्म, समाज और परिवार के दोषी बनाने का अपराध करते हैं। अन्त में हम यह कह सकते हैं कि माता को अनावश्यक ही लाड़-प्यार में बच्चे को बिगाड़ने के स्थान पर उसे संस्कारवान बनाकर जिम्मेदार बनाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 8 मई 2025

वर्ण व्यवस्था

वर्ण व्यवस्था 

भारत में सामाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए ऋषियों के द्वारा वर्णाश्रम व्यवस्था का विधान किया गया। स्मृतियों में न्याय व्यवस्था का चित्रण है। वहॉं अपराध के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान है। आज हम वर्ण-व्यवस्था के विषय में चर्चा करेंगे। समाज को चार वर्णों में विभक्त किया गया। चारों वर्ण और उनके कार्यों का विभाजन निम्नलिखित हैं-
1. ब्राह्मण- कार्य था अध्ययन-अध्यापन
2.क्षत्रिय- कार्य था रक्षा करना
3. वैश्य- कार्य था व्यापार करना
4. शूद्र- कार्य था सेवा करना
          उस समय जो व्यक्ति जिस कार्य के योग्य होता था, वह वही कार्य करता था। जो लोग अध्ययन-अध्यापन का कार्य करते थे, उन्हें ब्राह्मण कहा जाता था। शिक्षण करने वाले ये विद्वान समाज के सभी वर्गों को शिक्षित करने का कार्य करते थे। उस काल में गुरुकुल प्रथा थी। जो ब्रह्मचारी या बच्चे वहॉं पर विद्याध्ययन करने आते थे, उनका सम्पूर्ण व्यय गुरुकुल के द्वारा वहन किया जाता था। जब शिष्य या बच्चा अपनी शिक्षा पूर्ण कर लेता था, तभी वह अपने घर वापिस जाता था।
           आजकल तो शिक्षा के लिए विद्यालय हैं। यहॉं जो बच्चे पढ़ते हैं, वे प्रातः अपने विद्यालय आते हैं और छुट्टी होने पर घर चले जाते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ आवासीय विद्यालय भी हैं। यहॉं पढ़ने वाले छात्र छुट्टियों के समय अपने घर जाते हैं। आज बच्चे की शिक्षा पर व्यय होने वाला सारा खर्च माता-पिता को करना होता है। विभिन्न शिक्षण बोर्ड द्वारा परीक्षा ली जाती यह। फिर छात्रों को अपने विषय के आधार पर कॉलेज में जाना होता है। यह दोनों काल की शिक्षा प्रणाली का अन्तर है।
           देश और समाज की रक्षा का दायित्व सम्हालने वाले वीर योद्धाओं को क्षत्रिय कहा जाता था। इनका प्रमुख कार्य राज्य की रक्षा करना होता था। इसके अतिरिक्त दूसरे राजाओं के आक्रमण करने पर, वे अपने राजा के साथ युद्ध के मैदान में जाकर अपने पराक्रम का परिचय दिया करते थे। जैसा कि आजकल भी होता है। तीनों सैनाऍं हर समय देश की सुरक्षा के लिए सन्नद्ध रहती हैं। उसी प्रकार उस समय भी सैनिक तैयार रहते थे। आज की ही भॉंति उन्हें भी उनके शौर्य के लिए राजा पुरस्कृत किया करते थे।
           समाज में व्यापार करने वालों को वैश्य कहा जाता था। यह सब प्रकार के सामानों का विक्रय किया करते थे। उस समय भी कुछ लोग अपने व्यापार को दूर-दूर तक फैलाते थे। इस सिलसिले में वे विदेश भी जाया करते थे। वहॉं जाकर अपना सामान बेचकर धन कमाकर लाते थे। बहुत समय तक वे लोग आज की तरह अपने घर-परिवार से दूर रहा करते थे।
          इनके अतिरिक्त जो अध्ययन, रक्षा तथा व्यापार का कार्य नहीं कर सकते थे, वे सेवाकार्य करते थे। चारों वर्णों में परस्पर बहुत सौहार्द होता था। छोटा काम या बड़ा काम वाली बात कहीं नहीं होती थी। समाज के सभी लोग अपनी बुद्धि और सामर्थ्य के अनुसार अपना-अपना कार्य किया करते थे। यह समाज का विभाजन मात्र था ताकि सामाजिक ढाँचे की सुचारू व्यवस्था हो सके। कोई भी व्यक्ति इन चारों वर्णो की सहायता के बिना एक दिन भी नहीं गुजार सकता था।
          उस काल में यह वर्ण विभाजन मनुष्य के जन्म के आधार पर नहीं अपितु कर्म के अनुसार किया गया था। भगवान श्रीकृष्ण ने 'श्रीमद्भगवद्गीता' में कहा है- 
     चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः
अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि गुण और कर्मों के आधार पर चारों वर्णों - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र की रचना की गई है।
          भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार गुण और कर्मों के आधार पर चारों वर्णों की रचना की है। जो व्यक्ति जिस कर्म को करना जानता है, वह उस वर्ण का है। वर्ण किसी खान्दान या पूर्वज के कर्म पर नहीं चलेगा। अर्थात् गुण और कर्म के अनुसार। यहॉं झगड़े की कोई गुॅंजाइश है ही नहीं कि मैं महान हूँ और तुम हीन हो अथवा तुच्छ हो। मनु महाराज ने 'मनुस्मृति:' में कहा है -
   जन्मन: जायते शूद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते।
  कहने का तात्पर्य है कि जन्म से हर व्यक्ति शूद्र अर्थात् संस्कार रहित पैदा होता है। जब उसका संस्कार किया जाता है तब वह द्विज बनता है। 
           द्विज ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य को कहते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय किसी कुल या वंश विशेष में उत्पन्न होने से मनुष्य को वैसा नहीं मान लिया जाता था बल्कि जिस कर्म को वह अपनाता था, उसी के अनुरूप ही उसकी पहचान बनती होती थी। दूसरे शब्दों में कहें तो यह श्लोक प्राचीन भारत की वर्ण व्यवस्था से सम्बन्धित है। यह इस बात की पुष्टि करता है कि यह व्यवस्था जन्म से निर्धारित नहीं होती थी बल्कि कर्म से इसका निर्धारण होता था। 
          हम इस कथन को इस प्रकार समझते हैं। यदि ब्राह्मण अपना अध्ययन-अध्यापन का कार्य छोड़कर व्यापार करता है तो शास्त्र के अनुसार उसे वैश्य कहा जाना चाहिए। इसी प्रकार वैश्य यदि अध्ययन-अध्यापन का कार्य करता है तो वह ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है। इसी प्रकार यदि कोई तथाकथित शूद्र अध्ययन करके योग्य बनकर अध्ययन-अध्यापन का कार्य करता है तो शास्त्रों के अनुसार वह ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है। एवंविध यदि कोई ब्राह्मण रक्षाकार्य करता है तो वह निश्चित ही क्षत्रिय कहलायेगा। समाज का विभाजन इस प्रकार कर्म के आधार पर किया गया था, न कि जन्म के आधार पर।
          बहुत दुख की बात है कि कुछ सदियों से ऐसा नहीं हो रहा है। धर्म के तथाकथित ठेकेदारों ने अपने स्वार्थ के लिए इन सभी वर्णों को रूढ़ बना दिया है। इसीलिए हम विवादों में उलझते जा रहे हैं। मुझे आशा है कि आप सभी सुधीजन मेरे इन विचारों से सहमत होंगे। आजकल सोशल मीडिया का समय है। इसका उद्देश्य ही अपने विचारों का आदान-प्रदान करना है। इस चर्चा को बिना किसी पूर्वाग्रह के आगे बढ़ाएँगे तो समाज के लिए यह एक सकारात्मक प्रयास होगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 7 मई 2025

लोभ रूपी शत्रु पर विजय

लोभ रूपी शत्रु पर विजय 

बाहरी शत्रुओं से मनुष्य अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करता रहता है। कभी बल का प्रयोग करता है, कभी अपने लिए मजबूत किले बनाता है। वह स्वयं को और सुरक्षित करने लिए कुत्तों को पालता है और अपने घर के बाहर सुरक्षा गार्ड नियुक्त करता है। इस प्रकार करके अपने और अपने परिवार की सुरक्षा का प्रबन्ध करके सुख की सॉंस लेता है। दुर्भाग्य की बात है कि वह अपने स्वयं के शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए वह आजन्म प्रयास करता है परन्तु सफल नहीं हो पाता। वे शत्रु हैं- काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार। 
           अन्तस् के शत्रुओं में से आज हम लोभ या लालच के विषय में चर्चा करते हैं। मनुष्य का लालच उसे केवल सारा समय भटकाता रहता है। वह उसे किसी लायक नहीं छोड़ता। वह किसी एक वस्तु को पाने का लालच करता है, तो उसे पाने के तुरन्त बाद ही दूसरा लालच उसे घेरकर खड़ा हो जाता है। वह लालच के इस मकड़जाल में फँसा हुआ, बेबस होकर बस उससे मुक्त होने का उपाय तलाशता रहता है। परन्तु इसके चँगुल से बच निकलना मनुष्य के लिए सरल नहीं होता।
          वर्षों पहले इस विषय में एक कथा पढ़ी थी या किसी कक्षा में पढ़ाई थी। इस कथा के लेखक का नाम अब याद नहीं है। यह कहानी हृदय में एक गहरी  छाप छोड़ गई है। इस कहानी में लालच करने पर एक व्यक्ति को अपने प्राणों से ही हाथ धोना पड़ जाता है। यह हृदयस्पर्शी कथा आप सुधीजनों ने भी पढ़ी होगी और इस विषय पर मन्थन भी किया होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
           किसी समय एक व्यक्ति राजा के पास गया और उसने कहा, "वह बहुत गरीब है, उसके पास कुछ भी नहीं, उसे मदद की आवश्यकता है।"
          राजा बहुत दयालु था। उसने पूछा, "तुम्हें क्या मदद चाहिए?"
        आदमी ने कहा, "थोड़ा-सी जमीन दे दीजिए।"
       राजा ने कहा, “कल सुबह सूर्योदय के समय तुम दरबार में आना और तुम्हें जमीन दिखाई जाएगी। उस पर तुम दौड़ना और जितनी दूर तक तुम वहाँ दौड़ सकोगे, वह पूरा भूखण्ड तुम्हारा हो जाएगा। परन्तु यह ध्यान रखना कि जहाँ से तुम दौड़ना शुरू करोगे, सूर्यास्त तक तुम्हें वहीं लौटकर वापिस आना होगा। अन्यथा तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा।"
          राजा की बात सुनकर वह आदमी प्रसन्न हो गया क्योंकि उसकी मनोकामना पूर्ण होने वाली थी। ज्योंहि सुबह हुई वह आदमी सूर्योदय के साथ दौड़ने लगा, वह दौड़ता रहा और बस दौड़ता ही रहा। सूरज सिर पर चढ़ आया था, पर उस आदमी का दौड़ना नहीं रुक। वह हाँफता रहा, पर रुका नहीं। उसे लग रहा था कि थोड़ी-सी और मेहनत कर ले, तो फिर उसकी पूरी जिन्दगी आराम से बीतेगी।
          अब शाम होने लगी थी। आदमी को याद आया कि लौटना भी है, नहीं तो फिर कुछ नहीं मिलेगा। उसने देखा कि वह बहुत दूर चला आया था, अब बस उसे लौट जाना चाहिए। सूरज पश्चिम की ओर जा चुका था। उस आदमी ने पूरा दम लगाया कि वह किसी तरह लौट सके, पर समय तो तेजी से व्यतीत हो रहा था। उसे थोड़ी ताकत और लगानी होगी, वह पूरी गति से दौड़ने लगा। अब उससे दौड़ा नहीं जा रहा था। वह थककर गिर गया और उसके प्राणों ने उसका साथ नहीं दिया, वे उसे छोड़कर चले गए।
           राजा यह सब देख रहा था। अपने सहयोगियों के साथ वह वहाँ गया, जहाँ आदमी जमीन पर गिरा था। राजा ने उसे गौर से देखा, फिर सिर्फ इतना ही कहा, "इसे सिर्फ दो गज़ जमीन चाहिए थी। यह व्यर्थ ही इतना दौड़ रहा था। इस आदमी को लौटना था, पर लौट नहीं पाया। वह ऐसे स्थान पर लौट गया, जहाँ से लौटकर कोई वापिस नहीं आता।"
         मनुष्य को अपनी कामनाओं की सीमाओं का ज्ञान ही नहीं होता। उसकी आवश्यकताएँ तो सीमित होती हैं, परन्तु इच्छाएँ अनन्त होती हैं। उसकी ये इच्छाएँ कब लालच के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं, उसे पता ही नहीं चलता। उनको पूरा करने के मोह में मनुष्य कभी वापिस लौटने की तैयारी नहीं कर पाता। यदि ऐसा करने में वह सफल हो जाता है, तो कहानी वाले उस युवक की तरह उसे बहुत देर हो चुकी होती है। तब तक वह अपना सब कुछ दाँव पर लगा चुका होता है। उसके  पास शेष कुछ भी नहीं बचता।
          हम सभी लोग अन्धी दौड़ में भाग ले रहे हैं। इसका कारण भी शायद किसी को नहीं पता। अपने जीवन के सूर्योदय यानी युवावस्था से लेकर, अपने जीवन के संध्याकाल यानी वृद्धावस्था तक हम सभी
बिना कुछ समझे हुए भागते जा रहे हैं। इस बारे में विचार ही नहीं करते कि सूर्य अपने समय पर लौट जाता है। उसी प्रकार मनुष्य भी इस दुनिया से खाली हाथ ही विदा ले लेता है।
       हम मनुष्य भी महाभारत काल के अभिमन्यु की भाँति इस लालच के चक्रव्यूह में प्रवेश करना तो जानते हैं, पर वापिस लौटना नहीं जानते। इसीलिए चारों ओर से आने वाले प्रहारों को न चाहते हुए भी झेलते रहते है। जीवन का सत्य मात्र यही है कि जो मनुष्य अपने लालच पर विजय प्राप्त करके लौटना जानते हैं, वही वस्तुतः में जीवन को जीने का वास्तविक सूत्र जानते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 6 मई 2025

मन बहुत ही चंचल

मन बहुत ही चंचल

मनुष्य का मन बहुत ही चंचल होता है। यह किसी के भी वश में नहीं आता। वास्तव में मन वायु से भी अधिक तीव्रगामी है। अभी यहाँ हमारे पास है और फिर पल भर में पूरे ब्रह्माण्ड की सैर करके वापिस लौटकर आ जाएगा। इसकी गति और इसकी सीमा का कोई ओरछोर नहीं है। इस बात से भी इसे कोई लेना-देना नहीं होता कि मनुष्य किस स्थान पर बैठा है या किसी परिस्थिति में है। इसका कार्य तो केवल भटकना और भटकाना है। यह व्यक्ति की रातों की नींद उड़ाकर उसे बैचेन कर देता है।
          चंचल मन का मतलब है कि एक ऐसा मन जो स्थिर न रहकर बार-बार इधर-उधर भटकता रहता है। वह आसानी से प्रभावित हो जाता है। हमारी इन्द्रियाँ बाहरी दुनिया के सुखद अनुभवों की ओर आकर्षित होती हैं। इससे मन का चंचल हो जाना स्वाभाविक होता है। चंचल मन का अर्थ करते हुए हम कह सकते हैं कि व्यक्ति का स्वभाव या उसके विचार आसानी से बदल जाते हैं। मन में अशान्ति और चंचलता का कारण यह भी है कि तन और मन के अन्दर अधिक मात्रा में ऊर्जा भरी हुई होती है। 
          भगवान श्रीकृष्ण ने 'श्रीमद्भगवद्गीता' के छटे अध्याय में कहा है- 
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
अस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
अर्थात् अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से कह रहे हैं कि हे कृष्ण! यह मन बड़ा ही चंचल है। यह मन केवल अत्यंत चंचल ही नहीं है  अपितु प्रमथनशील भी है। यह बड़ा बलवान है और किसी से भी वश में किया जाना असम्भव है। यह मन बड़ा दृढ़ भी है। ऐसे लक्षणों वाले इस मन का विरोध करना मैं वायु की भाँति दुष्कर मानता हूँ।
        जीवन पर्यंत यह हम सबको नाच नचाता रहता है। हम इसके चंगुल से बचने में स्वयं को असहाय अनुभव करते हैं। मन की प्रत्येक स्थिति का मनुष्य के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। हम सारे कर्म-कुकर्म इसी के इशारे पर करते हैं।  प्रसन्नता-अप्रसन्नता, अवसाद, उत्साह-निराशा, घृणा, राग-द्वेष, क्रोध आदि सभी अवस्थाओं का कारण यही मन है।
    यदि मन पर सद् विचारों की प्रबलता होती है तो मनुष्य सन्मार्ग पर चलता हुआ उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है। समाज, राष्ट्र, परिवार आदि के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहण करता है। परंतु यदि मन कुमार्गगामी हो जाए तो मानव पतन के मार्ग पर चल पड़ता है। वह राष्ट्रद्रोही, समाजद्रोही तथा परिवारद्रोही बन जाता है।
          अब सोचना यह है कि इसे वश में कैसे किया जाए? गीता में कहा है- 'अभ्यासेन वैराग्येन च' अर्थात् निरन्तर अभ्यास व वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो बार-बार यदि मन को गलत रास्ते पर जाने से रोकेंगे तो धीरे-धीरे सही रास्ते पर चलने का इसे अभ्यास हो जाएगा। दूसरा उपाय है इसे ईश्वर की आराधना में कठोरता पूर्वक लगाया जाए। तब इसमें विद्यमान कल्मष(बुराई) दूर होती है। यह शुद्ध और पवित्र बन जाता है। यदि इन उपायों को न अपनाया जाए तो फिर कहीं भी ठौर नहीं मिलता।         
           नियमित रूप से ध्यान और योग करने से मन शान्त होता है और विचारों पर नियन्त्रण बढ़ता है। प्राणायाम मन को शान्त करने और एकाग्रता को बढ़ाने में मदद करता है। योग मन और शरीर को शान्त करने में मदद करता है। नियमित व्यायाम करने से तनाव कम होता है और मन शान्त रहता है। खाली दिमाग में बुरे विचार आते हैं, इसलिए खुद को व्यस्त रखने के लिए कोई न कोई काम करें। अपने विचारों को लिखने से वे व्यवस्थित होते हैं और हम उन पर बेहतर तरीके से नियन्त्रण रख सकते हैं। 
         अपने विचारों और भावनाओं को दूसरों के साथ साझा करने से राहत मिल सकती है। अपने आप से प्यार करना और खुद को स्वीकार करना भी मन को शान्त रखने में सहायता करता है। पर्याप्त नींद लेने से भी मन शान्त रहता है। हर चीज में 'हाँ' नहीं कहना चाहिए। अपनी सीमाओं को जानना चाहिए। दूसरों को माफ करना और पुरानी बातों को भूलना सीखना चाहिए। अपने आप को स्वीकार करके और स्वयं से प्यार करना चाहिए। जो भी अच्छा नहीं लगता, उससे दूरी बनाकर रहना चाहिए। अपने लक्ष्यों को निर्धारित करके उन पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए 
             इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि हम अपने मन के नियन्त्रण में हैं, न कि हमारा मन हमारे नियन्त्रण में है। मन में आने वाले सभी विचारों की द्वारपाल की तरह अच्छी तरह से खोज-खबर करने की आदत बना लेनी चाहिए। केवल उन्हीं विचारों को अपने मन में आने देना चाहिए जिन पर वर्तमान में ध्यान देने की आवश्यकता है। यह सत्य है कि मन ही हमें विनाश के गर्त में ढकेल सकता है और यही हमें आकाश की बुलन्दियों को छूने की सामर्थ्य भी देता है। चंचल मन यदि वश में हो जाता है तो हमारे शरीर रूपी रथ में सवार यात्री(आत्मा) को उसके गन्तव्य अर्थात् हमारे अन्तिम लक्ष्य की ओर ले जाता है। अन्यथा इस ब्रह्माण्ड की चौरासी लाख योनियों में मनुष्य भटकता रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 5 मई 2025

हर वस्तु की अपनी उपादेयता

हर वस्तु की अपनी उपादेयता 

मनुष्य के जीवन में हर वस्तु का अपना एक स्थान व उपादेयता होती है। उसे छोटी-छोटी वस्तुओं की भी आवश्यकता होती है और बड़ी-बड़ी वस्तुओं की भी जरूरत होती है। इसलिए किसी छोटी-से-छोटी वस्तु की भी कभी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। पता नहीं कब किस वस्तु की उसे आवश्यकता पड़ जाए। हो सकता है कि उसके बिना हमारा कोई सामान अधूरा रह जाए और हम संकट में फॅंस जाऍं। फिर तो बड़ी समस्या हो सकती है।
          रहीम जी ने इसी बात को बड़े सुन्दर शब्दों में उकेरा है -
      रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजै डारि।
      जहॉं काम आवै सुई, कहा करै तरवारि।।
अर्थात् रहीम जी कहते हैं कि बड़ों को देखकर छोटों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। जहाँ सुई काम आती है, वहाँ तलवार काम नहीं करती। कहने का तात्पर्य यही है कि हर चीज का अपना-अपना उपयोग होता है।
        यह दोहा हमें सिखाता है कि हमें कभी भी किसी को छोटा या कम महत्वपूर्ण समझकर तिरस्कृत नहीं करना चाहिए, क्योंकि हर चीज और हर व्यक्ति का अपना महत्व होता है और हर स्थिति में हर चीज का उपयोग होता है। सुई और तलवार दोनों का अपना-अपना महत्व है। हम देखते हैं कि वस्त्रों की सिलाई के लिए हमेशा सुई का प्रयोग किया जाता हैं वहाँ तलवार का प्रयोग नहीं कर सकते। सी प्रकार युद्ध में तलवार का प्रयोग होगा, सुई का नहीं। अतः यह अन्तर समझना बहुत आवश्यक हो जाता है। अगर ऐसी मूर्खता करने की सोचेंगे तो जग में हँसी का पात्र बनेंगे।
           सामाजिक सद्भाव, एकता व धार्मिक सौहार्द का सन्देश देने वाले सुप्रसिद्ध कवि एवं महान समाज सुधारक सन्त कबीरदास जी ने इस विषय में बहुत सटीक कहा है -
      तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय।
       कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।।
अर्थात् कभी भी किसी को तुच्छ नहीं समझना चाहिए। जिस प्रकार पॉंवो में पड़ा एक छोटा-सा तिनका भी उड़कर जब आँख में चला जाता है तो वह भी आँख में गहरा घाव कर देता है।
            दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि तिनके जैसी तुच्छ चीज है, उसे हम फूँक मारकर हवा में उड़ा देते हैं। उसका कोई भी मूल्य हमारी नजर में नहीं होता। पर जब यही तिनका हमारी आँख में पड़ जाता है तो बड़ा कष्ट देता है। तब कितने समय तक आँख में लाली बनी रहती रहती है, उसमें असहनीय पीड़ा होने लगती है। हमें बहुत समय तक उपचार  स्वरूप ऑंखों में दवाई डालनी पड़ जाती है। तब जाकर कहीं वह नार्मल हो पाती है और हमें आराम मिलता है।
          हर वस्तु चाहे वह छोटी हो या बड़ी उसका अपना महत्त्व होता है। एक वस्तु के होते हुए हम दूसरी वस्तु को नजरअंदाज करने की मूर्खता नहीं कर सकते। हमें घर-परिवार में सभी वस्तुओं की आवश्यकता होती है। किसी एक के भी जरूरत के समय न होने पर हम परेशान हो जाते हैं। जो सामने पड़ता है उसी पर हम झल्लाने लगते हैं, चीखने और चिल्लाने लगते हैं। जब तक आवश्यक वस्तु को हम जुटा नहीं लेते हमें चैन से नहीं बैठ पाते हैं। हम बैचेन बने रहते हैं।
           मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसका हर प्रकार के लोगों से वास्ता पड़ता रहता है। मनुष्य अपने जीवन में यह घमण्ड करके कभी नहीं रह सकता कि वह सबसे श्रेष्ठ है, उसे किसी भी दूसरे व्यक्ति की आवश्यकता जीवन में नहीं पड़ेगी। अपने जीवन में मिलने वाले हर प्रकार के लोगों की भी हमें आवश्यकता होती है। अगर हम यही सोचते रहेंगे फलॉं व्यक्ति बड़ा है केवल वही हमारे काम का है और अमुक व्यक्ति छोटा है तो हमें उसकी जरूरत क्योंकर पड़ने लगी? तो हम गलत सोचते हैं। 
           घर में कामवाली या नौकर के बिना हम एक दिन बिताने में असहाय अनुभव करते हैं। इसी तरह ड्राइवर, धोबी, माली, प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन, मिस्त्री आदि के बिना भी जिन्दगी नरक बन जाती है। इन सबकी समय-समय पर आवश्यकता हमें पड़ती रहती है। चाहे कोई स्वयं को कितना ही बड़ा धन्ना सेठ क्यों न समझे, समय पड़ने पर वह इन सबके बिना असहाय महसूस करता है। उसके काम अटक जाते हैं।
           मात्र केवल बड़े लोगों से दोस्ती करेंगे और छोटों का तिरस्कार करेंगे तो जीवन दुष्वार हो जाएगा। यही मानकर चलिए कि जीवन में हमें सबकी आवश्यकता होती है। इसलिए छोटे लोगों को भी उतना ही सम्मान दें। उन्हें अपने पैर की जूती की तरह न समझें।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 4 मई 2025

सज्जन व्यक्ति नारियल क फल केे समान

सज्जन व्यक्ति नारियल के फल के समान

सज्जन व्यक्ति नारियल के फल के समान ऊपर से कठोर दिखाई देते हैं पर मन से नारियल की मीठी गिरि की तरह मीठे अर्थात् सबका हित चाहने वाले होते हैं। उसके स्वादिष्ट व स्वास्थ्यवर्धक पानी की भाँति सरल तथा सहृदय होते हैं। दूसरी ओर दुर्जन व्यक्ति बोलचाल में बहुत अच्छे होते हैं परन्तु वास्तव में वे मीठी छुरी के समान होते हैं। उनकी तुलना आकर्षक बेर से की जाती है । जो ऊपर से सुन्दर  और अन्दर से कठोर होते हैं। 'हितोपदेश' के 'मित्र लाभ' से लिए गए इस श्लोक में कवि ने इसी भाव  को प्रकट किया है -
     नारिकेल समाकारा, दृश्यन्ते खलु सज्जना:।
      अन्ये बदरिकाकारा, बहिरेव मनोहरा:।। 
अर्थात् सज्जन व्यक्ति नारियल के फल के समान बाहर से कठोर होते हैं और अन्दर से गिरि के समान मधुर और कोमल होते हैं। इनके विपरीत दुष्ट लोग बेर के फल के समान केवल बाहर से कोमल और आकर्षक होते हैं और उनके भीतर गुठली रूपी कठोरता या कटुता रहती है।
           सज्जनों का हर कार्य निस्वार्थ होता है। वे देश, धर्म, परिवार और समाज के कार्य बिना किसी स्वार्थ के करते हैं। वे परोपकार के बदले में वे कुछ भी नहीं चाहते। सज्जनों के निःस्वार्थ स्वभाव के कारण वे समाज के प्रिय बन जाते हैं। इसके विपरीत यदि कोई उनका अहित भी करता है तो वे उसे क्षमा कर देते हैं। ऐसे व्यक्ति से अगर हमारी कोई इच्छा पूरी नहीं होती तो हमें यही सोचना चाहिए कि इसमें हमारी भलाई छिपी है।
          संस्कृत भाषा के महाकवि कालिदास ने अपने खण्ड काव्य 'मेघदूतम्' में कहा है -
  याञ्चा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्‍धकामा:।।
अर्थात् गुणीजन से याचना करना अच्‍छा है। चाहे उनसे की गई प्रार्थना निष्‍फल ही रहे। अधम व्यक्ति से माँगना कभी भी अच्‍छा नहीं होता। चाहे वह सफल ही क्यों न हो जाए।
          इस गम्भीर उक्ति का यही अर्थ है कि सज्जन यदि हमारी मॉंग को ठुकरा देते हैं तो उसमें हमारा हित निहित होता है। यद्यपि उस समय हमें दुख अवश्य होगा कि हमारे कठिन समय पर उन्होंने हमारा साथ नहीं दिया। यदि वे हमारी सहायता कर देते तो उनका क्या बिगड़ जाता? पर समय रहते हमें उनका उद्देश्य समझ आ जाता है। तब ऐसा लगने लगता है कि हमारे प्रति उनकी सोच कितनी सकारात्मक थी। सज्जनों की न में भी हमारी भलाई के लिए होती है।
           इनके विपरीत होते हैं दुर्जन लोग। यदि दुर्जन लोग हमारी किसी इच्छा को पूर्ण करते हैं तो उसमें उनका स्वार्थ छुपा होता है। वे अपना लाभ सोचकर ही किसी के साथ अपना सम्बन्ध बनाते हैं। ऐसे लोग किसी के भी सगे नहीं होते। उनका साथ कभी भी लाभदायक नहीं कहा जा सकता। वे पहले मीठी-मीठी बातें करेंगे और फिर स्वार्थ सिद्ध होने पर ठोकर मार देते हैं। तब वे पहचानने से भी इन्कार कर देते हैं। इन लोगों की न मित्रता अच्छी होती है और न ही शत्रुता भली होती है।
             वे आगे आने वाले समय में हमें कठिनाई में फॅंसा सकते हैं। वे अपने किए उपकार के बदले कुछ ऐसा कर सकते हैं जो हमारे लिए हितकर नहीं होता। अथवा कुछ गलत कार्य करवाकर हमें फॅंसा सकते हैं। कहने का तात्पर्य है कि दुष्ट बेर के फल के समान ऊपर से मनभावन दिखाई देते हैं पर बेर की गुठली की तरह मन से कठोर या अहित करने वाले होते हैं। इसलिए उनकी मीठी या लच्छेदार बातों से बचकर रहना चाहिए। वास्तव में देखा जाए यही हमारे लिए हितकर होता है।
            सज्जनों का साथ हमेशा सुख, शान्ति, सफलता और यश आदि देता है। वे दूर तक साथ निभाते हैं। दुर्जनों की संगति सदैव दुख, निराशा, असफलता और अपयश आदि की ओर ले जाती है। इन लोगों के साथ सम्बन्ध सीमित समय तक ही निभाए जा सकते हैं। अब यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि हम सज्जनों के साथ रहना पसन्द करते हैं या दुर्जनों पर विश्वास करना चाहते हैं। भली-भाँति सोच विचार करके अपने लिए संगति का चुनाव करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद