रविवार, 1 जून 2025

उपभोक्तावादी युग में जीवन का सुकून

उपभोक्तावादी युग में जीवन का सुकून

आज के इस भौतिकतावादी एवं उपभोक्तावादी युग में हर व्यक्ति जीवन की भागदौड़ में इतना उलझा हुआ है कि इस आपाधापी की जिन्दगी में उसे सुकून के दो पल भी नसीब नहीं हो पाते। अब या तो वह आराम कर ले या फिर परिश्रम ही करे। यदि वह आराम करेगा तो जीवन की दौड़ में पिछड़ जाएगा और अपनी दैनन्दिन आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकेगा। इसके विपरीत यदि मेहनत करते हुए चौबीसों घण्टे व्यस्त रहेगा तो सुख-शान्ति नहीं प्राप्त कर सकेगा।
          उसकी यह भटकन मृगतृष्णा की तरह है।  जब रेगिस्तान में चलते हुए प्यास लगती है तो धूप में चमकती हुई रेत में पानी का आभास होता है। अर्थात् ऐसा प्रतीत होता है कि सामने पानी है और जब पास जाओ तो मनुष्य को चारों ओर रेत ही रेत दिखाई देती है। पानी के उस आभास में हम फिर प्यासे रह जाते हैं।
          बहिर्मुखी मानव भौतिक वस्तुओं, सुख के उपकरणों और सुख-सुविधा के साधनों को ही सुख-शान्ति का उत्स(झरना) मानकर अपने जीवन का बहुमूल्य समय व्यर्थ गँवा देता है। उसकी इच्छाएँ या कामनाएँ ऐसी हैं जो समाप्त ही नहीं होतीं। एक के बाद एक प्रलोभनों के जाल में उसे फँसाए रखती हैं जिससे बाहर निकलने का वह असफल प्रयास करता रहता है।
           मानव मन संकल्प-विकल्प में भंवर में सदा ही गोते खाता रहता है। उसका चंचल मन सदैव उठा-पटक में लगा रहता है। इससे उसका मस्तिष्क भी अस्थिर होता रहता है। एवंविध मन और मस्तिष्क के टकराव में वह हरपल पिसता रहता है। मन मनुष्य को भटकाता रहता है, उलझाए रखता है। जबकि उसका मस्तिष्क विवेक बुद्धि उसे सन्मार्ग दिखाता है। उसे भटकने से रोकता है। कभी उसका विवेक हावी हो उसे दिशा देता है और कभी मन हावी होकर उसे अस्थिर बनाता है।
          इसीलिए यहाँ-वहाँ वह सुख-शान्ति को खोजता फिरता है। कभी-कभी मनुष्य ढोंगी बाबाओं के पीछे भागता है। कभी तथाकथित ज्योतिषियों व तान्त्रिकों के चक्कर में पड़ जाता है। फिर तीर्थस्थलों की खाक छानता फिरता है। ये सब भी उसकी मनचाही तलाश को पूर्ण नहीं करते।
           शान्ति की खोज में कस्तूरी मृग की भाँति मनुष्य हर समय इधर-उधर  मारा-मारा फिरता रहता है फिर भी उसे सुख-शान्ति नहीं मिलती। कस्तूरी मृग वह होता है जिसकी नाभि में कस्तूरी होती है। जब मृग को उसकी खुशबू आती है तो वह उसे जंगल में उसे ढूँढने के लिए भटकता है पर उसके हाथ निराशा ही लगती है। इसका कारण है कि वह खुशबू तो उसके अन्दर ही होती है। इसलिए उसका जंगल की खाक छानना व्यर्थ हो जाता है। वैसे ही सुख व शान्ति उसके अन्तर्मुखी होने पर अन्त:करण में ही मिलती है। उसका बाहर भटकना व्यर्थ ही सिद्ध होता है। कबीरदास जी ने कहा है कि ईश्वर कहते हैं- '
     मोकों कहाँ ढूँढ़े बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।
ना तो कौन क्रिया-कर्म में, नहीं योग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तलास में।
कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस में
अर्थात् कबीरदास जी कहते हैं, ऐ मनुष्य, तू मुझे कहाँ ढूँढ़ता फिर रहा है, मैं तो तेरे पास ही हूँ। न मैं मन्दिर में मिलूँगा, न मस्जिद में, न काबे और कैलाश में, न पूजा-पाठ में, न योग-बैराग में। सच्चे मन से खोजने वाला हो तो उसे मैं पल-भर की तलाश में मिल जाऊँगा। कबीर कहते हैं, भाई साधु सुनो, वह तो हर साँस में मौजूद है।
             सुख और शान्ति की तलाश तब पूरी हो सकती है जब मनुष्य अपने मन को साधकर भटकने से बचे। मन की लगाम कसने के लिए  विवेक का आश्रय लेना आवश्यक है। भगवान कृष्ण ने गीता में समझाया है कि वैराग्य और अभ्यास से इस मन को साधने में सफलता प्राप्त होती है। 
           जहाँ यह मन इधर-उधर भागने लगे उसे समझिये कि इस भागमभाग का कोई अन्त नहीं है।अपने विवेक का सहारा लेकर आगे बढ़ें। इससे उन्नति भी होगी और ऊहापोह की स्थिति से भी बचा जा सकता है। तभी सही मायने में सुख और शान्ति से हम अपना यह जीवन व्यतीत कर सकेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद 

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